श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 785 मै खोजत खोजत जी हरि निहचलु सु घरु पाइआ ॥ सभि अध्रुव डिठे जीउ ता चरन कमल चितु लाइआ ॥ प्रभु अबिनासी हउ तिस की दासी मरै न आवै जाए ॥ धरम अरथ काम सभि पूरन मनि चिंदी इछ पुजाए ॥ स्रुति सिम्रिति गुन गावहि करते सिध साधिक मुनि जन धिआइआ ॥ नानक सरनि क्रिपा निधि सुआमी वडभागी हरि हरि गाइआ ॥४॥१॥११॥ {पन्ना 785} पद्अर्थ: खोजत खोजत = तलाश करते करते। जी = हे भाई! सु घरु = वह घर, वह ठिकाना। निहचलु = कभी नाश ना होने वाला। सभि = सारे। अध्रुव = (अ+ ध्रुव) सदा ना टिके रहने वाले, नाशवंत। जीउ = हे भाई! चरन कमल = सुंदर चरनों में। हउ = मैं। न आवै जाऐ = ना पैदा होता है ना मरता है। सभि = सारे (पदार्थ)। पूरन = भरपूर, मौजूद। मनि = मन में। चिंदी इछ = चितवी हुई इच्छा। पुजाऐ = पूरी करता है। तिस की: ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। स्रुति = श्रुति, वेद। गावहि = गाते हैं। करते = करतार के। सिध = सिद्ध, योग साधना में मुहारत हासिल किए हुए जोगी। साधिक = साधना करने वाले। मुनि जन = सारे मुनी लोग। क्रिपानिधि = दया का खजाना।4। अर्थ: हे भाई! तलाश करते-करते मैंने हरी-प्रभू का वह ठिकाना ढूँढ लिया है जो कभी भी डोलता नहीं। जब मैंने देखा कि (जगत के) सारे (पदार्थ) नाशवंत हैं, तब मैंने प्रभू के सुंदर चरणों में (अपना) मन जोड़ लिया। हे भाई! परमात्मा कभी नाश होने वाला नहीं, मैं (तो) उसकी दासी बन गई हूँ, वह कभी जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता। (दुनिया के बड़े से बड़े प्रसिद्ध पदार्थ) धर्म अर्थ काम (आदिक) सारे ही (उस प्रभू में) मौजूद हैं, वह प्रभू (जीव के) मन में चितवी हरेक कामना पूरी कर देता है। हे भाई! (काफी पुरातन समय से ही प्राचीन धर्म पुस्तकें) स्मृतियाँ-वेद (आदिक) उस करतार के गुण गाते आ रहे हैं। जोग-साधना में सिद्ध योगी, योग साधना करने वाले जोगी, सारे ऋषि-मुनि (उसी का नाम) सिमरते आ रहे हैं। हे नानक! वह मालिक-प्रभू कृपा का खजाना है, मनुष्य बड़े भाग्यों से उसकी शरण पड़ता है, उसकी सिफत सालाह करता है।4।1।11। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ वार सूही की सलोका नालि महला ३ ॥ {पन्ना 785} पउड़ी वार भाव: ۰ जगत-रूपी तख्त प्रभू ने स्वयं बनाया है, धरती जीवों के धर्म कमाने के लिए रची है; सब जीवों को रिजक खुद ही पहुँचाता है। ۰ अपने हुकम में रंग-बिरंगी सृष्टि रची है; कई जीवों को गुरू के शबद के द्वारा अपने साथ जोड़े रखता है, उन्हें सच्चा व्यापारी जानो। ۰ सारे जीव प्रभू ने खुद पैदा किए हैं; माया का मोह रूपी अंधेरा भी उसी ने बनाया है और इसमें खुद ही जीवों को भटका रहा है। इस भटकना में पड़े मनमुख सदा पैदा होने मरने के चक्करों में पड़े रहते हैं। ۰ जगत की आश्चर्यजनक रचना प्रभू ने खुद रची है; इसमें मोह, झूठ और अहंकार भी उसने स्वयं ही पैदा किया, मनमुख इस मोह में फस जाता है, पर कई जीवों को गुरू की शरण में ला के ‘नाम’ का खजाना बख्शता है। ۰ मनमुख मोह में फसने के कारण ‘मैं, मेरी’ में ख्वार होता है; मौत को विसार के मानस जनम को विकारों में व्यर्थ ही गवा लेता है और इस चक्रव्यूह में पड़ा रहता है। ۰ जीवों के लिए प्रभू की सबसे महानतम् कृपा उसका ‘नाम’ है; जिसको गुरू के द्वारा ये खजाना मिलता है उसको फिर तोटि नहीं आती और उसके मोह के चक्कर समाप्त हो जाते हैं। ۰ जिन्हें सतिगुरू ने सृष्टि पैदा करने वाले प्रभू के दीदार करवा दिए उनके मन-तन में हमेशा शीतलता बनी रहती है; ज्यों-ज्यों वे गुरू के राह पर चल के सिफत सालाह करते हैं त्यों-त्यों प्रसन्न रहते हैं। ۰ गुरू-शबद के द्वारा जो मनुष्य प्रभू को सिमरते हैं वे प्रभू के साथ एक-मेक हो जाते हैं, ‘मैं, मेरी’ त्याग के उनका मन पवित्र हो जाता है। ۰ पर, मनमुख ‘मैं, मेरी’ में पड़ के दातार को भुला देते हैं। ۰ परमात्मा के डर के बगैर उसकी भक्ति नहीं हो सकती; और ये डर तभी पैदा होता है जब सतिगुरू की शरण आया जाए। ۰ गुरू-शबद के द्वारा प्रभू की प्राप्ति होती है क्योंकि गुरू के द्वारा ही तन-मन अर्पित करके सिफत सालाह करने की जाच आती है। ۰ ‘बंदगी’ का नियम प्रभू ने धुर से ही जीव के लिए बना दिया है, पर बँदगी गुरू की कृपा के साथ ही हो सकती है; शबद के द्वारा उसके दर पर पहुँचने का परवाना मिलता है। ۰ मनुष्य का मन जगत के धंधों में दसों दिशाओं में दौड़ता है, यदि ये कभी बँदगी की तमन्ना भी करे तो भी नहीं कर सकता क्योंकि मन टिकता नहीं। सतिगुरू मन को रोकता है, सो, गुरू की मति के साथ ही ‘नाम’ मिलता है। ۰ जो मनुष्य प्रभू को बिसार के माया से प्यार डालते हैं वह ‘अहंकार’ में फस के ख्वार होते हैं और मानस जनम व्यर्थ में गवाते हैं। ۰ चाहे माया का मोह झूठा है पर जगत इसमें फसा हुआ है और ‘अहंकार’ के लंबे चक्करों में पड़ के दुखी हो रहा है। ۰ जो मनुष्य गुरू के द्वारा प्रभू के दर पर ‘नाम’ की दाति माँगता है, वह हृदय में ‘नाम’ परो के, जोति मिला के, सिफत सालाह का एक-रस आनंद भोगता है। ۰ सिफत सालाह करने वाला जनम सफल कर लेता है, प्रभू को हृदय में बसाता है और प्रभू के दर रूपी निरोल अपना घर ढूँढ लेता है, जहाँ से कभी भटकता नहीं। ۰ सिफत सालाह करने वाला अंदर से ‘अहंकार’ की मैल धो लेता है, जग में शोभा पाता है और चिरों से विछुड़े मालिक के साथ मेल हो जाता है। ۰ सिफत सालाह से मन की वासनाएं समाप्त हो जाती हैं, मन प्रभू में पतीज जाता है। ۰ ज्यों-ज्यों ‘नाम’ का रस आता है, त्यों-त्यों और लगन बढ़ती है। गुरू-शबद के द्वारा ‘नाम’ में ही जुड़ा रहता है। ۰ आखिर, प्रभू के बिना और कोई बेली नहीं बनता, एक वह ही रक्षक दिखता है, किसी और की आस नहीं रह जाती। समूचा भाव: जगत-रूपी तख्त रच के प्रभू ने इसमें धरती जीवों के धर्म कमाने के लिए बनाई। इसमें मोह, झूठ, अहंकार आदि अंधकार भी उसने खुद ही बनाया। मन के पीछे चलने वाला मनुष्य ‘मोह’ में फस के ‘मैं, मेरी’ में ख्वार होता है और विकारों में गलतान रहता है। सबसे उच्च दाति ‘नाम’ है; जो गुरू के सन्मुख हो के जपते हैं उनके मोह के चक्कर खत्म हो जाते हैं। उनके तन-मन में शीतलता बनी रहती है, वे रजा में प्रसन्न रहते हैं, प्रभू के साथ एक-मेक हो जाते हैं, ‘मैं, मेरी’ छोड़ने के कारण उनका मन पवित्र हो जाता है। बँदगी गुरू के माध्यम से ही हो सकती है क्योंकि प्रभू के डर के बिना भक्ति नहीं होती और इस डर की समझ गुरू से ही पड़ती है, गुरू के द्वारा ही तन-मन अर्पित करके सिफत सालाह करने की जाच आती है, गुरू-शबद के द्वारा ही उसके दर पर पहुँचने का परवाना मिलता है, गुरू मन को रोकने की युक्ति सिखाता है और मन को रोके बिना भक्ति में नहीं लगा जा सकता। ‘नाम’ के बिसरने से माया के मोह में फस जाते हैं और ‘अहंकार’ के लंबे चक्रव्यूह में पड़ के दुखी होते हैं। ‘नाम’ सिमरने वाला एक-रस आनंद में रहता है, स्वै-स्वरूप में टिकता है, अहंकार की मैल धो लेता है, (उसके) मन की वासनाएं समाप्त हो जाती हैं, आखिर, प्रभू ही हर जगर बेली (मित्र) व रखवाला प्रतीत होता है। ‘वार’ की संरचना: इस ‘वार’ की 20 पौड़ियां हैं, हरेक पौड़ी की पाँच–पाँच तुकें हैं। 46 श्लोक हैं, जिनका वेरवा इस प्रकार है; सलोक महला ३---------------14 ‘वार’ गुरू अमरदास जी की बनाई हुई है, पर उनके अपने श्लोक सिर्फ निम्नलिखित 6 पौड़ियों के साथ ही हैं – १,२,३,५,६,९। पउड़ी नं: ६ के साथ 3 श्लोक हैं, बाकी पउड़ियों के साथ दो–दो। पउड़ी नंबर ४ के साथ भी गुरू अमरदास जी का 1सलोक है, दूसरा सलोक गुरू नानक देव जी का है। बाकी १३ पउड़ियों के साथ गुरू अमरदास जी का कोई श्लोक नहीं है। अगर गुरू अमरदास जी ने ये ‘वार’ शलोको समेत उचारी होती, तो जैसे पउड़ियों के साथ बनावट का स्तर है, शलोक भी हरेक पउड़ी के साथ उचारते और गिनती भी एक जैसी ही रखते। पर 20 पउड़ियों में से सिर्फ 5 पउड़ियों के साथ कोई भी शलोक ना होने से– ये बात स्पष्ट तौर पर इस नतीजे पर पहॅुंचाती है कि मूल रूप में ‘वार’ सिर्फ पउड़ियों में रची गई। गुरू अमरदास जीने ‘वार’ लिखने के वक्त कोई शलोक नहीं उचारा, ये शलोक उनके संग्रह में से गुरू अरजन देव जी ने ‘बीड़’ तैयार करने के वक्त दर्ज किए थे और सारी वारों के साथ दर्ज करने के उपरांत जो शलोक बढ़ गए, श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के आखिर में इकट्ठे ‘सलोक वारां ते वधीक’ के शीर्षक तले दर्ज कर दिए। व्याकरण के ख्याल से गुरू अमरदास जी की इस रचना में एक मजेदार बात ये मिलती है कि 20 पउड़ियों में 10 पउड़ियां ऐसी हैं जिन में ‘भूत काल’ (Past tense) का एक विशेष रूप मिलता है जिसके साथ ही उसका ‘करता’ (subject) भी मिला हुआ है; देखें: पउड़ी नंबर 1 – रचाइओनु, साजीअनु 20 पउड़ियों में ये क्रिया–रूप 16 बार आया है; ऐसा प्रतीत होता है कि यह ‘क्रिया रूप’ के प्रयोग का उन्हें खास शौक था। सलोकु मः ३ ॥ सूहै वेसि दोहागणी पर पिरु रावण जाइ ॥ पिरु छोडिआ घरि आपणै मोही दूजै भाइ ॥ मिठा करि कै खाइआ बहु सादहु वधिआ रोगु ॥ सुधु भतारु हरि छोडिआ फिरि लगा जाइ विजोगु ॥ गुरमुखि होवै सु पलटिआ हरि राती साजि सीगारि ॥ सहजि सचु पिरु राविआ हरि नामा उर धारि ॥ आगिआकारी सदा सुोहागणि आपि मेली करतारि ॥ नानक पिरु पाइआ हरि साचा सदा सुोहागणि नारि ॥१॥ {पन्ना 785} पद्अर्थ: सूहा = चुहचुहा रंग जैसे कुसंभे का होता है। वेसि = वेश में। सूहै वेसि = सूहे वेश में। रावण जाइ = भोगने जाती है। मोही = ठगी गई, लूटी गई। मिठा करि कै = स्वादिष्ट जान के। सुखु = खालस, निरोल अपना। पलटिआ = पलटा। साजि सीगारि = सजा धजा के। सहजि = सहज अवस्था में। उर = हृदय। सुोहागणि = अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ लगी हैं यहाँ ‘ु’ की मात्रा लगा के पढ़ना है। करतारि = करतार ने। दोहागणि = बुरे भाग्यों वाली, रंडी। अर्थ: जो जीव-स्त्री दुनिया के सुंदर पदार्थ-रूप कुसंभे के चुहचुहे रंग वाले वेश में (मस्त) है वह दुर्भागनि है, वह (जैसे) पराए पति से भोग करने चल पड़ी है, माया के प्यार में वह लूटी जा रही है (क्योंकि) वह अपने हृदय-घर में बसते पति-प्रभू को बिसार देती है। (जिस जीव-स्त्री ने दुनिया के पदार्थों को) स्वादिष्ट समझ के भोगा है (उसके मन में) इस बहुत सारे चस्कों से रोग बढ़ता है, (भाव) वह निरोल अपने पति-प्रभू को छोड़ बैठती है और इस तरह उससे इसका विछोड़ा हो जाता है। जो जीव-स्त्री गुरू के हुकम में चलती है उसका मन (दुनियाँ के भोगों की तरफ से) पलट जाता है, वह (प्रभू के प्यार रूपी गहनों से अपने आप को) सजा-धजा के परमात्मा (के प्यार में) रंगी रहती है, प्रभू का नाम हृदय में धारण करके सहज अवस्था में (टिक के) सदा-स्थिर रहने वाले पति का आनंद लेती है। प्रभू के हुकम में चलने वाली जीव-स्त्री सदा सोहागभाग वाली है, ईश्वर ने उसको अपने साथ मिला लिया है। हे नानक! जिसने सदा-स्थिर प्रभू पति प्राप्त कर लिया है वह (जीव-) स्त्री सदा सोहाग-भाग वाली है।1। मः ३ ॥ सूहवीए निमाणीए सो सहु सदा सम्हालि ॥ नानक जनमु सवारहि आपणा कुलु भी छुटी नालि ॥२॥ {पन्ना 785} पद्अर्थ: सूहवीऐ = हे सूहे वेश वाली! हे चुहचुहे कुसंभे रंग से प्यार करने वाली! हे निमाणी! हे बिचारी! अर्थ: हे चुहचुहे कुसंभी रंग से प्यार करने वाली बिचारी! पति-प्रभू को तू सदा याद रख। हे नानक! (कह कि इस तरह) तू अपना जीवन सवारलेगी, तेरी कुल भी तेरे साथ मुक्त हो जाएगी।2। पउड़ी ॥ आपे तखतु रचाइओनु आकास पताला ॥ हुकमे धरती साजीअनु सची धरम साला ॥ आपि उपाइ खपाइदा सचे दीन दइआला ॥ सभना रिजकु स्मबाहिदा तेरा हुकमु निराला ॥ आपे आपि वरतदा आपे प्रतिपाला ॥१॥ {पन्ना 785} पद्अर्थ: रचाइओनु = रचाया उसने। साजीअनु = रचा उसने। धरमसाला = धर्म कमाने वाली जगह। उपाइ = पैदा कर के। संबाहिदा = पहुँचाता। अर्थ: आकाश और पाताल के बीच का सारा जगत-रूपी तख्त प्रभू ने ही बनाया है, उसने अपने हुकम में ही धरती के जीवों के धर्म कमाने के लिए जगह बनाई है। हे दीनों पर दया करने वाले सदा कायम रहने वाले! तू खुद ही पैदा करके खुद ही नाश करता है। (हे प्रभू!) तेरा हुकम अनोखा है (भाव, कोई इसको मोड़ नहीं सकता) तू सब जीवों को रिजक पहुँचाता है, हर जगह तू स्वयं मौजूद है और तू सवयं ही जीवों की पालना करता है।1। सलोकु मः ३ ॥ सूहब ता सोहागणी जा मंनि लैहि सचु नाउ ॥ सतिगुरु अपणा मनाइ लै रूपु चड़ी ता अगला दूजा नाही थाउ ॥ ऐसा सीगारु बणाइ तू मैला कदे न होवई अहिनिसि लागै भाउ ॥ नानक सोहागणि का किआ चिहनु है अंदरि सचु मुखु उजला खसमै माहि समाइ ॥१॥ {पन्ना 785} पद्अर्थ: सूहब = हे सूहे वेश वालिए! अगला = बहुता। अहि = दिन। निसि = रात। भाउ = प्रेम। चिहनु = लक्षण। अर्थ: हे सूहे वेश वालिए! अगर तू सदा-स्थिर (प्रभू का) नाम मान ले तो तू सोहाग-भाग वाली हो जाए। अपने गुरू को प्रसन्न कर ले, बड़ी (नाम-) रंगत चढ़ आएगी (पर इस रंगत के लिए गुरू के बिना) कोई और जगह नहीं है। (सो गुरू की शरण पड़ कर) ऐसा (सुंदर) श्रृंगार बना जो कभी मैला ना हो और दिन-रात तेरा प्यार (प्रभू से) बना रहे। हे नानक! (इसके बिना) सोहाग-भाग वाली जीव-स्त्री के और क्या लक्षण हो सकते हैं? उसके अंदर सच्चा नाम हो, मुँह (पर नाम की) लाली हो और वह पति-प्रभू में जुड़ी रहे।1। मः ३ ॥ लोका वे हउ सूहवी सूहा वेसु करी ॥ वेसी सहु न पाईऐ करि करि वेस रही ॥ नानक तिनी सहु पाइआ जिनी गुर की सिख सुणी ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ इन बिधि कंत मिली ॥२॥ {पन्ना 785} अर्थ: हे लोगो! मैं (निरी) सूहे वेश वाली (ही) हूँ, मैं (सिर्फ) सूहे कपड़े (ही) पहनती हूँ; पर (निरे) वेशों से पति (-प्रभू) नहीं मिलता, मैं भेस कर-कर के थक गई हूँ। हे नानक! पति उनको (ही) मिलता है जिन्होंने सतिगुरू की शिक्षा सुनी है। (जब जीव-स्त्री इस अवस्था में पहुँच जाए कि) जो प्रभू को भाता है वही होता है, तो इस तरह वह प्रभू-पति को मिल जाती है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |