श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 787 सलोकु मः ३ ॥ सूहवीए सूहा वेसु छडि तू ता पिर लगी पिआरु ॥ सूहै वेसि पिरु किनै न पाइओ मनमुखि दझि मुई गावारि ॥ सतिगुरि मिलिऐ सूहा वेसु गइआ हउमै विचहु मारि ॥ मनु तनु रता लालु होआ रसना रती गुण सारि ॥ सदा सोहागणि सबदु मनि भै भाइ करे सीगारु ॥ नानक करमी महलु पाइआ पिरु राखिआ उर धारि ॥१॥ {पन्ना 787} पद्अर्थ: सूहवीऐ = हे कुसंभी रंग से प्यार करने वालिए! सूहा वेसु = आकर्षित करने वाला वेश, मन को मोहने वाले पदार्थों का चाव। दझि = जल के। गावारि = गवारनि। गुण सारि = प्रभू के गुण चेते कर के। करमी = प्रभू की मेहर से। उर = हृदय। अर्थ: हे कुसंभी रंग से प्यार करने वालिए! मन को मोहने वाले पदार्थों का प्यार छोड़, तब ही तेरे अपने पति-प्रभू से प्यार बनेगा। इस भड़कीले रंग में (मोह डाल के) कभी किसी ने पति-प्रभू नहीं पाया, (ऐसी) मनमर्जी करने वाली मूर्ख स्त्री (इस मोह में ही) जल मरती है। अगर गुरू मिल जाए तो अंदर से अहंकार दूर करने से शोख़-रंग माया का मोह दूर हो जाता है, मन और शरीर (नाम रूपी मजीठ रंग से) सुर्ख लाल हो जाता है, जीभ प्रभू के गुण याद कर के रंगी जाती है। जिस जीव-स्त्री ने प्रभू के डर व प्यार से (अपने मन को) श्रृंगारा है जिस के मन में गुरू-शबद बसता है वह सदा के लिए सोहाग-भाग वाली हो जाती है। हे नानक! प्रभू की मेहर से प्रभू को दिल में टिकाने से उसकी हजूरी प्राप्त होती है।1। मः ३ ॥ मुंधे सूहा परहरहु लालु करहु सीगारु ॥ आवण जाणा वीसरै गुर सबदी वीचारु ॥ मुंध सुहावी सोहणी जिसु घरि सहजि भतारु ॥ नानक सा धन रावीऐ रावे रावणहारु ॥२॥ {पन्ना 787} पद्अर्थ: मुंधे = हे स्त्री! परहरहु = छोड़ दे। घरि = हृदय घर में। सहजि = सहज अवस्था के कारण। साधन = स्त्री। रावीअै = भोगी जाती है। रावणहारु = चोजी, आनंदी प्रभू। अर्थ: हे जीव स्त्री! मन को मोहने वाले पदार्थों का प्यार छोड़ के परमात्मा का नाम-श्रृंगार बना, जो (मानो, मजीठ का पक्का) लाल रंग है; गुरू के शबद द्वारा (परमात्मा के नाम का) विचार कर, जनम-मरण का सिलसिला समाप्त हो जाएगा। हे नानक! वह जीव-स्त्री सोहणी व सुंदर है जिसके हृदय-गृह में अडोल अवस्था बन जाने के कारण पति-प्रभू आ बसता है, उस जीव-स्त्री को चोजी प्रभू अपने साथ मिला लेता है।2। पउड़ी ॥ मोहु कूड़ु कुट्मबु है मनमुखु मुगधु रता ॥ हउमै मेरा करि मुए किछु साथि न लिता ॥ सिर उपरि जमकालु न सुझई दूजै भरमिता ॥ फिरि वेला हथि न आवई जमकालि वसि किता ॥ जेहा धुरि लिखि पाइओनु से करम कमिता ॥५॥ {पन्ना 787} पद्अर्थ: मुगधु = मूर्ख। कुटंबु = (भाव) घर का जंजाल। जमकालि = जमकाल ने। पाइओनु = पाया उस (प्रभू) ने। कमिता = करता है। अर्थ: (इस जगत में) मोह, झूठ व जंजाल प्रबल हैं, मूर्ख मनमर्जी करने वाले बिगड़े हुए मनुष्य इसमें गलतान हुए पड़े हैं; ‘मैं मेरी’ में (भाव, ‘मैं बड़ा हॅूँ’, ‘ये मेरा पदार्थ है’ ये कह–कह के) मनमुख लोग (यहाँ) दुखी होते हैं, (और मरने के वक्त यहाँ से) कुछ साथ नहीं ले के चलते। माया में भटकने के कारण (इनको) सिर पर खड़ी मौत भी नहीं दिखती, और जब मौत ने आ दबोचा तब ये गवाया हुआ समय दोबारा हाथ नहीं आता। (पर मनमुख भी क्या करें?) प्रभू ने (जीवों के पिछले किए कर्मों के अनुसार) जो लेख धुर से माथे पर लिख दिए, वे जीव वैसे ही कर्म कमाते हैं।5। सलोकु मः ३ ॥ सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़िआ लगि जलंन्हि ॥ नानक सतीआ जाणीअन्हि जि बिरहे चोट मरंन्हि ॥१॥ {पन्ना 787} पद्अर्थ: सती = वह स्त्री जो अपने पति के मरने पर उसके साथ ही चिखा में जल मरती थी। आखीअनि = कही जाती थीं। मढ़ = लाश। बिरहा = विछोड़ा। ऐहि = (बहुवचन) ऐसी सि्त्रयां। जि = जो। अर्थ: वह सि्त्रयाँ सती (हो गई) नहीं कहलवा सकती जो (पति की) लाश के साथ जल के मरती थी। हे नानक! जो (पति की मौत और) वियोग की चोट से ही मर जाएं उनको ही सती (हो गई) समझना चाहिए।1। मः ३ ॥ भी सो सतीआ जाणीअनि सील संतोखि रहंन्हि ॥ सेवनि साई आपणा नित उठि सम्हालंन्हि ॥२॥ {पन्ना 787} पद्अर्थ: सील = शील, स्वच्छ आचरण। सील संतोखि = स्वच्छ आचरण रूप संतोष में। सेवनि = सेवा करती हैं। उठि = उठ के, उद्यम से। अर्थ: उन सि्त्रयों को भी सती ही समझना चाहिए, जो पतिव्रता धर्म में रहती हैं, जो अपने पति की सेवा करती हैं और सदा उद्यम से अपना ये धर्म याद रखती हैं।2। मः ३ ॥ कंता नालि महेलीआ सेती अगि जलाहि ॥ जे जाणहि पिरु आपणा ता तनि दुख सहाहि ॥ नानक कंत न जाणनी से किउ अगि जलाहि ॥ भावै जीवउ कै मरउ दूरहु ही भजि जाहि ॥३॥ {पन्ना 787} पद्अर्थ: महेलीआ = सि्त्रयां। कंता नालि = जीवित पतियों से। (नोट: जीव आत्मा के शरीर में से निकल जाने पर निरा शरीर ही किसी स्त्री का ‘कंत’ नहीं कहलवा सकता। ‘कंत’ जीवित मनुष्य ही हो सकता है; मरे मनुष्य के शरीर के वास्ते शब्द ‘मढ़’ बरता गया है; देखें शलोक नंबर 1)। सेती = साथ। सेती अगि जलाहि = आग से जलती हैं, दुख सहती हैं, जगत के दुख सुख में कंत का साथ देती हैं। कै = चाहे, यद्यपि। भावै जीवउ कै मरउ = चाहे जीए चाहे मरे, चाहे सुखी होवे चाहे दुखी होवे! (जीवउ, मरउ = हुकमी भविष्यत अन्न पुरुख, एकवचन; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। अर्थ: (सती) सि्त्रयाँ अपने पति के जीते जी उसकी सेवा करती हैं, पति को ‘अपना’ समझती हैं तभी शरीर के दुख सहती हैं। पर, हे नानक! जिन्होंने पति को पति ना समझा, वे क्यों दुख सहेंगी? पति चाहे सुखी हो चाहे दुखी हो वह (मुश्किल के वक्त) नजदीक नहीं फटकतीं।3। पउड़ी ॥ तुधु दुखु सुखु नालि उपाइआ लेखु करतै लिखिआ ॥ नावै जेवड होर दाति नाही तिसु रूपु न रिखिआ ॥ नामु अखुटु निधानु है गुरमुखि मनि वसिआ ॥ करि किरपा नामु देवसी फिरि लेखु न लिखिआ ॥ सेवक भाइ से जन मिले जिन हरि जपु जपिआ ॥६॥ {पन्ना 787} अर्थ: हे करतार! (जगत में जीव पैदा करके) दुख और सुख भी तूने उनके साथ ही पैदा कर दिए, (दुख और सुख के) लेख भी (तूने उनके माथे पर) लिख दिए। जिस प्रभू का ना कोई खास रूप ना रेख है, उसके नाम के बराबर (जीवों के लिए) और कोई बख्शिश नहीं है, ‘नाम’ एक ऐसा खजाना है जो कभी खत्म नहीं होता, गुरू के सन्मुख होने पर ये मन में बसता है। जिस मनुष्य पर मेहर करके प्रभू अपना ‘नाम’ देता है, उस (के अच्छे-बुरे कर्मों) का लेख दोबारा नहीं लिखता। पर, वही मनुष्य प्रभू को मिलते हैं जो सेवक भाव में रह के हरी-नाम का जाप करते हैं।6। सलोकु मः २ ॥ जिनी चलणु जाणिआ से किउ करहि विथार ॥ चलण सार न जाणनी काज सवारणहार ॥१॥ {पन्ना 787} अर्थ: वह मनुष्य दुनिया के बड़े पसारे नहीं पसारते (भाव, मन को जगत के धंधों में खिलार देते) जिन्होंने ये समझ लिया है कि यहाँ से चले जाना है; पर निरे दुनिया के काम सुलझाने वाले बंदे (यहाँ से आखिर) चले जाने का ख्याल भी नहीं करते।1। मः २ ॥ राति कारणि धनु संचीऐ भलके चलणु होइ ॥ नानक नालि न चलई फिरि पछुतावा होइ ॥२॥ {पन्ना 787} अर्थ: हे नानक! अगर सिर्फ रात के कारण धन इकट्ठा करें तो सवेरे (यहाँ से उठ के) चल पड़ना है (चलने के वक्त वह धन) साथ ना जा सके तो हाथ मलने पड़ने हैं।2। मः २ ॥ बधा चटी जो भरे ना गुणु ना उपकारु ॥ सेती खुसी सवारीऐ नानक कारजु सारु ॥३॥ {पन्ना 787} पद्अर्थ: गुणु = (अपने आप को) लाभ। उपकारु = (किसी और को) लाभ। सेती खुशी = खुशी से। सारु = अच्छा। अर्थ: जो मनुष्य कोई काम बेमना हो के (खुशी से ना) करे, तो उसका लाभ ना उसे खुद को ना किसी और को। हे नानक! वही काम सफल हुआ समझो जो खुशी से (मन लगाकर) किया जाए।3। मः २ ॥ मनहठि तरफ न जिपई जे बहुता घाले ॥ तरफ जिणै सत भाउ दे जन नानक सबदु वीचारे ॥४॥ {पन्ना 787} पद्अर्थ: हठि = हठ से। जिपई = जीता जाता है। जिणै = जीतता है। सत भाउ = अच्छी भावना, नेक नीयति। दे = दे के। तरफ = (ईश्वर वाला) पासा। अर्थ: चाहे कितनी ही मेहनत मनुष्य करे, ईश्वर वाला पासा मन के हठ से नही जीता जा सकता, हे दास नानक! वह मनुष्य (यह) पासा जीतता है जो शुभ भावना बरतता है और गुरू के शबद को विचारता है।4। पउड़ी ॥ करतै कारणु जिनि कीआ सो जाणै सोई ॥ आपे स्रिसटि उपाईअनु आपे फुनि गोई ॥ जुग चारे सभ भवि थकी किनि कीमति होई ॥ सतिगुरि एकु विखालिआ मनि तनि सुखु होई ॥ गुरमुखि सदा सलाहीऐ करता करे सु होई ॥७॥ {पन्ना 787-788} पद्अर्थ: कारणु = जगत। गोई = नाश की। फुनि = दोबारा। जुग चारे = चारे युगों में। भवि = भउ के। किनि = किससे? अर्थ: जिस करतार ने यह जगत बनाया है इसकी संभाल करनी वह खुद ही जानता है; उसने खुद ही सृष्टि पैदा की है, और खुद ही फिर नाश करता है। जब से जगत बना है उस समय से लेकर अब तक ध्यान लगा के देखा है किसी भी जीव द्वारा प्रभू की बुजुर्गीयत का मूल्य नहीं पड़ सका (महानता आँकी नहीं जा सकी)। जिस मनुष्य को गुरू ने वह एक प्रभू दिखा दिया है उस के मन में उसके तन में सुख होता है; जो करतार सब कुछ करने में खुद समर्थ है उसकी गुरू के माध्यम से ही सिफत सालाह की जा सकती है।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |