श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 788 सलोक महला २ ॥ जिना भउ तिन्ह नाहि भउ मुचु भउ निभविआह ॥ नानक एहु पटंतरा तितु दीबाणि गइआह ॥१॥ {पन्ना 788} पद्अर्थ: मुचु = बहुत। पटंतरा = निर्णय, निबेड़ा। दीबाणि = दीवान में, हजूरी में। तितु दीबाणि = उस (रॅबी) हजूरी में। अर्थ: जिन मनुष्यों को (ईश्वर का) डर है उनको (दुनिया वाला कोई) डर नहीं (सताता), (ईश्वर की ओर से जो) निडर (बनते फिरते हैं, उन) को (दुनिया का) बहुत डर सताता है। हे नानक! यह निर्णय तब होता है जब मनुष्य उस (ईश्वर) हजूरी में पहुँचे (भाव, जब प्रभू के चरणों में जुड़े)।1। मः २ ॥ तुरदे कउ तुरदा मिलै उडते कउ उडता ॥ जीवते कउ जीवता मिलै मूए कउ मूआ ॥ नानक सो सालाहीऐ जिनि कारणु कीआ ॥२॥ {पन्ना 788} पद्अर्थ: जीवता = जीवित दिलों वाला, जिंदा दिल। मूआ = मर्दा दिल। जिनि = जिस (प्रभू) ने। उडता = उड़ने वाला, पंक्षी। मिलै = साथ करता है। अर्थ: (चीटीं से लेकर हाथी और मनुष्य तक) चलने वाले के साथ चलने वाला साथ करता है और उड़ने वाले के साथ (भाव, पंछी) के साथ उड़ने वाला। जिंदा दिल को जिंदा दिल मनुष्य आ मिलता है और मुर्दा दिल को मुर्दा दिल (भाव, हरेक जीव अपने-अपने स्वभाव वाले का ही संग करना पसंद करता है)। हे नानक! (जीव भी ईश्वरीय गुणो वाला है, सो, इसको) चाहिए कि जिस प्रभू ने ये जगत रचा है उसकी सिफत सालाह करे (भाव, उसके साथ मन जोड़े)।2। पउड़ी ॥ सचु धिआइनि से सचे गुर सबदि वीचारी ॥ हउमै मारि मनु निरमला हरि नामु उरि धारी ॥ कोठे मंडप माड़ीआ लगि पए गावारी ॥ जिन्हि कीए तिसहि न जाणनी मनमुखि गुबारी ॥ जिसु बुझाइहि सो बुझसी सचिआ किआ जंत विचारी ॥८॥ {पन्ना 788} पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू! सबदि = शबद के द्वारा। उरि = हृदय में। मंडप = बड़े कमरे। माड़ीआं = महल। गुबारी = अंधेरे में। अर्थ: गुरू के शबद के द्वारा उच्च विचार वाले हो के जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू को सिमरते हैं वह भी उसका रूप हो जाते हैं; प्रभू का नाम हृदय में रख के अहंकार को मार के उनका मन पवित्र हो जाता है। पर मूर्ख मनुष्य घरों महलों माड़ियों (के मोह) में लग जाते हैं, मनमुख (मोह के) घोर अंधेरे में फस के उसको पहचानते ही नहीं जिसने पैदा किया है। हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभू! जीव बिचारे क्या हैं? तू जिसे समझ बख्शता है वही समझता है।8। सलोक मः ३ ॥ कामणि तउ सीगारु करि जा पहिलां कंतु मनाइ ॥ मतु सेजै कंतु न आवई एवै बिरथा जाइ ॥ कामणि पिर मनु मानिआ तउ बणिआ सीगारु ॥ कीआ तउ परवाणु है जा सहु धरे पिआरु ॥ भउ सीगारु तबोल रसु भोजनु भाउ करेइ ॥ तनु मनु सउपे कंत कउ तउ नानक भोगु करेइ ॥१॥ {पन्ना 788} पद्अर्थ: कामणि = हे स्त्री! तउ = तब। मतु = मता, प्रस्ताव। बिरथा = व्यर्थ। पिर मनु = पति का मन। कीआ = (श्रृंगार) किया हुआ। तबोल = पान। भाउ = प्यार। अर्थ: हे स्त्री! तब श्रृंगार कर जब पहले पति को रिझा ले, (नहीं तो) कहीं ऐसा ना हो कि पति सेज पर आए ही ना और (तेरा किया हुआ) श्रंृगार ऐसे व्यर्थ चला जाए। हे स्त्री! अगर पति का मन मान जाए तो ही किए हुए श्रृंगार को सफल समझ। स्त्री का किया हुआ श्रृंगार तभी कबूल है अगर पति उसको प्यार करे। हे नानक! अगर जीव स्त्री प्रभू के डर (में रहने) को श्रृंगार और पान का रस बनाती है, प्रभू के प्यार को भोजन (भाव, जिंदगी का आधार) बनाती है, और अपना तन मन पति प्रभू के हवाले कर देती है (भाव, पूर्ण तौर पर प्रभू की रजा में चलती है) उसको ही पति-प्रभू मिलता है।1। मः ३ ॥ काजल फूल त्मबोल रसु ले धन कीआ सीगारु ॥ सेजै कंतु न आइओ एवै भइआ विकारु ॥२॥ {पन्ना 788} पद्अर्थ: काजल = सुर्मा। धन = स्त्री ने। विकारु = बुरा काम। ऐवै = ऐसे, बल्कि। अर्थ: स्त्री ने सुर्मा, फूल और पान का रस ले के श्रृंगार किया, (पर अगर) पति सेज पर ना आया तो ये (किया हुआ) श्रृंगार बल्कि बेकार हो गया (क्योंकि विछोड़े के कारण ये दुखद हो गया)।2। मः ३ ॥ धन पिरु एहि न आखीअनि बहनि इकठे होइ ॥ एक जोति दुइ मूरती धन पिरु कहीऐ सोइ ॥३॥ {पन्ना 788} पद्अर्थ: ऐहि = (‘ऐह’ का बहुवचन, एकवचन है ‘ऐहु’)। मूरती = जिस्म। अर्थ: जो (सिर्फ शारीरिक तौर पर) मिल के बैठैं उन्हें असल पति-पत्नी नहीं कहा जाता, जिनके दोनों जिस्मों में एक ही आत्मा हो जाए (दरअसल) वही असली पत्नी है और असल पति है।3। पउड़ी ॥ भै बिनु भगति न होवई नामि न लगै पिआरु ॥ सतिगुरि मिलिऐ भउ ऊपजै भै भाइ रंगु सवारि ॥ तनु मनु रता रंग सिउ हउमै त्रिसना मारि ॥ मनु तनु निरमलु अति सोहणा भेटिआ क्रिसन मुरारि ॥ भउ भाउ सभु तिस दा सो सचु वरतै संसारि ॥९॥ {पन्ना 788} पद्अर्थ: नामि = नाम में। भाइ = भाव से, प्रेम से। भेटिआ = मिला। मुरारी = (मुर+अरि) ‘मुर’ दैत्य का वैरी, कृष्ण, भाव प्रभू। अर्थ: प्रभू के डर (में रहे) बिना उसकी भक्ति नहीं हो सकती और उसके नाम में प्यार नहीं बन सकता (भाव, उसका नाम प्यारा नहीं लग सकता); ये डर तब ही पैदा होता है अगर गुरू मिले, (इस तरह) डर से प्यार से (भक्ति का) रंग बढ़िया चढ़ता है। (प्रभू के डर और प्यार की सहायता से) अहंकार और तृष्णा को मार के मनुष्य का मन और शरीर (प्रभू की भगती के) रंग से रंगे जाते हैं; प्रभू को मिलके शरीर और मन पवित्र व सुंदर हो जाते हैं। ये डर और प्रेम सब कुछ जिस प्रभू का (बख्शा हुआ मिलता) है वह खुद जगत में (हर जगह) मौजूद है।9। सलोक मः १ ॥ वाहु खसम तू वाहु जिनि रचि रचना हम कीए ॥ सागर लहरि समुंद सर वेलि वरस वराहु ॥ आपि खड़ोवहि आपि करि आपीणै आपाहु ॥ गुरमुखि सेवा थाइ पवै उनमनि ततु कमाहु ॥ मसकति लहहु मजूरीआ मंगि मंगि खसम दराहु ॥ नानक पुर दर वेपरवाह तउ दरि ऊणा नाहि को सचा वेपरवाहु ॥१॥ {पन्ना 788} पद्अर्थ: वाहु = धन्य, आश्चर्य। हम कीऐ = हमें बनाया। वेलि = (हरी) बेल। वरस = वर्षा। वराहु = बादल। आपीणै = आप ही ने, तूने स्वयं ही। आपहु = निर्लिप, पाह के बिना। उनमनि = उत्साह से। मसकति = मुशक्कत, मेहनत करके। दराहु = दर से। पुर = भरे हुए। वेपरवाह = हे बेपरवाह प्रभू! दरि = दर पे। ऊणा = वंचित, सखणा। अर्थ: हे मालिक पति! तू धन्य है! तू धन्य है! जिसने जगत रचना रच के हम (जीवों को) पैदा किया है। समुंद्र, समुंद्र की लहरें, तालाब, हरी बेलें, बरखा करने वाले बादल - (ये सारी रचना करने वाला तू ही तो है)। तू खुद ही सबको पैदा करके सब में खुद व्यापक है और (सबसे निर्लिप भी है) उत्साह से तेरे नाम की कमाई करके गुरसिखों की मेहनत (तेरे दर पर) कबूल हो जाती है, वे बँदगी की मेहनत करके, हे पति! तेरे दर से मांग-मांग के मजदूरी लेते हैं (मुरादें पाते हैं)। हे नानक! (कह–) हे बेपरवाह प्रभू! तेरे दर (बरकतों से) भरे पड़े हैं, कोई जीव तेरे दर पर (आ के) खाली नहीं गया, तू सदा कायम रहने वाला और बेमुहताज है।1। महला १ ॥ उजल मोती सोहणे रतना नालि जुड़ंनि ॥ तिन जरु वैरी नानका जि बुढे थीइ मरंनि ॥२॥ {पन्ना 788} पद्अर्थ: उजल = उज्जवल, सफेद, साफ। मोती = भाव, दाँत। रतनु = भाव, आँखें। जरु = बुढ़ापा। थीइ = हो के। तिन = उनके (शरीर) का। जुड़ंनि = शोभा दे रहे हैं। अर्थ: जो शरीर सुंदर सफेद दाँतों से सुंदर नैनों से शोभा दे रहे हैं, हे नानक! बुढ़ापा इनका वैरी है, क्योंकि बुढे हो के ये नाश हो जाते हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |