श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः १ ॥ चोरा जारा रंडीआ कुटणीआ दीबाणु ॥ वेदीना की दोसती वेदीना का खाणु ॥ सिफती सार न जाणनी सदा वसै सैतानु ॥ गदहु चंदनि खउलीऐ भी साहू सिउ पाणु ॥ नानक कूड़ै कतिऐ कूड़ा तणीऐ ताणु ॥ कूड़ा कपड़ु कछीऐ कूड़ा पैनणु माणु ॥१॥ {पन्ना 790}

पद्अर्थ: जार = व्यभचारी मनुष्य। रंडी = व्यभचारिन स्त्री। कुटणी = दल्ली, दलाल। दीबाणु = मजलस, बैठने खड़े होने की सांझ। वेदीन = बे+दीन, अधर्मी। खाणु = खाने पीने की सांझ। गदहु = गधा। चंदनि = चंदन से। खउलीअै = मलें। साहू = राख। पाणु = पहनने का स्वभाव, बर्ताव व्यवहार। कूड़ै कतिअै = झूठ रूपी सूत कातने से। ताणु = ताना। कछीअै = कछना, कातना, नापा जाता है।

अर्थ: चोरों, लुच्चे लोगों, व्यभचारी औरतों और दल्लों का आपस में उठना बैठना होता है, इन अधर्मियों की आपस में मित्रता और खाने पीने की सांझ होती है; ईश्वर की सिफत सालाह करने की इन्हें समझ ही नहीं होती, (इनके मन में जैसे) सदा शैतान बसता है। (समझते हुए भी नहीं समझते, जैसे) गधे को अगर चंदन भी लेप दें तब उसका बरतन-व्यवहार गर्द और राख से ही होता है (पिछले किए कर्मों के चक्कर इस गलत रास्ते से हटने नहीं देते)।

हे नानक! ‘कूड़’ (झूठा, छल, भ्रम) (सूत्र) कातने के लिए ‘झूठ’ का ही ताना चाहिए, (और उससे) ‘झूठ’ का ही कपड़ा काता जाएगा और पहना जाएगा (इस ‘झूठ’ रूपी पोषाक के कारण ‘झूठी’ ही महिमा मिलती है, भाव, ‘खतिअहु जंमे खते करनि त खतिआ विचि पाहि’)।1।

मः १ ॥ बांगा बुरगू सिंङीआ नाले मिली कलाण ॥ इकि दाते इकि मंगते नामु तेरा परवाणु ॥ नानक जिन्ही सुणि कै मंनिआ हउ तिना विटहु कुरबाणु ॥२॥ {पन्ना 790}

पद्अर्थ: बुरगू = (फारसी: बुरग़ू) तूती। परवाणु = कबूल, पसंद।

अर्थ: (मुल्ला) बांग दे के, (फक़ीर) तूती बजा के, (जोगी) सिंगी बजा के, (मरासी) कलाण करके (लोगों के दर पर माँगते हैं); (संसार में इस तरह के) कई मंगते और कई दाते हैं, पर मुझे तेरा नाम ही चाहिए।

हे नानक! जिन लोगों ने प्रभू का नाम सुन के उसमें मन को जोड़ लिया है, मैं उनसे सदके जाता हूँ।2।

पउड़ी ॥ माइआ मोहु सभु कूड़ु है कूड़ो होइ गइआ ॥ हउमै झगड़ा पाइओनु झगड़ै जगु मुइआ ॥ गुरमुखि झगड़ु चुकाइओनु इको रवि रहिआ ॥ सभु आतम रामु पछाणिआ भउजलु तरि गइआ ॥ जोति समाणी जोति विचि हरि नामि समइआ ॥१४॥ {पन्ना 790}

पद्अर्थ: कूड़ ु = छल भ्रम। कूड़ो = झूठ ही, छल ही। पाइओनु = पाया उस (प्रभू) ने। चुकाइओनु = समाप्त कर दिया उस (प्रभू) ने। भउजलु = संसार समुंद्र। नामि = नाम में।

अर्थ: माया का मोह निरोल एक छल है, (आखिर) छल ही (साबित) होता है, पर प्रभू ने (माया के मोह में जीव फसा के) ‘अहंकार’ का चक्र पैदा कर दिया है इस चक्कर में (पड़ कर) जगत दुखी हो रहा है।

जो मनुष्य गुरू के सन्मुख है उसका ये झमेला प्रभू ने खुद समाप्त कर दिया है, उसको एक प्रभू ही व्यापक दिखाई देता है। गुरमुख हर जगह एक परमात्मा को ही पहचानता है और इस तरह इस संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है; उसकी आत्मा परमात्मा में लीन हुई रहती है वह प्रभू के नाम में जुड़ा रहता है।4।

सलोक मः १ ॥ सतिगुर भीखिआ देहि मै तूं सम्रथु दातारु ॥ हउमै गरबु निवारीऐ कामु क्रोधु अहंकारु ॥ लबु लोभु परजालीऐ नामु मिलै आधारु ॥ अहिनिसि नवतन निरमला मैला कबहूं न होइ ॥ नानक इह बिधि छुटीऐ नदरि तेरी सुखु होइ ॥१॥ {पन्ना 790}

पद्अर्थ: सतिगुर = हे गुरू! भिखिआ = भिक्षा, ख़ैर। आधारु = आसरा। अहिनिसि = दिन रात। नवतन = नया। इह बिधि = इस तरीके से (भाव, नाम जपने से)।

अर्थ: हे गुरू! तू बख्शिश करने योग्य है, मुझे ख़ैर दे (भिक्षा दे, ‘नाम’ की), मेरा अहम्, मेरा अहंकार, मेरा काम क्रोध दूर हो जाए। (हे गुरू! तेरे दर पर मुझे) प्रभू का नाम (जिंदगी के लिए) सहारा मिल जाए तो मेरा चस्का और लोभ अच्छी तरह जल जाएं। प्रभू का नाम दिन रात नए से नया होता है (भाव, ज्यों-ज्यों इसे जपते हैं, इससे प्यार बढ़ता जाता है) ‘नाम’ पवित्र है, ये कभी मैला नहीं होता (तभी तो), हे नानक! ‘नाम’ जपने से (अहंकार के) चक्कर से बच जाया जाता है।

हे प्रभू! ये सुख तेरी मेहर की नजर से मिलता है।1।

मः १ ॥ इको कंतु सबाईआ जिती दरि खड़ीआह ॥ नानक कंतै रतीआ पुछहि बातड़ीआह ॥२॥ {पन्ना 790}

पद्अर्थ: सबाईआ = सभी का। जिती = जितनी। दरि = (प्रभू के) दर पर। बातड़ीआह = सुंदर बातें।

अर्थ: जितनी भी जीव-सि्त्रयां पति-प्रभू के दरवाजे पर खड़ी हुई हैं। उन सभी का एक प्रभू ही रखवाला है। हे नानक! पति-प्रभू के प्रेम-रंग में रंगी हुई प्रभू की ही मन-मोहक बातें (एक-दूसरे से) पूछती हैं।2।

मः १ ॥ सभे कंतै रतीआ मै दोहागणि कितु ॥ मै तनि अवगण एतड़े खसमु न फेरे चितु ॥३॥ {पन्ना 790}

पद्अर्थ: दोहागणि = बुरे भाग्य वाली, छुटड़। कितु = किस काम की? मै तनि = मेरे शरीर में।

अर्थ: सभी जीव-सि्त्रयां प्रभू-पति के प्यार में रंगी हुई हैं, (उन सोहागिनों के सामने) मैं अभागनि किस गिनती में हूँ? मेरे शरीर में इतने अवगुण हैं कि पति मेरी तरफ देखता (ध्यान नहीं देता) तक नहीं।3।

मः १ ॥ हउ बलिहारी तिन कउ सिफति जिना दै वाति ॥ सभि राती सोहागणी इक मै दोहागणि राति ॥४॥ {पन्ना 790}

पद्अर्थ: दै = के। वाति = वात में, मुँह में।

(नोट: शब्द “दे’ और ‘के’ से ‘दै’ और ‘कै’ क्यों बन जाता है ये समझने के लिए देखें पुस्तक ‘गुरबाणी व्याकरण’)।

अर्थ: मैं सदके हूँ उनसे जिनके मुँह में प्रभू की सिफत सालाह है। (हे प्रभू!) तू सारी रातें सुहागिनों को दे रहा है, एक रात मुझ छुटड़ को भी दे।4।

पउड़ी ॥ दरि मंगतु जाचै दानु हरि दीजै क्रिपा करि ॥ गुरमुखि लेहु मिलाइ जनु पावै नामु हरि ॥ अनहद सबदु वजाइ जोती जोति धरि ॥ हिरदै हरि गुण गाइ जै जै सबदु हरि ॥ जग महि वरतै आपि हरि सेती प्रीति करि ॥१५॥ {पन्ना 790}

पद्अर्थ: दरि = दर पर, प्रभू के दर पर। जाचै = मांगताहै। हरि = हे हरी! जनु = (मैं) सेवक। अनहद = एक रस, कभी ना खत्म होने वाला। धरि = धर के, टिका के। जै जै सबदु = प्रभू के जै जैकार की बाणी।

अर्थ: हे प्रभू! मैं मंगता तेरे दरवाजे पर (आकर) ख़ैर माँगता हूँ, मेहर कर मुझे भिक्षा दे; मुझे गुरू के सन्मुख करके (अपने चरणों में) जोड़ ले, मैं तेरा सेवक तेरा नाम प्राप्त कर लूँ; तेरी ज्योति में अपनी आत्मा टिका के मैं तेरी सिफत-सालाह का एक-रस गीत गाऊँ, तेरी जै-जै कार की बाणी के गुण हृदय में गाऊँ, मैं तेरे से प्यार करूँ (और इस तरह मुझे विश्वास हो जाए कि) जगत में प्रभू खुद ही हर जगह मौजूद है।15।

सलोक मः १ ॥ जिनी न पाइओ प्रेम रसु कंत न पाइओ साउ ॥ सुंञे घर का पाहुणा जिउ आइआ तिउ जाउ ॥१॥ {पन्ना 790}

अर्थ: जिन जीव-सि्त्रयों ने प्रभू के प्यार का आनंद नहीं पाया, जिन्होंने पति-प्रभू के मिलाप का स्वाद नहीं चखा (वे इस मनुष्य-शरीर में आ के यूँ ही ख़ाली गई) जैसे किसी सूंने घर (जिस घर में कोई नहीं बस रहा) में आया पराहुणा (मेहमान) जैसे आता है वैसे ही चला जाता है (वहाँ से उसे खाने-पीने को कुछ भी प्राप्त नहीं होता)।1।

मः १ ॥ सउ ओलाम्हे दिनै के राती मिलन्हि सहंस ॥ सिफति सलाहणु छडि कै करंगी लगा हंसु ॥ फिटु इवेहा जीविआ जितु खाइ वधाइआ पेटु ॥ नानक सचे नाम विणु सभो दुसमनु हेतु ॥२॥ {पन्ना 790}

पद्अर्थ: ओलामे = उलाहमे। सहंस = हजारों। करंग = मुर्दा। हंसु = जीव रूपी हंस जिसकी खुराक नाम मोती होनी चाहिए। जितु = जिस में। हेतु = मोह। सभो हेतु = सारा मोह।

अर्थ: (जीव-) हंस परमात्मा की सिफत-सालाह (रूप मोती) छोड़ के (विकार रूप) मुर्दा (खाने) में लगा हुआ है (दिन-रात बुरे कर्म कर रहा है, सो, इन) दिन के वक्त (किए बुरे कर्मों के इसको) सौ उलाहमे (शिकवे-शिकायतें) मिलते हैं और रात (के वक्त किए कर्मों) के हजारों।

धिक्कार है ऐसा जीना जिसमें सिर्फ खा खा के ही पेट बढ़ा लिया। हे नानक! प्रभू के इस नाम से वंचित रहने के कारण ये सारा मोह वैरी बन जाता है।2।

पउड़ी ॥ ढाढी गुण गावै नित जनमु सवारिआ ॥ गुरमुखि सेवि सलाहि सचा उर धारिआ ॥ घरु दरु पावै महलु नामु पिआरिआ ॥ गुरमुखि पाइआ नामु हउ गुर कउ वारिआ ॥ तू आपि सवारहि आपि सिरजनहारिआ ॥१६॥ {पन्ना 790-791}

अर्थ: ढाढी सदा प्रभू के गुण गाता है और अपना जीवन सुंदर बनाता है; गुरू के द्वारा वह प्रभू की बँदगी करके सिफत-सालाह करके सच्चे प्रभू को अपने हृदय में बसाता है, प्रभू के नाम को प्यार करके वह प्रभू का घर, प्रभू का दर और महल ढूँढ लेता है। मैं कुर्बान हूं गुरू से, प्रभू का नाम गुरू के द्वारा ही मिलता है।

हे सृजनहार प्रभू्! तू स्वयं ही (गुरू के राह पर चला के जीव का) जीवन सँवारता है।16।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh