श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 791 सलोक मः १ ॥ दीवा बलै अंधेरा जाइ ॥ बेद पाठ मति पापा खाइ ॥ उगवै सूरु न जापै चंदु ॥ जह गिआन प्रगासु अगिआनु मिटंतु ॥ बेद पाठ संसार की कार ॥ पड़्हि पड़्हि पंडित करहि बीचार ॥ बिनु बूझे सभ होइ खुआर ॥ नानक गुरमुखि उतरसि पारि ॥१॥ {पन्ना 791} पद्अर्थ: बेद पाठ मति = वेदों के पाठ वाली मति, वेद आदि धर्म-पुस्तकों की बाणी के अनुसारी ढली हुई बुद्धि। पापा खाइ = पापों को खा जाती है। बेद पाठ = वेदों के (निरे) पाठ। (नोट: ‘बेद पाठ मति’ और ‘बेद पाठ’ के अंतर पर ध्यान देना आवश्यक है)। संसार की कार = दुनियावी व्यवहार। बीचार = अर्थ बोध। (नोट: ‘पढ़ि पढ़ि’ और ‘बूझे’ में वही फर्क है जो ‘बेद पाठ’ और ‘बेद पाठ मति’ में है)। अर्थ: (जैसे जब) दीपक जलता है तो अंधकार दूर हो जाता है (इसी तरह) वेद (आदि धर्म-पुस्तकों की) बाणी के अनुसार ढली हुई बुद्धि पापों का नाश कर देती है; जब सूर्य चढ़ जाता है चंद्रमा (चढ़ा हुआ) नहीं दिखता, (वैसे ही) जहाँ मति उज्जवल (ज्ञान का प्रकाश) हो जाए वहाँ अज्ञानता मिट जाती है। वेद आदि धर्म-पुस्तकों के (निरे) पाठ तो दुनियावी व्यवहार (समझो), विद्वान लोक इनको पढ़-पढ़ के इनके सिर्फ अर्थ ही विचारते हैं; जब तक मति नहीं बदलती (निरे पाठ व अर्थ-विचार करने से) दुनिया दुखी ही होती है; हे नानक! वह मनुष्य ही (पापों के अंधकार से) पार लंघता है जिसने अपनी मति गुरू के हवाले कर दी है।1। मः १ ॥ सबदै सादु न आइओ नामि न लगो पिआरु ॥ रसना फिका बोलणा नित नित होइ खुआरु ॥ नानक पइऐ किरति कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥२॥ {पन्ना 791} पद्अर्थ: किरति = (ये शब्द ‘किरतु’ से ‘अधिकरण कारक, एकवचन’ है; शब्द ‘पइअै’ भी ‘पइआ’ से ‘अधिकर्ण कारक एकवचन” है, दोनों मिल के वह ‘वाक्यांश’ (Phrase) बना रहे हैं जिसे अंग्रजी में Locative Absolutwe कीते हैं। शब्द ‘किरत’ का अर्थ है ‘किया हुआ काम’; ‘पइआ’ का अर्थ है ‘इकट्ठा हुआ हुआ’)। पइअै किरति = पिछले किए हुए कर्मों के इकट्ठे हुए संस्कारों के अनुसार। अर्थ: जिस मनुष्य को (कभी) गुरू शबद का रस नहीं आया, जिसका (कभी) प्रभू के नाम में प्यार नहीं बना, वह जीभ से फीके बोल बोलता है और सदा ही ख्वार होता रहता है। (पर), हे नानक! (उसके भी वश में क्या?) (हरेक जीव) अपने (अब तक के) किए कर्मों के इकट्ठे हुए संस्कारों के अनुसार काम करता है, कोई मनुष्य इस बने हुए चक्कर को (अपने उद्यम से) मिटा नहीं सकता।2। पउड़ी ॥ जि प्रभु सालाहे आपणा सो सोभा पाए ॥ हउमै विचहु दूरि करि सचु मंनि वसाए ॥ सचु बाणी गुण उचरै सचा सुखु पाए ॥ मेलु भइआ चिरी विछुंनिआ गुर पुरखि मिलाए ॥ मनु मैला इव सुधु है हरि नामु धिआए ॥१७॥ {पन्ना 791} पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। मंनि = मन में (‘म’ को ‘ं’ छंद की चाल पूरी करने लिए लगाया गया है)। सचु = प्रभू का नाम। गुर पुरखि = सतिगुरू मर्द ने। इव = इस तरह। अर्थ: जो मनुष्य अपने परमात्मा की सिफत सालाह करता है वह शोभा कमाता है, मन में से ‘अहंकार’ मिटा के सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू को बसाता है, सतिगुरू की बाणी के द्वारा प्रभू के गुण उचारता है और नाम सिमरता है (इस तरह) असल सुख भोगता है, चिरों से (ईश्वर से) विछुड़े हुए का (दोबारा ईश्वर से) मेल हो जाता है, सतिगुरू मर्द ने (जो) मिला दिया। सो, प्रभू का नाम सिमर के इस तरह मैला मन पवित्र हो जाता है।17। सलोक मः १ ॥ काइआ कूमल फुल गुण नानक गुपसि माल ॥ एनी फुली रउ करे अवर कि चुणीअहि डाल ॥१॥ {पन्ना 791} पद्अर्थ: कूमल = कुमली, कोपलें। गुपसि = गूँदता है। माल = माला, हार। ऐनी फुली = (प्रभू के गुण रूप) इन फूलों की ओर। रउ = रौ, ध्यान, लगन। अवर डाल = और डालियाँ। कि = क्या? अर्थ: हे नानक! शरीर (तो जैसे, फूलों वाले पौधों की) कोपलें हैं, (परमात्मा के) गुण (इस कोमल टाहनी को, जैसे) फूल हैं, (कोई भाग्यशाली ही इन फूलों का) हार गूँदता है; अगर मनुष्य इन फूलों में लगन लगाए तो (मूर्तियों के आगे भेटा के लिए) और डालियाँ चुनने की क्या जरूरत?।1। महला २ ॥ नानक तिना बसंतु है जिन्ह घरि वसिआ कंतु ॥ जिन के कंत दिसापुरी से अहिनिसि फिरहि जलंत ॥२॥ {पन्ना 791} पद्अर्थ: दिसा = पासा, तरफ, लाभ। दिसा पुरी = किसी लाभ वाले नगर में, परदेस में। अहि = दिन। निसि = रात। अर्थ: हे नानक! जिन (जीव-) सि्त्रयों का पति घर में बसता है उनके लिए तो बसंत ऋतु आई हुई है; पर जिनके पति परदेस में (गए हुए) हैं, वह दिन-रात जलती फिरतीं हैं।2। पउड़ी ॥ आपे बखसे दइआ करि गुर सतिगुर बचनी ॥ अनदिनु सेवी गुण रवा मनु सचै रचनी ॥ प्रभु मेरा बेअंतु है अंतु किनै न लखनी ॥ सतिगुर चरणी लगिआ हरि नामु नित जपनी ॥ जो इछै सो फलु पाइसी सभि घरै विचि जचनी ॥१८॥ {पन्ना 791} पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। सेवी = मैं सेवा करूँ, सिमरूँ। रवा = उचारूँ, याद करूँ। रचनी = जुड़े। सभि जचनी = सारी माँगें। अर्थ: गुरू सतिगुरू की बाणी में जोड़ के प्रभू स्वयं ही मेहर करके (‘नाम’ की) बख्शिश करता है। (हे प्रभू! मेहर कर) मैं हर वक्त तुझे सिमरता रहूँ तेरे गुण याद करूँ और मेरा मन तुझ सच्चे में जुड़ा रहे। मेरा परमात्मा बेअंत है किसी जीव ने उसका अंत नहीं पाया, गुरू की शरण पड़ कर प्रभू का नाम नित्य सिमरा जा सकता है। (जो सिमरता है) उसकी सारी जरूरतें घर में ही पूरी हो जाती हैं, वह जिस फल की तमन्ना करता है वही उसको मिल जाता है।18। सलोक मः १ ॥ पहिल बसंतै आगमनि पहिला मउलिओ सोइ ॥ जितु मउलिऐ सभ मउलीऐ तिसहि न मउलिहु कोइ ॥१॥ पद्अर्थ: आगमन = आना। आगमनि = आने से। बसंतै आगमनि = बसंत के आने से। मउलिओ = खिला हुआ। जितु मउलिओ = जिसके खिलने से। अर्थ: जो प्रभू बसंत ऋतु के आने के पहले का है वह ही सबसे पहले का खिला हुआ है, उसके खिलने से सारी सृष्टि खिलती है पर उसको और कोई नहीं खिलाता।1। मः २ ॥ पहिल बसंतै आगमनि तिस का करहु बीचारु ॥ नानक सो सालाहीऐ जि सभसै दे आधारु ॥२॥ {पन्ना 791} अर्थ: उस प्रभू (के गुणों) की विचार करो जो बसंत ऋतु के आने से भी पहले का है (भाव, जिसकी बरकति से सारा जगत मौलता है); हे नानक! उस प्रभू को सिमरें जो सबका आसरा है।2। मः २ ॥ मिलिऐ मिलिआ ना मिलै मिलै मिलिआ जे होइ ॥ अंतर आतमै जो मिलै मिलिआ कहीऐ सोइ ॥३॥ {पन्ना 791} अर्थ: सिर्फ कहने से कि मैं मिला हुआ हूँ मेल नहीं होता, मेल तभी होता है जब सचमुच मिला हुआ हो; अगर अंदर से आत्मा में मिले, उसको मिला हुआ कहना चाहिए।3। पउड़ी ॥ हरि हरि नामु सलाहीऐ सचु कार कमावै ॥ दूजी कारै लगिआ फिरि जोनी पावै ॥ नामि रतिआ नामु पाईऐ नामे गुण गावै ॥ गुर कै सबदि सलाहीऐ हरि नामि समावै ॥ सतिगुर सेवा सफल है सेविऐ फल पावै ॥१९॥ {पन्ना 791} अर्थ: प्रभू का नाम सिमरना चाहिए (जो सिमरन में लगता है वह) ये सिमरन की कार सदा करता है। ‘नाम’ के बिना और आहरों (कामों) में व्यस्त होने से बार-बार जूनियों में मनुष्य पड़ता है। ‘नाम’ में जुड़ने से ‘नाम’ ही कमाया जाता है प्रभू के ही गुण गाए जाते हैं। जिसने गुरू-शबद के द्वारा सिफत सालाह की है वह नाम में ही लीन रहता है। गुरू के हुकम में चलना बड़ा गुणकारी है, हुकम में चलने से नाम-धन रूप् फल मिलता है।19। सलोक मः २ ॥ किस ही कोई कोइ मंञु निमाणी इकु तू ॥ किउ न मरीजै रोइ जा लगु चिति न आवही ॥१॥ {पन्ना 791-792} अर्थ: (हे प्रभू!) किसी का कोई (मिथा हुआ) आसरा है, किसी का कोई आसरा है, मुझ निमाणी का एक तू ही है। जब तक तू मेरे चिक्त में ना बसे, क्यों ना रो रो के मरूँ? (तुझे बिसार के दुखों में ही तो खपना है)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |