श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 792 मः २ ॥ जां सुखु ता सहु राविओ दुखि भी सम्हालिओइ ॥ नानकु कहै सिआणीए इउ कंत मिलावा होइ ॥२॥ {पन्ना 792} अर्थ: अगर सुख है तो भी पति-प्रभू को याद करें, दुख में भी मालिक को चेते रखें, तो, नानक कहता है, हे समझदार जीव-स्त्री! इस तरह पति से मेल होता है।2। पउड़ी ॥ हउ किआ सालाही किरम जंतु वडी तेरी वडिआई ॥ तू अगम दइआलु अगमु है आपि लैहि मिलाई ॥ मै तुझ बिनु बेली को नही तू अंति सखाई ॥ जो तेरी सरणागती तिन लैहि छडाई ॥ नानक वेपरवाहु है तिसु तिलु न तमाई ॥२०॥१॥ {पन्ना 792} अर्थ: हे प्रभू! मैं एक कीड़ा सा हूँ, तेरी महिमा बहुत अपार है, मैं तेरे क्या-क्या गुण बयान करूँ? तू बड़ा दयालु हैं, अपहुँच है तू खुद ही अपने साथ मिलाता है। मुझे तेरे बिना और कोई बेली नहीं दिखता, आखिर तू ही साथी हो के पुकारता है, जो जो जीव तेरी शरण आते हैं उनको (तू अहंकार के चक्करों से) बचा लेता है। हे नानक! प्रभू स्वयं बेमुहताज है, उसको रक्ती भर भी कोई लालच नहीं है।20।1। रागु सूही बाणी स्री कबीर जीउ तथा सभना भगता की ॥ अवतरि आइ कहा तुम कीना ॥ राम को नामु न कबहू लीना ॥१॥ राम न जपहु कवन मति लागे ॥ मरि जइबे कउ किआ करहु अभागे ॥१॥ रहाउ ॥ दुख सुख करि कै कुट्मबु जीवाइआ ॥ मरती बार इकसर दुखु पाइआ ॥२॥ कंठ गहन तब करन पुकारा ॥ कहि कबीर आगे ते न सम्हारा ॥३॥१॥ {पन्ना 792} पद्अर्थ: अवतरि = उतर के, अवतार ले के, जनम ले के। आइ = (जगत में) आ के, (मनुष्य जनम में) आ के। कहा = क्या? को = का। कबहू = कभी भी।1। न जपहु = तू नहीं सिमरता। मरि जइबे कउ = मरने के वक्त। करहु = तुम कर रहे हो। अभागे = हे भाग्यहीन! । रहाउ। दुख सुख करि कै = दुख सुख सह के, कई तरह की मुश्किलें सह के। जीवाइआ = पाला। इकसर = अकेले ही।2। कंठ गहन = गले से पकड़ने के वक्त। करन पुकारा = पुकार करने का (क्या लाभ?)। कहि = कहे, कहता है। आगे ते = मरने से पहले ही। संमारा = याद किया।3। अर्थ: (हे भाई!) तूने परमात्मा का नाम (तो) कभी सिमरा नहीं, फिर जगत में आ के जनम ले के तूने किया क्या? (अर्थात, तूने कुछ भी नहीं कमाया)।1। हे भाग्यहीन बंदे! तू मरने के वक्त के लिए क्या तैयारी कर रहा है? तू प्रभू का नाम नहीं सिमरता, कौन सी कोझी मति से लगा हुआ है? । रहाउ। कई तरह की मुश्किलें सह के तू (सारी उम्र) कुटंब ही पालता रहा, पर मरने के वक्त तुझे अकेले ही (अपनी गलतियों के लिए) दुख सहने पड़े (पड़ेंगे)।2। कबीर कहता है– (जब जमों ने तुझे) गले से आ के पकड़ा (भाव, जब मौत सिर पर आ गई), तब रोने पुकारने (से कोई लाभ नहीं होगा); (उस वक्त के आने से) पहले ही तू क्यों नहीं परमात्मा को याद करता?।3।1। शबद का भाव: सिमरन के बिना जीवन व्यर्थ जाता है। मौत आने पर पछताने से कोई लाभ नहीं होता। पहले ही वक्त सिर संभलना चाहिए। सूही कबीर जी ॥ थरहर क्मपै बाला जीउ ॥ ना जानउ किआ करसी पीउ ॥१॥ रैनि गई मत दिनु भी जाइ ॥ भवर गए बग बैठे आइ ॥१॥ रहाउ ॥ काचै करवै रहै न पानी ॥ हंसु चलिआ काइआ कुमलानी ॥२॥ कुआर कंनिआ जैसे करत सीगारा ॥ किउ रलीआ मानै बाझु भतारा ॥३॥ काग उडावत भुजा पिरानी ॥ कहि कबीर इह कथा सिरानी ॥४॥२॥ {पन्ना 792} पद्अर्थ: थरहर कंपै = थर थर काँपता है, बहुत सहमा हुआ है। बाला जीउ = अंजान जिंद। ना जानउ = मैं नहीं जानता, मुझे नहीं पता। पीउ = पति प्रभू।1। रैनि = रात, जवानी की उम्र जब केश काले होते हैं। दिनु = बुढ़ापे का समय जब केश सफेद हो गए। भवर = भवर जैसे काले केश। बग = बगुले जैसे सफेद केश।1। रहाउ। काचै करवै = कच्चे कुज्जे में। हंसु = जीवात्मा। काइआ = काया, शरीर।2। कुआर = क्वारी। कंनिआ = कन्या। रलीआ = आनंद। बाझु = बिना।3। काग उडावत = (इन्तजार में) कौए उड़ाती हुई। भुजा = बाँह। पिरानी = थक गई। कथा = उम्र की कहानी (भाव, उम्र)। सिरानी = खत्म हो चली है।4। अर्थ: (मेरे) काले केश चले गए हैं (उनकी जगह अब) सफेद आ गए हैं। (परमात्मा का नाम जपे बिना ही मेरी) जवानी की उम्र बीत गई है। (मुझे अब ये डर है कि) कहीं (इसी तरह) बुढ़ापा भी ना बीत जाए।1। रहाउ। (इतनी उम्र भक्ति के बिना गुजर जाने के कारण अब) मेरी अंजान जिंद बहुत सहमी हुई है कि पता नहीं पति प्रभू (मेरे साथ) क्या सलूक करेगा।1। (अब तक बेपरवाही में ख्याल ही नहीं किया कि ये शरीर तो कच्चे बर्तन की तरह है) कच्चे कुजे में पानी टिका नहीं रह सकता (सांसें बीतती गई, अब) शरीर कुम्हला रहा है और (जीव-) भवरा उडारी मारने को तैयार है (पर अपना कुछ भी ना सवारा)।2। जैसे कँवारी कन्या श्रृंगार करती रहे, पति मिलने के बिना (इन श्रृंगारों का) उसको कोई आनंद नहीं आ सकता, (वैसे ही मैं भी सारी उम्र निरे शरीर की खातिर ही आहर-पाहर करती रही, प्रभू को विसारने के कारण कोई आत्मिक सुख ना मिला)।3। कबीर कहता है– (हे पति-प्रभू! अब तो आ के मिल, तेरे इन्तजार में) कौए उड़ाती-उड़ाती मेरी तो बाँह भी थक चुकी है, (और उधर से मेरी उम्र की) कहानी भी समाप्त होने को आ गई है।4।2। शबद का भाव: सिमरन के बिना उम्र गवा के आखिर पछताना पड़ता है कि आगे क्या बनेगा। सूही कबीर जीउ ॥ अमलु सिरानो लेखा देना ॥ आए कठिन दूत जम लेना ॥ किआ तै खटिआ कहा गवाइआ ॥ चलहु सिताब दीबानि बुलाइआ ॥१॥ चलु दरहालु दीवानि बुलाइआ ॥ हरि फुरमानु दरगह का आइआ ॥१॥ रहाउ ॥ करउ अरदासि गाव किछु बाकी ॥ लेउ निबेरि आजु की राती ॥ किछु भी खरचु तुम्हारा सारउ ॥ सुबह निवाज सराइ गुजारउ ॥२॥ साधसंगि जा कउ हरि रंगु लागा ॥ धनु धनु सो जनु पुरखु सभागा ॥ ईत ऊत जन सदा सुहेले ॥ जनमु पदारथु जीति अमोले ॥३॥ जागतु सोइआ जनमु गवाइआ ॥ मालु धनु जोरिआ भइआ पराइआ ॥ कहु कबीर तेई नर भूले ॥ खसमु बिसारि माटी संगि रूले ॥४॥३॥ {पन्ना 792} पद्अर्थ: अमलु = अमल का समय, जिंदगी रूपी मुलाज़मत के काम का समय। सिरानो = बीत गया है। कठिन = कड़े। कहा = कहाँ? सिताब = जल्दी। दीबानि = दीवान ने, धर्मराज ने।1। दरहालु = अभी। फुरमानु = हुकम।1। रहाउ। करउ = करूँ, मैं करता हॅूँ। गाव = पिंड। लेउ निबेरि = निबेड़ लूँगा, समाप्त कर लूँगा। सारउ = मैं प्रबंध करूँगा।2। रंगु = प्यार। सभागा = भाग्यशाली। ईत ऊत = लोक परलोक में।3। रूले = रुल गए, कहीं के ना रहे। अर्थ: (हे जीव! जगत में) नौकरी का समय (उम्र का नियत समय) निकल गया है, (यहाँ जो कुछ करता रहा है) उसका हिसाब देना पड़ेगा; कठोर जमदूत लेने आ गए हैं। (वे कहेंगे-) जल्दी चलो, धर्मराज ने बुलाया है। यहाँ रह के तूने क्या कमाई की है, और कहाँ गवाया है?।1। जल्दी चल, धर्मराज ने बुलाया है; प्रभू की दरगाह का हुकम आया है।1। रहाउ। मैं विनती करता हूँ कि गाँव का कुछ हिसाब-किताब रह गया है, (अगर आज्ञा हो) तो मैं आज की रात ही वह हिसाब समाप्त कर लूँगा, कुछ तुम्हारे लिए भी खर्च का प्रबंध कर लूँगा, और सुबह की नमाज़ राह में ही पढ़ लूँगा (भाव, बहुत सुबह ही तुम्हारे साथ चल दॅूँगा)।2। जिस मनुष्य को सत्संग में रह के प्रभू का प्यार प्राप्त होता है, वह मनुष्य धन्य है, भाग्यशाली है। प्रभू के सेवक लोक-परलोक में सुख से रहते हैं क्योंकि वे इस अमोलक जनम-रूपी कीमती शै को जीत लेते हैं।3। जो मनुष्य जागता ही (माया की नींद में) सोया रहता है, वह मानस जीवन को व्यर्थ गवा लेता है, (क्योंकि) उसका सारा इकट्ठा किया हुआ माल-धन (तो आखिर) बेगाना हो जाता है। हे कबीर! कह–वे मनुष्य अवसर गवा चुके हैं, वे मिट्टी में ही मिल चुके हैं जिन्होंने परमात्मा पति को बिसारा।4।3। शबद का भाव: मनुष्य अपने काम-धंधे पूरे करने में इतना व्यस्त हो जाता है कि परमात्मा को भुला ही देता है। काम-धंधों की उलझन मरने के वक्त तक बनी रहती है, संचित किया हुआ धन भी यहीं छोड़ना पड़ता है, और इस तरह सारी उम्र व्यर्थ ही गुजर जाती है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |