श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 793 सूही कबीर जीउ ललित ॥ थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ ॥ जरा हाक दी सभ मति थाकी एक न थाकसि माइआ ॥१॥ बावरे तै गिआन बीचारु न पाइआ ॥ बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ तब लगु प्रानी तिसै सरेवहु जब लगु घट महि सासा ॥ जे घटु जाइ त भाउ न जासी हरि के चरन निवासा ॥२॥ जिस कउ सबदु बसावै अंतरि चूकै तिसहि पिआसा ॥ हुकमै बूझै चउपड़ि खेलै मनु जिणि ढाले पासा ॥३॥ जो जन जानि भजहि अबिगत कउ तिन का कछू न नासा ॥ कहु कबीर ते जन कबहु न हारहि ढालि जु जानहि पासा ॥४॥४॥ {पन्ना 793} नोट: ये शबद ‘सूही’ और ‘ललित’ दोनों मिश्रित रागों में गाना है। पद्अर्थ: स्रवन = कान। सुनि थाके = सुन सुन के थक गए, कमजोर हो गए हैं। सुंदरि काइआ = सुंदर शरीर। जरा = बुढ़ापा। हाक = आवाज। दी = दी। थाकसि = थकेगी।1। बावरे = हे कमले! तै = तूने।1। रहाउ। सरेवहु = सिमरो। प्रानी = हे प्राणी! सासा = प्राण, सांस। घटु जाइ = शरीर नाश हो जाए। भाउ = (प्रभू से) प्यार।2। जिस कउ अंतरि = जिस मनुष्य के मन में। सबदु = सिफत सालाह की बाणी। चूकै = समाप्त हो जाती है। चउपड़ि = जिंदगी रूपी चौपड़ की खेल। जिणि = जीत के। ढाले = ढालता है।3। जानि = जान के, सोच समझ के, सांझ बना के। भजहि = सिमरते हैं। अबिगत = (संस्कृत: अव्यक्त = invisible) अदृष्ट प्रभू।4। अर्थ: हे बावरे मनुष्य! तूने सारी उम्र व्यर्थ गवा ली है, तूने (परमात्मा के साथ) जान-पहिचान (करने) की समझ प्राप्त नहीं की।1। रहाउ। (तेरी) आँखें कमजोर हो चुकी हैं, कान भी (अब) सुनने से रह गए हैं, सुंदर शरीर (भी) रह गया है; बुढ़ापे ने आ के आवाज मारी है और (तेरी) सारी अक्ल भी (ठीक) काम नहीं करती, पर (तेरी) माया की कसक (अभी तक) नहीं खत्म हुई।1। हे बंदे! जब तक शरीर में प्राण चल रहे हैं, तब तक उस प्रभू को ही सिमरते रहो। (उससे इतना प्यार बनाओ कि) अगर शरीर नाश (भी) हो जाए, तो भी (उससे) प्यार ना घटे, और प्रभू के चरणों में मन टिका रहे।1। (प्रभू स्वयं) जिस मनुष्य के मन में अपनी सिफत सालाह की बाणी बसाता है, उसकी (माया की) प्यास मिट जाती है। वह मनुष्य प्रभू की रजा को समझ लेता है (रजा में राजी रहने का) चौपड़ वह खेलता है, और मन को जीत के पासा फेंकता है (भाव, मन को जीतना- ये उसके लिए चौपड़ की खेल में पासा फेंकना है)।3। जो मनुष्य प्रभू के साथ सांझ बना के उस अदृश्य को सिमरते हैं, उनका जीवन व्यर्थ नहीं जाता । हे कबीर! कह–जो मनुष्य (सिमरन-रूपी) पासा फेंकना जानते हैं, वे जिंदगी की बाजी कभी हार के नहीं जाते।4।4। शबद का भाव: सिमरन के बिना मानस जनम की बाजी हार जाई जाती है, क्योंकि माया का मोह दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है। सूही ललित कबीर जीउ ॥ एकु कोटु पंच सिकदारा पंचे मागहि हाला ॥ जिमी नाही मै किसी की बोई ऐसा देनु दुखाला ॥१॥ हरि के लोगा मो कउ नीति डसै पटवारी ॥ ऊपरि भुजा करि मै गुर पहि पुकारिआ तिनि हउ लीआ उबारी ॥१॥ रहाउ ॥ नउ डाडी दस मुंसफ धावहि रईअति बसन न देही ॥ डोरी पूरी मापहि नाही बहु बिसटाला लेही ॥२॥ बहतरि घर इकु पुरखु समाइआ उनि दीआ नामु लिखाई ॥ धरम राइ का दफतरु सोधिआ बाकी रिजम न काई ॥३॥ संता कउ मति कोई निंदहु संत रामु है एकुो ॥ कहु कबीर मै सो गुरु पाइआ जा का नाउ बिबेकुो ॥४॥५॥ {पन्ना 793} पद्अर्थ: कोटु = किला। सिकदार = चौधरी। पंच = कामादिक पाँच विकार। हाला = हल की कमाई पर सरकारी वसूली, मामला। दुखाला = दुखदाई, मुश्किल।1। हरि के लोगा = हे संत जनो! मो कउ = मुझे। नीति = सदा। डसै = डंक मारता है, डराता है। पटवारी = मामले का हिसाब बनाने वाला, किए कर्मों का लेखा रखने वाला, धर्म राज। भुजा = बाँह। पहि = पास। तिनि = उस (गुरू) ने। हउ = मुझे।1। रहाउ। नउ = कान नाक आदि नौ श्रोत। डाडी = जरीब कश, जमीन को नापने वाले। दस = पाँच ज्ञानेन्द्रियां और पाँच कर्म इन्द्रियां। मुंसफ = न्याय करने वाले। धावहि = दौड़ के आते हैं। रईअति = प्रजा, भले गुण। डोरी = जरीब। बहु = बहुत। बिसटाला = (विष्टा) गंद की कमाई, रिश्वत। बहु...लेही = अपनी सीमा से ज्यादा विषियों में फंसाते हैं (इन ज्ञानेन्द्रियों को किसी खास हद तक रहने की हिदायत है। पर इस हद के अंदर रहने की बजाय, इन्साफ की जगह बल्कि अन्याय करते हैं)।2। बहतरि घर = बहक्तर कोठड़ियां वाला शरीर। उनि = उस (गुरू) ने। नामु = प्रभू का नाम। लिखाई = (राहदारी) लिख के दे दी है। सोधिआ = पड़ताल की है। बाकी = (मेरे जिंमे) देने वाली रकम। रिजम = रक्ती भर भी।3। ऐकुो– (नोट: अक्षर ‘क’ के साथ दो मात्राएं (ो) व (ु) लगीं हैं। असल शब्द है ‘ऐकु’; यहां पढ़ना है ‘ऐको’)। बिबेकुो = बिबेक रूप, पूर्ण विवेक वाला, पूर्ण ज्ञानवान।4। अर्थ: (मनुष्य का ये शरीर, जैसे) एक किला है, (इसमें) पाँच (कामादिक) चौधरी (बसते हैं), पाँचो ही (इस मनुष्य से) मामला मांगते हैं (भाव, ये पाँचों विकार इसे दुखी करते फिरते हैं)। (पर अपने सतिगुरू की कृपा से) मैं (इन पाँचों में से)। किसी का भी मुज़ारिया नहीं बना (भाव, मैं किसी के भी दबाव में नहीं आया), इस वास्ते किसी का मामला भरना मेरे लिए मुश्किल है (भाव, इनमें से कोई भी विकार मुझे कुमार्ग पर नहीं डाल सका)।1। हे संतजनो! मुझे मामले का हिसाब बनाने वाले का हर वक्त सहम रहता है (अर्थात मुझे हर वक्त डर रहता है कि कामादिक विकारों का कहीं जोर पड़ कर मेरे अंदर भी कुकर्मों का लेखा ना बनने लग जाए), सो मैंने अपनी बाँह ऊँची करके (अपने) गुरू के आगे पुकार की और उसने मुझे (इनसे) बचा लिया।1। रहाउ। (मनुष्य-शरीर के) नौ (श्रोत-) ज़रीब-कश (जमीन की पैमायश करने वाले) और दस (इन्द्रियां) न्याय करने वाली (मनुष्य के जीवन पर ऐसे) टूट के पड़ते हैं कि (मनुष्य के अंदर भले गुणों की) प्रजा को बसने नहीं देते। (ये ज़रीबकश) जरीब पूरी नहीं नापते, ज्यादा रिश्वतें लेते हैं (भाव, मनुष्य को हद से ज्यादा विकारों में फसाते हैं, हद से ज्यादा काम आदि में फसा देते हैं)।2। (मैंने अपने गुरू के आगे पुकार की तो) उसने मुझे (उस परमात्मा का) नाम बतौर राहदारी लिख दिया, जो बहक्तर घरों वाले शरीर के अंदर ही मौजूद है। (सतिगुरू की इस मेहर के सदका जब) धर्मराज के दफतर की जाँच हुई तो मेरे जिम्मे रक्ती भर भी देनदारी नहीं निकली (भाव, गुरू की कृपा से मेरे अंदर से कुकर्मों का लेखा बिल्कुल ही खत्म हो गया)।3। (सो, हे भाई! ये बरकति संतजनों के संगति की है) तुम कोई भी संत की कभी निंदा ना करना, संत और परमात्मा एक रूप हैं। हे कबीर! कह– मुझे भी वही गुरू-संत ही मिला है जो पूर्ण ज्ञानवान है।4।5। शबद का भाव: गुरू की शरण पड़ कर प्रभू का सिमरन करो, विकार अपना जोर नहीं डाल सकेंगे। रागु सूही बाणी स्री रविदास जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सह की सार सुहागनि जानै ॥ तजि अभिमानु सुख रलीआ मानै ॥ तनु मनु देइ न अंतरु राखै ॥ अवरा देखि न सुनै अभाखै ॥१॥ सो कत जानै पीर पराई ॥ जा कै अंतरि दरदु न पाई ॥१॥ रहाउ ॥ दुखी दुहागनि दुइ पख हीनी ॥ जिनि नाह निरंतरि भगति न कीनी ॥ पुर सलात का पंथु दुहेला ॥ संगि न साथी गवनु इकेला ॥२॥ दुखीआ दरदवंदु दरि आइआ ॥ बहुतु पिआस जबाबु न पाइआ ॥ कहि रविदास सरनि प्रभ तेरी ॥ जिउ जानहु तिउ करु गति मेरी ॥३॥१॥ {पन्ना 793} पद्अर्थ: सह = पति। सार = कद्र। सुहागनि = सोहाग वाली, पति के साथ प्यार करने वाली। तजि = छोड़ के। अंतरु = दूरी। देइ = हवाले करती है। अभाखै = बुरी प्रेरणा।1। पराई पीर = और (गुरमुख सुहागनों) के विछोड़े की पीड़ा। जा कै अंतरि = जिसके हृदय में। दरदु = प्रभू पति से विछोड़े की पीड़ा।1। रहाउ। दुइ पख = दो पक्ष (ससुराल-पेका, लोक-परलोक)। हीनी = वंचित हुई। जिनि = जिस ने। नाह भगति = पति प्रभू की बंदगी। निरंतरि = एक रस। पुरसलात = (पुल सिरात) इस्लामी ख्याल के अनुसार एक पुल दोज़क (नर्क) की आग के ऊपर बना हुआ है, बाल के जितना बारीक है, हरेक को इसके ऊपर से गुजरना पड़ता है। देहुला = मुश्किल।2। दरि = प्रभू के दर पर। पिआस = दर्शन की तमन्ना। जबाबु = उक्तर। गति = उच्च आत्मिक हालत।3। अर्थ: जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभू से विछोड़े का शूल नहीं उठा, वह औरों (गुरमुख सुहागनों) के दिल की (इस) पीड़ा को कैसे समझ सकती है?।1। रहाउ। पति-प्रभू (के मिलाप) की कद्र पति से प्यार करने वाली ही जानती है, वह अहंकार छोड़ के (प्रभू-चरनों में जुड़ के उस मिलाप का) सुख-आनंद भोगती है, अपना तन-मन प्रभू पति के हवाले कर देती है, प्रभू-पति से (कोई) दूरी नहीं रखती, ना किसी और का आसरा देखती है, और ना ही किसी की बुरी प्रेरणा सुनती है।1। पर जिस जीव-स्त्री ने पति-प्रभू की बंदगी एक-रस नहीं की, वह छुटड़ दुखी रहती है, ससुराल-पेके (लोक-परलोक) दोनों जगहों से वंचित रहती है; जीवन का ये रास्ता (जो) पुरसलात (के समान है, उसके लिए) बड़ा मुश्किल हो जाता है, (यहाँ दुखों में) कोई संगी-साथी नहीं बनता, (जीवन-सफर का) सारा रास्ता ही अकेले (लांघना पड़ता) है।2। हे प्रभू! मैं दुखी मैं दर्दवंद तेरे दर पर आया हूँ, मुझे तेरे दर्शनों की बहुत तमन्ना है (पर तेरे दर से) कोई उक्तर नहीं मिलता। रविदास कहता है– हे प्रभू! मैं तेरी शरण आया हॅूँ, जैसे भी बने, वैसे मेरी हालत सवार दे।3। शबद का भाव: परमात्मा की भगती की दाति के वास्ते प्रभू-दर से माँग। सूही ॥ जो दिन आवहि सो दिन जाही ॥ करना कूचु रहनु थिरु नाही ॥ संगु चलत है हम भी चलना ॥ दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना ॥१॥ किआ तू सोइआ जागु इआना ॥ तै जीवनु जगि सचु करि जाना ॥१॥ रहाउ ॥ जिनि जीउ दीआ सु रिजकु अ्मबरावै ॥ सभ घट भीतरि हाटु चलावै ॥ करि बंदिगी छाडि मै मेरा ॥ हिरदै नामु सम्हारि सवेरा ॥२॥ जनमु सिरानो पंथु न सवारा ॥ सांझ परी दह दिस अंधिआरा ॥ कहि रविदास निदानि दिवाने ॥ चेतसि नाही दुनीआ फन खाने ॥३॥२॥ {पन्ना 793-794} पद्अर्थ: जो दिन = जो दिन। जाही = बीत जाते हैं, गुजर जाते हैं। रहनु = ठिकाना। थिरु = सदा का। संगु = साथ। गवनु = रास्ता, राही, मुसाफरी। दूरि गवनु = दूर का सफर। मरना = मौत।1। किआ = क्यों? इआना = हे अंजान! जगि = जगत में। सचु = सदा कायम रहने वाला।1। रहाउ। जिनि = जिस (प्रभू) ने। जीउ = जिंद। अंबरावै = पहुँचाता है। भीतरि = अंदर। हाटु = दुकान। हाटु चलावै = रोजी का प्रबंध करता है। सवेरा = समय सिर, सुबह ही।2। सिरानो = गुजर रहा है। पंथु = जिंदगी का रास्ता। सवारा = सुंदर बनाया। सांझ = शाम। दहदिस = दसों तरफ। कहि = कहे, कहता है। निदानि = अंत को। दिवाने = हे दिवाने! हे पागल! फनखाने = फनाह का घर, नाशवंत।3। अर्थ: (मनुष्य की जिंदगी में) जो जो दिन आते हैं, वह दिन (असल में साथ-साथ) गुजरते जाते हैं (भाव, उम्र में से कम होते जाते हैं), (यहाँ से हरेक ने) कूच कर जाना है (किसी की भी यहाँ) सदा ही रिहायश नहीं है। हमारा साथ चलता जा रहा है, हमने भी (यहाँ से) चले जाना है; ये दूर की यात्रा है और मौत सिर पर खड़ी है (पता नहीं कौन से वक्त आ जाए)।1। हे अंजान! होश कर! तू क्यों सो रहा है? तू जगत में इस जीवन को सदा कायम रहने वाला समझ बैठा है।1। रहाउ। (तू हर वक्त रिजक की ही फिक्र में रहता है, देख) जिस प्रभू ने जिंद दी है, वह रिजक भी पहुँचाता है, सारे शरीरों में बैठा हुआ वह स्वयं रिजक के आहर पैदा कर रहा है। मैं (इतना बड़ा हॅूँ) मेरी (इतनी मल्कियत है) - छोड़ ये बातें, प्रभू की बंदगी कर, अब वक्त रहते उसका नाम अपने दिल में संभाल।2। उम्र बीतने पर आ रही है, पर तूने अपना राह सही नहीं बनाया; शाम पड़ रही है, हर तरफ अंधकार ही अंधकार छाने वाला है। रविदास कहता है– हे कमले मनुष्य! तू प्रभू को याद नहीं करता, दुनिया (जिससे तू मन जोड़े बैठा है) अंत में नाश हो जाने वाली है।3।2। नोट: आम तौर पर शब्द ‘निदानि’ को फारसी के शब्द ‘नादान’ समझ के इसके अर्थ ‘मूर्ख’ किए जा रहे हैं। इसके साथ लगा हुआ शब्द ‘दिवाने’ भी कुछ इसी ही अर्थ में मन का झुकाव पैदा करता है॥ पर यह गलत है, क्योंकि गुरू ग्रंथ साहिब जी में जहाँ कहीं भी ये शब्द आया हैइसके अर्थ ‘अंत को, आखिर को’ किया जाता है। ये संस्कृत का शब्द ‘निदान’ है जिसका अर्थ है ‘आखीर, अंत (end, termination)। देखें; ‘बिनु नारवै पाजु लहगु निदानि ॥’ (बिलावल महला ३) बाकी रहा ये एतराज कि ये अर्थ करने के वक्त ‘निदानि’ को उठा के आखिर में शब्द ‘फ़नखाने’ के साथ मिलाना पड़ता है, इस ‘अनवय’ में खींच प्रतीत होती है। इसका उक्तर ये है कि हरेक कवि की कविता का अपना-अपना ढंग है; भगत रविदास जी भी एक और जगह यही तरीका इस्तेमाल करते हैं; ‘निंदकु सोधि सोधि बीचारिआ ॥ कहु रविदास पापी नरकि सिधारिआ॥’ (गौंड) इस प्रमाण में शब्द ‘निंदकु’ तुक का अर्थ करने के वक्त आखिर में शब्द ‘पापी’ के साथ बर्तना पड़ता है। शबद का भाव: जगत में सदा बैठे नहीं रहना। इसके मोह में मस्त हो के प्रभू की भक्ति के प्रति गाफिल ना होएं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |