श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 794

Extra text associated with this page

सूही ॥ ऊचे मंदर साल रसोई ॥ एक घरी फुनि रहनु न होई ॥१॥ इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी ॥ जलि गइओ घासु रलि गइओ माटी ॥१॥ रहाउ ॥ भाई बंध कुट्मब सहेरा ॥ ओइ भी लागे काढु सवेरा ॥२॥ घर की नारि उरहि तन लागी ॥ उह तउ भूतु भूतु करि भागी ॥३॥ कहि रविदास सभै जगु लूटिआ ॥ हम तउ एक रामु कहि छूटिआ ॥४॥३॥ {पन्ना 794}

पद्अर्थ: साल रसोई = रसोईशाला, रसोई घर। फुनि = दोबारा (भाव, मौत आने पर)।1।

टाटी = छप्पॅर।1। रहाउ।

भाई बंध = रिश्तेदार। सहेरा = साथी, यार मित्र। लागे = कहने लग जाते हैं। सवेरा = सुबह, जल्दी।2।

घर की नारि = अपनी पत्नी। उरहि = छाती से। भूतु = गुजर गया है, मर गया है। भागी = परे हट जाती है।3।

कहि = कहे, कहता है। लूटिआ = ठगा जा रहा है। तउ = तो।4।

अर्थ: (अगर) ऊँचे-ऊँचे पक्के घर व रसोईखाने हों (तो भी क्या हुआ?) मौत आने से (इनमें) एक घड़ी भी (ज्यादा) रहने को नहीं मिलता।1।

(पक्के घर आदि तो कहाँ रहे) ये शरीर (भी) घास के छप्पर की तरह ही है, घास जल जाती है, और मिट्टी में मिल जाती है (यही हाल शरीर का होता है)।1। रहाउ।

(जब मनुष्य मर जाता है तब) रिश्तेदार, परिवार, सज्जन, साथी - ये सभी कहने लग जाते हैं कि इसे अब जल्दी बाहर निकालो।2।

अपनी पत्नी (भी) जो सदा (मनुष्य) के साथ लगी रहती थी, ये कह के परे हट जाती है ये तो अब मर गया है, मर गया।3।

रविदास कहता है– सारा जगत ही (शरीर को, जायदाद को, संबन्धियों को अपना समझ के) ठगा जा रहा है, पर मैं एक परमात्मा का नाम सिमर के (इस ठगी से) बचा हूँ।4।3।

शबद का भाव: यहाँ। कुछ दिन का ठिकाना है। असल साथी परमात्मा ही है।


ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु सूही बाणी सेख फरीद जी की ॥

तपि तपि लुहि लुहि हाथ मरोरउ ॥ बावलि होई सो सहु लोरउ ॥ तै सहि मन महि कीआ रोसु ॥ मुझु अवगन सह नाही दोसु ॥१॥ तै साहिब की मै सार न जानी ॥ जोबनु खोइ पाछै पछुतानी ॥१॥ रहाउ ॥ काली कोइल तू कित गुन काली ॥ अपने प्रीतम के हउ बिरहै जाली ॥ पिरहि बिहून कतहि सुखु पाए ॥ जा होइ क्रिपालु ता प्रभू मिलाए ॥२॥ विधण खूही मुंध इकेली ॥ ना को साथी ना को बेली ॥ करि किरपा प्रभि साधसंगि मेली ॥ जा फिरि देखा ता मेरा अलहु बेली ॥३॥ वाट हमारी खरी उडीणी ॥ खंनिअहु तिखी बहुतु पिईणी ॥ उसु ऊपरि है मारगु मेरा ॥ सेख फरीदा पंथु सम्हारि सवेरा ॥४॥१॥ {पन्ना 794}

पद्अर्थ: तपि तपि = खप खप के, दुखी हो हो के। लुहि लुहि = तड़प तड़प के। हाथ मरोरउ = मैं हाथ मलती हूँ, मैं पछताती हूँ। बावलि = कमली, झल्ली। लोरउ = मैं तलाशती हूँ। सहि = पति ने। रोसु = गुस्सा। सह = पति का।1।

सार = कद्र। खोइ = गवा के।1। रहाउ।

कित गुन = किन गुणों के कारण। हउ = मैं। बिरहै = बिछोड़े में। जाली = जली।2।

विधण = (विधून) कंपाने वाली, डरावनी, भयानक। मुंध = स्त्री। प्रभि = प्रभू ने। साध संगि = सत्संग में। बेली = मददगार।3।

वाट = जीवन सफर। उडीणी = दुखद, चिंतातुर करने वाली। खंनिअहु = खंडे से। पिइणी = तेज धार वाली, पतली। समारि = संभाल के। सवेरा = सुबह।4।

अर्थ: हे मेरे मालिक! मैंने तेरी कद्र नहीं जानी, जवानी का समय गवा के अब बाद में मैं झुर रही हूँ।1। रहाउ।

बड़ी दुखी हो के, बड़ी तड़फ के अब मैं हाथ मल रही हूँ, पागल हो के अब मैं उस पति को तलाशती फिरती हूँ। हे पति प्रभू! तेरा कोई दोष (मेरी इस बुरी हालत के लिए) नहीं है, मेरे में ही अवगुण थे, तभी तूने अपने मन में मेरे साथ रोष किया।1।

(अब मैं कोयल को पूछती फिरती हूँ-) हे काली कोयल! (भला, मैं तो अपने कर्मों की मारी दुखी जली सड़ी हुई हूँ) तू भी क्यों काली (हो गई) है? (कोयल भी यही उक्तर देती है) मुझे मेरे प्रीतम के विछोड़े ने जला डाला है। (ठीक है) पति से विछुड़ के कहीं कोई सुख पा सकी है? (पर, जीव-स्त्री के वश की भी बात नहीं) जब प्रभू खुद मेहरवान होता है तो खुद ही मिला लेता है।2।

(इस जगत रूप) डरावने कूएं में मैं जीव-स्त्री अकेली (गिर गई थी, यहाँ) कोई मेरा साथी नहीं (मेरे दुखों में) कोई मेरा मददगार नहीं। अब जब प्रभू ने मेहर करके मुझे सत्संग में मिलाया है, (सत्संग में आ के) जब मैं देखती हूँ तो मुझे मेरा रॅब बेली दिख रहा है।3।

हे भाई! हमारा यह जीवन-पथ बहुत भयावह है, खंडे से भी तीखा है, बड़ी तेज धार वाला है; इसके ऊपर से हमें गुजरना है। इस वास्ते, हे फरीद! सुबह-सुबह रास्ता संभाल।4।1।

सूही ललित ॥ बेड़ा बंधि न सकिओ बंधन की वेला ॥ भरि सरवरु जब ऊछलै तब तरणु दुहेला ॥१॥ हथु न लाइ कसु्मभड़ै जलि जासी ढोला ॥१॥ रहाउ ॥ इक आपीन्है पतली सह केरे बोला ॥ दुधा थणी न आवई फिरि होइ न मेला ॥२॥ कहै फरीदु सहेलीहो सहु अलाएसी ॥ हंसु चलसी डुमणा अहि तनु ढेरी थीसी ॥३॥२॥ {पन्ना 794}

नोट: श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के हरेक शबद में ‘रहाउ’ की एक व दो तूकें आती हैं। ‘रहाउ’ का अर्थ है ‘टिकाव’, ‘ठहरना’। सो, सारे शबद को समझने के लिए पहले उस पंक्ति पर ठहरना है, जिसके साथ ‘रहाउ’ लिखा है। गुरू ग्रंथ साहिब जी के शबदों को समझने का मूल नियम यही है कि पहले ‘रहाउ’ की पंक्ति को अथवा पद को अच्छी तरह समझ लिया जाय। मुख्य भाव इसी पंक्ति में ही होता है, बाकी के पद इस मुख्य–भाव का विस्तार होते हैं।

हथु न लाइ कसुंभड़ै, जलि जासी ढोला॥१॥ रहाउ॥

‘कसुंभा’ एक फूल का नाम है, जिसका रंग देखने में तो बड़ा चटक और भड़कीला होता है, पर जल्दी ही खराब हो जाता है इसके मुकाबले पर ‘मजीठ’ है; इसका रंग पक्का होता है। श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी में ये दोनों ही पदार्थों के मुकाबले में ‘माया’ और ‘नाम’ के लिए बरते गए हैं, क्योंकि माया का साथ चार दिन का है, और, नाम–धन इसका साथ निभने वाला है। ‘कसुंभड़ै’ फूल के साथ ‘जलि’ जाने का शब्द का इस्तेमाल भी पंजाबी मुहावरे के मुताबिक ही है। हम आम तौर पर कहते हैं, ‘फूल जल गया’। शब्द ‘जलि’ का संबंध ‘कसुंभड़ै’ से है। इसे और ज्यादा स्पष्ट करने के लिए इसी राग के आरम्भ में गुरू नानक साहिब का एक शबद काफी है इन दोनों शबदों को आमने–सामने रख के एक–एक पद मिला के पढ़ें तो ऐसा प्रतीत होता है कि शेख फरीद जी के भाव को स्पष्ट करने के लिए साहिब गुरू नानक देव जी ने ये शबद उचारा है। शबद यूँ है;

सूही महला १॥ जप तप का बंधु बेड़ ुला जितु लंघहि वहेला॥ ना सरवरु ना ऊछलै अैसा पंथु सुहेला॥१॥ तेरा ऐको नामु मंजीठड़ा रता मेरा चोला सद रंग ढोला॥१॥ रहाउ॥ साजन चले पिआरिआ किउ मेला होई॥ जे गुण होवहि गंठड़ीअै मेलेगा सोई॥२॥ मिलिआ होइ न वीछुड़ै जे मिलिआ होई॥ आवा गउणु निवारिआ है साचा सोई॥३॥ हउमै मारि निवारिआ सीता है चोला॥ गुर बचनी फलु पाइआ सह के अंम्रित बोला॥४॥ नानकु कहै सहेलीहो सहु खरा पिआरा॥ हम सह केरीआ दासीआ साचा खसम हमारा॥५॥२॥४॥   (पन्ना 729)

इस शबद का एक एक पद फरीद जी के शबद के एक एक पद के भाव को खोल रहा है। यही हाल ‘रहाउ’ की तुक का है। ‘कुसंभै’ के मुकाबले में ‘मजीठ’ शब्द बरता है। इस तरह ‘कसुंभड़ै’ का अर्थ ‘कसुंभ’ का फूल ही है जो ‘माया’ के प्रथाय प्रयोग किया गया है।

अर्थ: हे मित्र! कसुंभ–रूपी माया को हाथ ना लगा, यह कसुंभ जल जाएगा, भाव इस माया का साथ जल्दी ही नष्ट होने वाला है। रहाउ।

मूल:बेड़ा बंधि न सकिओ, बंधन की वेला॥

(प्र:) कौन सा बेड़ा?

(उ:) जप तप का बंधु बेड़ुला॥

मूल:इकि आपीनै, पतली सहके रे बोला॥

इस तुक का ठीक पाठ करने के लिए ठीक अर्थ समझने के लिए गुरू नानक देव जी के उपरोक्त दिए शबद का आठवाँ पद पढ़ें –

‘गुर बचनी फलु पाइआ, सह के अंम्रित बोला॥’

जिन्होंने कसुंभ को हाथ लगाया वह ‘आपीनै पतली’ रहीं और उन्हें प्राप्त क्या हुआ? ‘सह के रे बोला’। पर जिनका चोला नाम–मजीठ से रंगा गया, उन्होंने फल पाया ‘सह के अम्रित बोला’।

इन दोनों तुकों के सारे शब्दों को आपस में मेल करके देखें। शब्द ‘सह’, ‘के’, ‘बोला’ –ये तीनों ही दोनों में सांझे हैं। गुरू नानक साहिब वाले शबद की तुक में शब्द ‘रे’ रह गया।

इस तरह पाठ ‘सह के रे बोला’ है, भाव, ‘के’ और ‘रे’ अलग–अलग हैं। रे–अनादर भाव में बोले वचन हैं। जैसे:‘रे रे दरगह कहै न कोऊ’

अर्थ: कई जीव सि्त्रयाँ (जिन्होंने कसुंभ को हाथ लगाया है) अपने आप में पतलियाँ हैं उन्हें पति के अनादरी वाले वचन ही मिलते हैं।

पतलीआं–नाज़क, अहंकारनें, चतुर बुद्धि, कमजोर आत्मिक जीवन वाली।

मूल:दुधाथणी न आवई फिरि होइ न मेला॥2।

इस तुक को समझने के लिए भी उपरोक्त शबद के पद् 2 और 3 देखें;

(प्र:) किस मिलाप का जिक्र है?

(उ:) हरी से मिलाप का। मनुष्य के जनम के मिलने की ओर इशारा नहीं है। इस तरह ‘फिरि होइ न मेला’ का भाव है (अगर कसुंभे को हाथ लगाया) तो पति–परमात्मा के साथ मेल नहीं होगा।

बाकी रह गई पहली आधी तुक ‘दुधाथणी न आवई’।

(प्र:) स्त्री के थनों में दूध कब आता है?

(उ:) कुदरत के नियम अनुसार जब उसके पति से मिलाप होता है और पुत्र–वती बनती है, जब सोहाग–भाग वाली होती है।

डस सारी तुक का अर्थ इस प्रकार है– अगर कसुंभ को हाथ लगाया तो स्त्री सोहागवती नहीं हो सकेगी, और पति से मिलाप नहीं हो सकेगा।

इस अर्थ की प्रोढ़ता के लिए साहिब श्री गुरू नानक देव जी का निम्नलिखित शबद विशेष ध्यान देने योग्य है;

रागु गउड़ी पूरबी छंत महला १॥ मुंध रैणि दुहेलड़ीआ जीउ नीद न आवै॥ सा धन दुबलीआ जीउ पिर कै हावै॥ धन थीई दुबलि कंत हावै केव नैणी देखऐ॥ सीगार मिठ रस भोग भोजन सभु झूठु कितै न लेखऐ॥ मै मत जोबनि गरबि गाली दुधा थणी न आवऐ॥ नानक साधन मिलै मिलाई बिनु पिर नीद न आवऐ॥१॥ (पन्ना २४२)

इस छंत में केवल जीव–स्त्री और पति–परमात्मा के मिलाप का ही वर्णन है, मानस जनम की ओर कहीं इशारा नहीं है। यह अनुमान लग सकता है कि फरीद जी ने और साहिब गुरू नानक देव जी ने एक ही मुहावरा जीव–स्त्री के सोहाग–वती होने के लिए बरता है। ‘रहाउ’ की तुक को सामने रख के सारे शबद को पढ़ने से यही प्रत्यक्ष दिखता है कि कसुंभ को हाथ लगाने से भयानक निर्णय बताए गए हैं।

पद्अर्थ: बेड़ा = नाम सिमरन रूपी बेड़ा, ‘जप तप’ का बेड़ा। बंधि न सकिओ = (कसुंभ को ही हाथ डाले रखने से जीव) तैयार ना कर सका। बंधन की वेला = (बेड़ा) तैयार करने की उम्र में। भरि = (विकारों से लबालब) भर के। दुहेला = मुश्किल।1।

ढोला = हे मित्र! जलि जासी = (कसुंभ) जल जाएगा, मुरझा जाएगा, कसुंभ का रंग बहुत देर तक रहने वाला नहीं, माया की मौज थोड़े दिन ही रहती है। हथु न लाइ कसुंभड़ै = बुरे कसुंभ को हाथ मत लगा, मन को दगाबाज माया के साथ ना जोड़े रख। रहाउ।

इक = कई (जीव-) सि्त्रयां। आपीनै = अपने आप में। पतली = कमजोर आत्मिक जीवन वाली। रे बोला = निरादरी के वचन। दुधाथणी = वह अवस्था जब स्त्री के थनों से दूध आता है, पति मिलाप। फिरि = कि ये वक्त हाथ से निकल जाने पर।2।

नोट: गुरू नानक साहिब के अपने शबद को छोड़ कर विलायत वाली साखी का आसरा लेते फिरना, फिर उसके भी गलत पाठ का आसरा लेना, समझदारी वाली बात नहीं, शब्द ‘इक’ बहुवचन ही है, पर है यह ‘स्त्रीलिंग’; पुलिंग में आमतौर पर बहुवचन शब्द ‘इक’ से ‘इकि’ होता है। शब्द ‘दुधाथणी’ के दो हिस्से ‘दुधा’ और ‘थणी’ कर देने भी गलत हैं। ये शब्द एक ही और ‘समासी’ शब्द है। सारे गुरू ग्रंथ साहिब में सिर्फ दो बार आया है, दूसरी बार गुरू नानक साहिब ने प्रयोग किया है।

सहु = पति प्रभू। अलाऐसी = बुलाएगा। हंसु = जीवात्मा। डुंमणा = (डुं+मणा) दोचिता (हो के)। अहि तनु = ये शरीर। थीसी = हो जाएगा।3।

अर्थ: हे सज्जन! दगाबाज माया के साथ ही अपने मन को ना जोड़े रख, ये माया चार दिन की खेल है।1।

(जिस मनुष्य ने माया से ही मन लगाए रखा) वह (बेड़ा) तैयार करने की उम्र में नाम-रूप बेड़ा तैयार ना कर सका, और, जब सरोवर (लबालब) भर के (बाहर) उछलने लग पड़ता है तब इसमें तैरना मुश्किल हो जाता है (भाव, जब मनुष्य विकारों की अति कर देता है तो इनके चस्के में से निकलना दुश्वार हो जाता है)।1।

जो जीव-सि्त्रयाँ (माया से मोह डालने के कारण) अपने आप में कमजोर आत्मिक जीवन वाली हो जाती हैं, उनको (प्रभू-) पति के दर से निरादरी के बोल नसीब होते हैं; उनपे पति के मिलाप की अवस्था नहीं आती और मानस जन्म का समय हाथ से छूट जाने पर (जब नाम-सिमरन का बेड़ा तैयार हो सकता था) प्रभू से मेल नहीं हो सकता।2।

फरीद कहता है– हे सहेलियो! जब पति-प्रभू का बुलावा (इस जगत में से चलने के लिए) आएगा, तो (माया में ही ग्रसी रहने वाली जीव-स्त्री का) आत्मा-हंस दुबिधा में (दुचिती में यहाँ से) जाएगा (भाव, माया से विछुड़ने का चिक्त नहीं करेगा)।3।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh