श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ३ ॥ गुरमुखि प्रीति जिस नो आपे लाए ॥ तितु घरि बिलावलु गुर सबदि सुहाए ॥ मंगलु नारी गावहि आए ॥ मिलि प्रीतम सदा सुखु पाए ॥१॥ हउ तिन बलिहारै जिन्ह हरि मंनि वसाए ॥ हरि जन कउ मिलिआ सुखु पाईऐ हरि गुण गावै सहजि सुभाए ॥१॥ रहाउ ॥ सदा रंगि राते तेरै चाए ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आए ॥ आपे सोभा सद ही पाए ॥ गुरमुखि मेलै मेलि मिलाए ॥२॥ गुरमुखि राते सबदि रंगाए ॥ निज घरि वासा हरि गुण गाए ॥ रंगि चलूलै हरि रसि भाए ॥ इहु रंगु कदे न उतरै साचि समाए ॥३॥ अंतरि सबदु मिटिआ अगिआनु अंधेरा ॥ सतिगुर गिआनु मिलिआ प्रीतमु मेरा ॥ जो सचि राते तिन बहुड़ि न फेरा ॥ नानक नामु द्रिड़ाए पूरा गुरु मेरा ॥४॥५॥ {पन्ना 798}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के द्वारा, गुरू की शरण पड़ के। जिस नो = जिस को, जिस मनुष्य के हृदय में ('जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है)। आपे = (प्रभू) आप ही। तितु = (शब्द 'तिसु' से अधिकरण कारक) उस में। घरि = घर में। तितु घरि = उस हृदय घर में (तिसु घरि = उसके घर में)। बिलावलु = खुशी, आनंद। सबदि = शबद से। सुहाऐ = (वह मनुष्य) सुंदर बन जाता है। नारी गावहि = नारियाँ गाती हैं, इन्द्रियां गाती हैं। मंगलु = (प्रभू की) सिफत सालाह के गीत। आइ = आ के, मिल के। मिलि = मिल के।1।

हउ = मैं। बलिहारै = कुर्बान। मंनि = मन में। वसाऐ = बसाया है। मिलिआ = मिलने से। कउ = को। पाईअै = प्राप्त करते हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = प्रेम में।1। रहाउ।

रंगि = रंग में, प्रेम में। तेरै चाऐ = तेरे चाव में। मनि = मन में। आऐ = आ के। आपे = (प्रभू) खुद ही। सद = सदा। मेलि = मेल में, अपने चरणों में।2।

रंगाऐ = रंग चढ़ाता है। निज घरि = अपने (हृदय-) घर में। गाऐ = गा के। चलूलै रंगि = गाढ़े रंग में। भाऐ = भाए, प्रेम में। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। समाऐ = लीन हो के।3।

अंतरि = अंदर। अगिआनु = (जीवन राह की ओर से) बेसमझी। सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में। बहुड़ि = दोबारा, फिर। द्रिढ़ाए = पक्का कर देता है।4।

अर्थ: (हे भाई!) मैं उन मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ जिन्होंने परमात्मा को अपने मन में बसाया है। (हे भाई!) परमात्मा के (ऐसे) सेवकों की संगति करने से आत्मिक आनंद मिलता है। (जो मनुष्य हरी के जनों को मिलता है, वह भी) आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिक के परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाने लग जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) गुरू के द्वारा जिस मनुष्य के हृदय में प्रभू अपना प्यार पैदा करता है, उस हृदय-घर में (सदा) खिड़ाव (बना रहता) है, गुरू की बरकति से उस मनुष्य का जीवन सुंदर बन जाता है। उसकी सारी ज्ञानेन्द्रियां मिल के प्रभू की सिफत-सालाह के गीत गाते रहते हैं। प्रभू-प्रीतम को मिल के मनुष्य सदा आत्मिक आनंद भोगता है।1।

(हे प्रभू! जो मनुष्य तेरी सिफत-सालाह करते हैं, वह) सदा तेरे प्रेम में तेरे नाम-रंग में रंगे रहते हैं। (हे भाई!) प्रभू स्वयं उनके मन में आ बसता है। प्रभू खुद ही उनको सदा के लिए वडिआई बख्शता है, गुरू की शरण डाल के उनको अपने साथ मिला लेता है अपने चरणों में जोड़ लेता है।2।

हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर (जो मनुष्य गुरू के) शबद में रंगे जाते हैं, (प्रभू उनको अपने नाम का) रंग चढ़ाता है, प्रभू के गुण गा-गा के उनका अपने हृदय-घर में ठिकाना बना रहता है (वे कभी भटकते नहीं) प्रभू के नाम-रस में, प्रेम में (टिके रहने के कारण) वे गाढ़े रंग में रंगे रहते हैं। सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहने के कारण उनका ये नाम-रंग कभी नहीं उतरता।3।

हे भाई! जिनके हृदय में गुरू का शबद बसता है उनके अंदर से अज्ञान-अंधकार दूर हो जाता है, जिन्हें गुरू का बख्शा हुआ ज्ञान प्राप्त हो जाता है उनको प्यारा प्रभू मिल जाता है। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू (के प्रेम) में मस्त रहते हैं, उनको जनम-मरण का चक्कर नहीं पड़ता। (पर) हे नानक! पूरा गुरू ही (मनुष्य के अंदर) नाम जपने का स्वभाव पक्का कर सकता है।4।5।

बिलावलु महला ३ ॥ पूरे गुर ते वडिआई पाई ॥ अचिंत नामु वसिआ मनि आई ॥ हउमै माइआ सबदि जलाई ॥ दरि साचै गुर ते सोभा पाई ॥१॥ जगदीस सेवउ मै अवरु न काजा ॥ अनदिनु अनदु होवै मनि मेरै गुरमुखि मागउ तेरा नामु निवाजा ॥१॥ रहाउ ॥ मन की परतीति मन ते पाई ॥ पूरे गुर ते सबदि बुझाई ॥ जीवण मरणु को समसरि वेखै ॥ बहुड़ि न मरै ना जमु पेखै ॥२॥ घर ही महि सभि कोट निधान ॥ सतिगुरि दिखाए गइआ अभिमानु ॥ सद ही लागा सहजि धिआन ॥ अनदिनु गावै एको नाम ॥३॥ इसु जुग महि वडिआई पाई ॥ पूरे गुर ते नामु धिआई ॥ जह देखा तह रहिआ समाई ॥ सदा सुखदाता कीमति नही पाई ॥४॥ पूरै भागि गुरु पूरा पाइआ ॥ अंतरि नामु निधानु दिखाइआ ॥ गुर का सबदु अति मीठा लाइआ ॥ नानक त्रिसन बुझी मनि तनि सुखु पाइआ ॥५॥६॥४॥६॥१०॥ {पन्ना 798}

पद्अर्थ: ते = से। वडिआई = गौरवता, इज्जत। अचिंत नामु = चिंता से बचाने वाला हरि नाम। मनि = मन में। सबदि = शबद ने। दरि = दर पर।1।

जगदीस = (जगत+ईश) हे जगत के मालिक! सेवउ = मैं सेवा करता रहूँ। मै = मुझे। अवरु = और। अनदिनु = हर रोज। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। मागउ = माँगू। निवाजा = बख्शिश करने वाला।1। रहाउ।

परतीति = श्रद्धा, निश्चय। मन ते = मन से, अंदर से ही। ते = से। सबदि = शबद के द्वारा। बुझाई = समझ। जीवण मरणु = जनम से मरन तक, सारी उम्र। को = जो कोई मनुष्य। समसरि = बराबर, एक समान। बहुड़ि = दोबारा। पेखै = देखता।2।

घर = हृदय घर। महि = में। सभि कोट = सारे किले (कोटि = करोड़। कोटु = किला। कोट = किले)। निधान = खजाने। सतिगुरि = गुरू ने। अभिमानु = अहंकार। सद = सदा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। ऐको नाम = एक नाम ही।3।

जुग महि = जगत में। देखा = देखूँ, मैं देखता हूँ।4।

भागि = किस्मत से। अंतरि = (हृदय के) अंदर। निधानु = खजाना। मनि = मन में। तनि = शरीर में।5।

अर्थ: हे जगत के मालिक प्रभू! (मेहर कर) मैं (तेरा नाम) सिमरता रहूँ, (इससे बेहतर) मुझे और कोई काम ना लगे। (हे प्रभू!) गुरू की शरण पड़ कर (आत्मिक आनंद की) बख्शिश करने वाला तेरा नाम मांगता हूँ (ताकि) मेरे मन में (उस नाम की बरकति से) हर वक्त आनंद बना रहे।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य ने पूरे गुरू से वडिआई-इज्जत पा ली, उसके मन में वह हरी-नाम आ बसता है जो हरेक किस्म की फिक्र-चिंता दूर कर देता है। जिस मनुष्य ने गुरू के शबद के द्वारा (अपने अंदर से) माया के कारण पैदा हुआ अहंकार जला लिया, उसने गुरू की कृपा से सदा कायम रहने वाले परमात्मा के दर पर शोभा पा ली।1।

हे भाई! जिस मनुष्य ने पूरे गुरू से (उसके) शबद से (आत्मिक जीवन की) सूझ प्राप्त कर ली, उसने अपने अंदर से ही अपने मन के वास्ते श्रद्धा-विश्वास की दाति पा ली (ये श्रद्धा कि परमात्मा सारे जगत में एक समान व्यापक है)। हे भाई! जो भी मनुष्य सारी उम्र प्रभू को (सृष्टि में) एक-समान (बसता) देखता है, उसको कभी आत्मिक मौत नहीं व्यापती, उसकी ओर यमराज कभी नहीं देखता।2।

हे भाई! (हरेक मनुष्य के) हृदय-घर में सारे (सुखों के) खजानों के (कोटों के) कोट मौजूद हैं। जिस मनुष्य को गुरू ने (ये कोट) दिखा दिए, उसके अंदर से अहंकार दूर हो गया। वह मनुष्य सदा ही आत्मिक अडोलता में सुरति जोड़े रखता है। वह मनुष्य हर वक्त एक ही परमात्मा का नाम सिमरता रहता है।3।

हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरू से (शिक्षा ले के) प्रभू का नाम सिमरता है, वह इस जगत में सम्मान प्राप्त करता है। हे भाई! मैं तो जिधर देखता हूँ, उधर ही परमात्मा मौजूद दिखता है। वह सदा ही (सबको) सुख देने वाला है। पर वह किसी मूल्य से नहीं मिल सकता।4।

हे भाई! जिस मनुष्य ने पूरी किस्मत से पूरा गुरू पा लिया, गुरू ने उसको उसके हृदय में ही परमात्मा का नाम-खजाना दिखा दिया। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरू का शबद बहुत प्यारा लगने लग पड़ा, उसके अंदर से माया की प्यास बुझ गई। उसको अपने मन में अपने हृदय में आनंद ही आनंद हासिल हो गया।5।6।10।

महला १ ---------------4 शबद
महला ३ ---------------6 शबद
.....जोड़ ---------------10शबद

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh