श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 799 रागु बिलावलु महला ४ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ उदम मति प्रभ अंतरजामी जिउ प्रेरे तिउ करना ॥ जिउ नटूआ तंतु वजाए तंती तिउ वाजहि जंत जना ॥१॥ जपि मन राम नामु रसना ॥ मसतकि लिखत लिखे गुरु पाइआ हरि हिरदै हरि बसना ॥१॥ रहाउ ॥ माइआ गिरसति भ्रमतु है प्रानी रखि लेवहु जनु अपना ॥ जिउ प्रहिलादु हरणाखसि ग्रसिओ हरि राखिओ हरि सरना ॥२॥ कवन कवन की गति मिति कहीऐ हरि कीए पतित पवंना ॥ ओहु ढोवै ढोर हाथि चमु चमरे हरि उधरिओ परिओ सरना ॥३॥ प्रभ दीन दइआल भगत भव तारन हम पापी राखु पपना ॥ हरि दासन दास दास हम करीअहु जन नानक दास दासंना ॥४॥१॥ {पन्ना 798-799} पद्अर्थ: अंतरजामी = सबके दिलों की जानने वाला। प्रेरे = प्रेरणा करता है। नटूआ = नाटक करने वाला। तंती = तार। तंती तंतु = वीणा की तार। जंत = यन्त्र, बाजे। वाजहि = बजते हैं। जना = जीव।1। मन = हे मन! रसना = जीभ से। मसतकि = माथे पर। हिरदै = हृदय में।1। रहाउ। गिरसति = ग्रसा हुआ, जकड़ा हुआ। प्रानी = जीव। जनु = दास। हरणाखसि = हर्णाकश्यप ने। ग्रसिओ = ग्रसित, अपने काबू में किया।2। गति मिति = हालत। पतित = विकारी, विकारों में गिरे हुए (पत् = to fall)। पवंना = पवित्र। ढोर = मरे हुए पशू। हाथि = हाथ में। चमरे हाथि = चमार के हाथ में। उधरिओ = पार लंघा दिया।3। दीन = गरीब, कंगाल। दइआल = दया का घर। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! पपना = पापों से। दास दासंना = दासों का दास।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! जीभ से परमात्मा का नाम जपा कर। जिस मनुष्य के माथे पर लिखे हुए अच्छे भाग्य जाग जाएं, उसे गुरू मिल जाता है, (गुरू की सहायता से उसके) हृदय में प्रभू आ बसता है।1। रहाउ। सबके दिल की जानने वाला परमात्मा उद्यम करने की अक्ल (जीवों को स्वयं देता है)। जैसे वह हमें प्रेरित करता है वैसे ही हम करते हैं। जैसे कोई नाटक करने वाला मनुष्य वीणा (आदि साज) की तार बजाता है (वैसे ही वह साज बजाता है); वैसे ही सारे जीव (जो, मानो) बाजे (हैं, प्रभू के बजाने से) बजते हैं।1। हे प्रभू! माया के मोह में फसा हुआ जीव भटकता फिरता है, (मुझे) अपने दास को (इस माया के मोह से) बचा ले (उस तरह बचा ले) जैसे, हे हरी! तूने शरण पड़े प्रहलाद की रक्षा की, जब उसे हणाकश्यप ने दुख दिया।2। हे भाई! किस किस की हालत बताई जाए? वह परमात्मा तो बड़े-बड़े विकारियों को पवित्र कर देता है। (देखो,) वह (रविदास, जो) मरे हुए पशू ढोता था, (उस) चमार के हाथ में (नित्य) चमड़ी (पकड़ी होती) थी, पर जब वह प्रभू की शरण पड़ा, प्रभू ने उसको (संसार-समुंद्र से) पार लंघा दिया।3। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! हे भक्तों को संसार-समुंद्र से पार लंघाने वाले प्रभू! हम पापी जीवों को पापों से बचा ले। हे दास नानक! (कह- हे प्रभू!) हमें अपने दासों के दासों का दास बना ले।4।1। बिलावलु महला ४ ॥ हम मूरख मुगध अगिआन मती सरणागति पुरख अजनमा ॥ करि किरपा रखि लेवहु मेरे ठाकुर हम पाथर हीन अकरमा ॥१॥ मेरे मन भजु राम नामै रामा ॥ गुरमति हरि रसु पाईऐ होरि तिआगहु निहफल कामा ॥१॥ रहाउ ॥ हरि जन सेवक से हरि तारे हम निरगुन राखु उपमा ॥ तुझ बिनु अवरु न कोई मेरे ठाकुर हरि जपीऐ वडे करमा ॥२॥ नामहीन ध्रिगु जीवते तिन वड दूख सहमा ॥ ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि मंदभागी मूड़ अकरमा ॥३॥ हरि जन नामु अधारु है धुरि पूरबि लिखे वड करमा ॥ गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ जन नानक सफलु जनमा ॥४॥२॥ {पन्ना 799} पद्अर्थ: मुगध = मूर्ख। गिआन = ज्ञान, सही जीवन की सूझ। अगिआन मती = (सही जीवन की ओर से) बेसमझी। सरणागति = शरण+आगति, शरण पड़े। पुरख = हे सर्व व्यापक! अजनमा = हे जन्म से रहित! हीन = निमाणे। अकरमा = अ+करम, कर्म हीन, भाग्यहीन।1। भजु = सिमर। नामै = नाम को। रसु = आनंद। होरि = (शब्द 'होर' का बहुवचन) और। कामा = काम।1। रहाउ। से = (बहुवचन) वह लोग। निरगुन = गुण हीन। उपमा = वडिआई, शोभा। अवरु = और। ठाकुर = हे ठाकुर! वड करमा = बड़े भाग्यों से।2। हीन = खाली, हीन, बगै़र। ध्रिगु = धिक्कार योग्य। सहंमा = सहम, फिक्र। ओइ = (शब्द 'ओह' का बहुवचन) वे। फिरि फिरि = फिर फिर, बार बार। भवाईअहि = चक्कर में घुमाए जाते हैं। अकरम = भाग्यहीन।3। अधारु = आसरा। धुरि = धुर दरगाह से। पूरबि = पूर्बले जन्म में। करम = भाग्य। गुरि = गुरू ने। सतिगुरि = सतिगुरू ने। द्रिढ़ाइआ = (हृदय में) दृढ़ करा दिया। सफलु = कामयाब।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा परमात्मा का नाम सिमरता रह। (हे भाई!) गुरू की मति पर चलने से ही परमात्मा के नाम का आनंद मिलता है। छोड़ें और कर्मों का मोह, (जिंद को उनसे) कोई लाभ नहीं मिलेगा।1। रहाउ। हे सर्व व्यापक प्रभू! हे जूनियों से रहित प्रभू! हम जीव मूर्ख हैं, बड़े मूर्ख हैं, बेसमझ हैं (पर) तेरी शरण में पड़े हैं। हे मेरे ठाकुर! मेहर कर, हमारी रक्षा कर, हम पत्थर (दिल) हैं, हम निमाणे हैं और दुर्भाग्य वाले हैं।1। हे हरी! जो मनुष्य तेरे (दर के) सेवक बनते हैं तू उनको पार लंघा लेता है। (पर) हम गुणहीन हैं, (गुणहीनों की भी) रक्षा कर (इसमें भी तेरी ही) शोभा होगी। हे मेरे ठाकुर! तेरे बिना मेरा कोई (मददगार) नहीं। (हे भाई!) बड़े भाग्यों से ही प्रभू का नाम जपा जा सकता है।2। (हे भाई!) जो मनुष्य प्रभू के नाम से वंचित रहते हैं, उनका जीना धिक्कारयोग्य होता है। उनको बड़े दुख सहम (चिपके रहते हैं)। वे मनुष्य बार-बार जूनियों में डाले जाते हैं। वे मूर्ख लोग कर्म-हीन ही रहते हैं, भाग्यहीन ही रहते हैं।3। हे भाई! परमात्मा के भक्तों के लिए परमात्मा का नाम (ही जीवन का) आसरा है। धुर दरगाह से पूर्बले जन्म में (उनके माथे पर) अहो-भाग्य लिखे समझो। हे दास नानक! गुरू ने सतिगुरू ने जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम-सिमरन पक्का कर दिया, उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है।4।2। बिलावलु महला ४ ॥ हमरा चितु लुभत मोहि बिखिआ बहु दुरमति मैलु भरा ॥ तुम्हरी सेवा करि न सकह प्रभ हम किउ करि मुगध तरा ॥१॥ मेरे मन जपि नरहर नामु नरहरा ॥ जन ऊपरि किरपा प्रभि धारी मिलि सतिगुर पारि परा ॥१॥ रहाउ ॥ हमरे पिता ठाकुर प्रभ सुआमी हरि देहु मती जसु करा ॥ तुम्हरै संगि लगे से उधरे जिउ संगि कासट लोह तरा ॥२॥ साकत नर होछी मति मधिम जिन्ह हरि हरि सेव न करा ॥ ते नर भागहीन दुहचारी ओइ जनमि मुए फिरि मरा ॥३॥ जिन कउ तुम्ह हरि मेलहु सुआमी ते न्हाए संतोख गुर सरा ॥ दुरमति मैलु गई हरि भजिआ जन नानक पारि परा ॥४॥३॥ {पन्ना 799} पद्अर्थ: लुभत = लोभ में फसा हुआ, ग्रसा हुआ। मोहि = मोह में। बिखिआ = माया। दुरमति = खोटी मति। भरा = भरा हुआ। करि न सकह = हम कर नहीं सकते (सकह = वर्तमानकाल, उक्तमपुरख, बहुवचन)। किउ करि = कैसे? मुगध = मूर्ख।1। मन = हे मन! नरहर = (नरहर नरसिंह) परमात्मा। प्रभि = प्रभू ने। मिलि = मिल के। मिलि सतिगुर = गुरू को मिल के। पारि परा = पार लांघ गया।1। रहाउ। ठाकुर = हे ठाकुर! मती = मति, बुद्धि। जसु = यश, सिफत सालाह। संगि = साथ, संगति में। से = वह लोग (बहुवचन)। कासट = काठ, लकड़ी। लोह = लोहा।2। साकत नर = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। होछी = हल्की। मधिम = (मध्यम) कमजोर। ते नर = वह लोग (ते = बहुवचन)। दुहचारी = दुराचारी, कुकर्मी। ओइ = (शब्द 'ओह' का बहुवचन) वे।3। कउ = को। सुआमी = स्वामी! नाऐ = स्नान करते हैं। संतोख गुर सरा = गुर संतोखसरा, संतोख के सरोवर गुरू में, उस गुरू में जो संतोख का सर है ।4। (नोट: अमृतसर वाले संतोखसर का वर्णन यहाँ नहीं हैं अभी ये बना भी नहीं था)। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा जपा कर। जिस मनुष्य पर प्रभू ने कृपा की, वह गुरू को मिल के संसार-समुंद्र से पार लांघ गया।1। रहाउ। हे प्रभू! हम जीवों का मन माया के मोह में फसा रहता है, खोटी मति की बहुत सारी मैल से भरा रहता है; इस वास्ते हम तेरी सेवा-भक्ति नहीं कर सकते। हे प्रभू! हम मूर्ख कैसे संसार-समुंद्र से पार लांघे?।1। हे प्रभू! हे ठाकुर! हे हमारे पिता! हे हमारे मालिक! हे हरी! हमें (ऐसी) समझ बख्श कि हम तेरी सिफत सालाह करते रहें। हे प्रभू! जैसे काठ से लग के लोहा (नदी से) पार लांघ जाता है, वैसे ही जो लोग तेरे चरणों में जुड़ते हैं वे विकारों से बच जाते हैं।2। हे भाई! जिन लोगों ने कभी परमात्मा की सेवा-भक्ति नहीं की, परमात्मा से टूटे हुए उन लोगों की मति होछी और मलीन होती है। वह मनुष्य बद्-किस्मत रह जाते हैं क्योंकि वह (पवित्रता के श्रोत प्रभू से विछुड़ के) बुरे-कर्मों वाले हो जाते हैं। फिर वे सदा जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।3। हे मालिक प्रभू! जिन मनुष्यों को तू अपने चरणों में जोड़ना चाहता है, वे संतोख के सरोवर गुरू में स्नान करते रहते हैं (वे गुरू में लीन हो के अपना जीवन पवित्र बना लेते हैं)। हे दास नानक! जो मनुष्य परमात्मा का भजन करते हैं, (उनके अंदर से) खोटी मति की मैल दूर हो जाती है, वह (वे विकारों की लहरों में से बच के) पार लांघ जाते हैं।4।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |