श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 800 बिलावलु महला ४ ॥ आवहु संत मिलहु मेरे भाई मिलि हरि हरि कथा करहु ॥ हरि हरि नामु बोहिथु है कलजुगि खेवटु गुर सबदि तरहु ॥१॥ मेरे मन हरि गुण हरि उचरहु ॥ मसतकि लिखत लिखे गुन गाए मिलि संगति पारि परहु ॥१॥ रहाउ ॥ काइआ नगर महि राम रसु ऊतमु किउ पाईऐ उपदेसु जन करहु ॥ सतिगुरु सेवि सफल हरि दरसनु मिलि अम्रितु हरि रसु पीअहु ॥२॥ हरि हरि नामु अम्रितु हरि मीठा हरि संतहु चाखि दिखहु ॥ गुरमति हरि रसु मीठा लागा तिन बिसरे सभि बिख रसहु ॥३॥ राम नामु रसु राम रसाइणु हरि सेवहु संत जनहु ॥ चारि पदारथ चारे पाए गुरमति नानक हरि भजहु ॥४॥४॥ {पन्ना 799-800} पद्अर्थ: संत = हे संत जनो! भाई = हे भाईयो! मिलि = मिल के। कथा = सिफत सालाह की बातें। बोहिथु = जहाज़। कलजुगि = कलियुग में, कलह भरे संसार में। (नोट: यहाँ युगों के विभाजन का वर्णन नहीं। कलयुग के जमाने में आ के साधारण तौर पर अपने समय का वर्णन कर रहे हैं। गुरू आशय के मुताबिक, एक युग किसी दूसरे युग से बढ़िया अथवा घटिया नहीं है)। खेवटु = मल्लाह। सबदि = शबद के द्वारा।1। उचरहु = उच्चारण करो। मसतकि = माथे पर। पारि परहु = पार लांघो।1। रहाउ। काइआ = काया, शरीर। ऊतमु = श्रेष्ठ, सब से बढ़िया। जन = हे संत जनो! सेवि = सेवा कर के, शरण पड़ के। सफल = फल देने वाला, आत्मिक जीवन-रूप् फल देने वाला। मिलि = (गुरू को) मिल के। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। चाखि = चख के। दिखहु = देख लो। तिन् = उनको। सभि बिख रसहु = सारे जहर रस, सारे वह रस जो आत्मिक जीवन के लिए जहर हैं।3। रसाइणु = (रस+अयन) रसों का घर, श्रेष्ठ रस। चारे = चार ही। चारि पदारथ = (धर्म अर्थ काम मोक्ष)। अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा के गुण याद करता रह। जिस मनुष्य के माथे पर लिखे अच्छे भाग्य जागते हैं वह प्रभू के गुण गाता है। (हे मन! तू भी) साध-संगति में मिल के (गुण गा और संसार-समुंद्र से) पार लांघ।1। रहाउ। हे संतजनो! हे भाईयो! (साध-संगित में) एक साथ मिल के बैठो, और मिल के सदा प्रभू की सिफत सालाह की बातें करो। इस कलह भरे संसार में परमात्मा का नाम (जैसे) जहाज है, (गुरू इस जहाज का) मल्लाह (है, तुम) गुरू के शबद में जुड़ के (संसार-समुंद्र से) पार लांघो।1। (शहरों में खाने-पीने के लिए कई किस्मों के स्वादिष्ट पदार्थ मिलते हैं। मनुष्य का) शरीर (भी, जैसे, एक शहर है, इस) शहर में परमात्मा का नाम (सब पदार्थों से) उक्तम स्वादिष्ट पदार्थ है। (पर) हे संतजनो! (मुझे) समझाओ कि ये कैसे हासिल हो। (संत जन यही बताते हैं कि गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा का (आत्मिक जीवन-) फल देने वाले दर्शन करो, गुरू को मिल के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते रहो।2। हे संतजनो! बेशक चख के देख लो, परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला मीठा जल है। गुरू की शिक्षा पर चल के जिन मनुष्यों को यह नाम-रस स्वादिष्ट लगता है, आत्मिक जीवन को खत्म कर देने वाले और सारे रस उनको भूल जाते हैं।3। हे संत जनो! परमात्मा का नाम स्वादिष्ट पदार्थ है, रसायन है, सदा इसका सेवन करते रहो (इसका प्रयोग हमेशा करते रहो)। हे नानक! (जगत में कुल) चार पदार्थ (गिने गए हैं, नाम-रसायन की बरकति से यह) चारों ही मिल जाते हैं। (इस वास्ते) गुरू की मति ले के हमेशा हरी-नाम का भजन करते रहो।4।4। बिलावलु महला ४ ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु को जापै हरि मंत्रु जपैनी ॥ गुरु सतिगुरु पारब्रहमु करि पूजहु नित सेवहु दिनसु सभ रैनी ॥१॥ हरि जन देखहु सतिगुरु नैनी ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु हरि बोलहु गुरमति बैनी ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक उपाव चितवीअहि बहुतेरे सा होवै जि बात होवैनी ॥ अपना भला सभु कोई बाछै सो करे जि मेरै चिति न चितैनी ॥२॥ मन की मति तिआगहु हरि जन एहा बात कठैनी ॥ अनदिनु हरि हरि नामु धिआवहु गुर सतिगुर की मति लैनी ॥३॥ मति सुमति तेरै वसि सुआमी हम जंत तू पुरखु जंतैनी ॥ जन नानक के प्रभ करते सुआमी जिउ भावै तिवै बुलैनी ॥४॥५॥ {पन्ना 800} पद्अर्थ: सूदु = शूद्र। वैस = वैश। को = हर कोई। जापै = जप सकता है। जपैनी = जपने योग्य। करि = कर के, (का रूप) जान के। पूजहु = सेवा करो, शरण पड़ो। रैनी = रात।1। हरि जन = हे हरी के सेवको! नैनी = आँखों से, आँखें खोल के। बैनी = वचन, बोल। हरि बैनी = हरी की सिफत सालाह के बोल।1। रहाउ। उपाव = (शब्द 'उपाउ' का बहुवचन) ढंग, तदबीर। चितविअहि = (करमवाच, वर्तमान काल, अॅन पुरख, बहुवचन) चितवे जाते हैं। सा = वही। जि = जो। होवैनी = (प्रभू के हुकम में) होनी है। सभु कोई = हरेक जीव। बाछै = चाहता है। सो = वह (काम)। जि = जो। मेरै चिति = मेरे चिक्त में। मेरै चिति न चितैनी = ना मेरे चिक्त में, मेरे चिक्त ना चेते।2। तिआगहु = छोड़ो। हरि जन = हे हरी के जनो! कठैनी = कठिन, मुश्किल। अनुदिनु = हर रोज। लैनी = ले के।3। सुमति = अच्छी अक्ल। वसि = वश में। सुआमी = हे स्वामी! हे मालिक! जंत = बाजे। पुरखु = सवै व्यापक मालिक। जंतैनी = बाजे बजाने वाला। करते = हे करतार! जिउ भावै = जैसे तुझे अच्छा लगे। बुलैनी = (तू) बुलाता है।4। अर्थ: हे प्रभू के सेवक जनो! गुरू को आँखें खोल के देखो (गुरू पारब्रहम का रूप है)। गुरू की दी हुई मति पर चल कर परमात्मा के सिफत सालाह के वचन बोलो, जो इच्छा करोगे वही फॅल प्राप्त कर लोगे।1। रहाउ। कोई खत्री हो, चाहे ब्राहमण हो, कोई शूद्र हो चाहे वैश हो, हरेक (श्रेणी का) मनुष्य प्रभू का नाम-मंत्र जप सकता है (ये सबके लिए) जपने-योग्य है। हे हरी जनो! गुरू को परमात्मा का रूप जान के गुरू की शरण पड़ो। दिन-रात हर वक्त गुरू की शरण पड़े रहो।1। (गुरू परमेश्वर का आसरा-सहारा भुला के अपनी भलाई के) अनेकों और बहुत सारे ढंग सोचे जाते हैं, पर बात वही होती है जो (रजा के अनुसार) जरूर होनी होती है। हरेक जीव अपना भला चाहता है, पर प्रभू वह काम कर देता है जो मेरे आपके चिक्त में भी नहीं होता।2। हे संतजनो! अपने मन की मर्जी (पर चलना) छोड़ दो (गुरू के हुकम में चलो), पर ये बात है बहुत मुश्किल। (फिर भी) गुरू पातशाह की मति ले के हर वक्त परमात्मा का नाम जपा करो।3। हे मालिक प्रभू! अच्छी-बुरी मति तेरे अपने वश में है (तेरी प्रेरणा के अनुसार ही कोई जीव भले राह पर चलता है और कोई बुरे राह पर), हम तो तेरे बाजे (साज) हैं, तू हमें बजाने वाला सबमें बसने वाला प्रभू है। हे दास नानक के मालिक प्रभू करतार! जैसे तुझे अच्छा लगता है वैसे ही तू हमें बुलाता है (हमारे मुँह से बोल निकलवाता है)।4।5। बिलावलु महला ४ ॥ अनद मूलु धिआइओ पुरखोतमु अनदिनु अनद अनंदे ॥ धरम राइ की काणि चुकाई सभि चूके जम के छंदे ॥१॥ जपि मन हरि हरि नामु गुोबिंदे ॥ वडभागी गुरु सतिगुरु पाइआ गुण गाए परमानंदे ॥१॥ रहाउ ॥ साकत मूड़ माइआ के बधिक विचि माइआ फिरहि फिरंदे ॥ त्रिसना जलत किरत के बाधे जिउ तेली बलद भवंदे ॥२॥ गुरमुखि सेव लगे से उधरे वडभागी सेव करंदे ॥ जिन हरि जपिआ तिन फलु पाइआ सभि तूटे माइआ फंदे ॥३॥ आपे ठाकुरु आपे सेवकु सभु आपे आपि गोविंदे ॥ जन नानक आपे आपि सभु वरतै जिउ राखै तिवै रहंदे ॥४॥६॥ {पन्ना 800} पद्अर्थ: अनद मूल = आनंद का श्रोत। पुरखोतमु = उक्तम पुरख। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। अनंदे = आनंद में ही। काणि = मुथाजी, धौंस, डर। सभि = सारे। चूके = समाप्त हो गए। छंदे = खुशामदें, मुलाहज़े।1। मन = हे मन! परमानंदे = सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभू के।1। रहाउ। गुोबिंदे: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं हैं- 'ो' और 'ु'। असल शब्द है 'गोबिंदे', यहाँ 'गुबिंदे' पढ़ना है। साकत = परमात्मा से टूटे हुए। मूढ़ = मूर्ख। बधिक = बँधे हुए। फिरहि = फिरते हैं। त्रिसना = लालच (की आग)। किरत = पिछले किए कर्म। के = के।2। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। से = वह लोग (बहुवचन)। उधरे = (तृष्णा की आग में जलने से) बच जाते हैं। सेव = सेवा भक्ति। सभि फंदे = सारी फाहियाँ।3। आपे = आप ही। सभु = हर जगह। वरतै = मौजूद है।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! हरी गोबिंद का नाम सदा जपा कर। जिस अति भाग्यशाली मनुष्य को गुरू मिल गया, वह सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभू के गुण गाता है (सो, हे मन! गुरू की शरण पड़)।1। रहाउ। हे मन! जिस मनुष्य ने आनंद के श्रोत उक्तम पुरख प्रभू का नाम सिमरा, वह हर वक्त आनंद ही आनंद में लीन रहता है, उसको धर्मराज की मुहताजी नहीं रहती, वह मनुष्य यमराज के भी सारे डर खत्म कर देता है।1। हे मन! परमात्मा से टूटे हुए मूर्ख मनुष्य माया (के मोह) में बँधे रहते हैं, और माया की खातिर ही सदा भटकते रहते हैं। अपने किए कर्मों के संस्कारों में बँधे हुए वह मनुष्य तृष्णा (की आग) में जलते रहते हैं और (जनम-मरण के चक्कर में) भटकते रहते हैं जैसे तेलियों के बैल कोहलू के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं।2। हे मन! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर प्रभू की सेवा-भक्ति में लग गए, वे (तृष्णा की आग में जलने से) बच गए। (पर, हे मन!) बहुत भाग्यशाली मनुष्य ही सेवा-भक्ति करते हैं। जिन मनुष्यों ने परमात्मा का नाम जपा, उन्होंने (तृष्णा अग्नि में जलने से बचने का) फल प्राप्त कर लिया। उनकी माया की सारी ही बँदिशें टूट जाती हैं।3। (पर हे मन!) प्रभू स्वयं ही (जीवों का) मालिक है (सब में व्यापक हो के) खुद ही (अपनी) सेवा-भक्ति करने वाला है, हर जगह गोबिंद-रूप खुद ही खुद मौजूद है। हे दास नानक! हर जगह प्रभू स्वयं ही स्वयं बस रहा है। जैसे वह (जीवों को) रखता है उसी तरह ही जीव जीवन निर्वाह करते हैं (कोई उसका सिमरन करते हैं, कोई माया में भटकते हैं)।4।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |