श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 804 बिलावलु महला ५ ॥ तनु मनु धनु अरपउ सभु अपना ॥ कवन सु मति जितु हरि हरि जपना ॥१॥ करि आसा आइओ प्रभ मागनि ॥ तुम्ह पेखत सोभा मेरै आगनि ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक जुगति करि बहुतु बीचारउ ॥ साधसंगि इसु मनहि उधारउ ॥२॥ मति बुधि सुरति नाही चतुराई ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाई ॥३॥ नैन संतोखे प्रभ दरसनु पाइआ ॥ कहु नानक सफलु सो आइआ ॥४॥४॥९॥ {पन्ना 804} पद्अर्थ: अरपउ = अर्पित, मैं भेटा करता हूँ, मैं भेटा करने को तैयार हूँ। कवन = कौन सी? सुमति = अच्छी मति। जितु = जिस के द्वारा।1। करि = कर के, धारण करके। प्रभ = हे प्रभू! मागनि = माँगने के लिए। तुम् पेखत = तेरा दर्शन करते हुए (अक्षर 'म्' के साथ आधा 'ह' है)। सोभा = रौनक, उत्साह। मेरै आगनि = मेरे (हृदय-) आँगन में।1। रहाउ। जुगति = डंग। बीचारउ = मैं विचारता हूँ। संगि = संग में। मनहि = मन को! उधारउ = उद्धार सकता हूँ, मैं बचा सकता हूँ।2। ता = तब ही। जा = जब। लऐ मिलाई = मिला लिए।3। नैन = आँखें। संतोखे = तृप्त हो गए। सो = वह मनुष्य।4। अर्थ: हे प्रभू! आशा धारण करके मैं (तेरे दर पर तेरे नाम की दाति) माँगने आया हूँ। तेरा दर्शन करने से मेरे (हृदय-) आँगन में उत्साह पैदा हो जाता है।1। रहाउ। हे भाई! वह कौन सी अच्छी शिक्षा है जिसकी बरकति से परमात्मा का नाम सिमरा जा सकता है? (यदि कोई गुरमुख मुझे वह सुमति दे दे, तो) मैं अपना शरीर अपना मन अपना धन सब कुछ भेटा करने को तैयार हूँ।1। हे भाई! मैं अनेकों ढंग (अपने सामने) रख के बड़ा विचारता हूँ (कि कैसे इसे विकारों से बचाया जाए। अंत में यही समझ आता है कि) गुरमुखों की संगति में (ही) इस मन को (विकारों से) बचा सकता हूँ।2। हे भाई! किसी मति, किसी अक्ल, किसी ध्यान, किसी भी चतुराई से परमात्मा नहीं मिल सकता। जब वह प्रभू खुद ही जीव को मिलाता है तब ही उसे मिला जा सकता है।3। हे नानक! कह- उस मनुष्य का जगत में आना मुबारक है, जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, और (दर्शन की बरकति से) जिसकी आँखें (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो गई हैं।4।4।9। बिलावलु महला ५ ॥ मात पिता सुत साथि न माइआ ॥ साधसंगि सभु दूखु मिटाइआ ॥१॥ रवि रहिआ प्रभु सभ महि आपे ॥ हरि जपु रसना दुखु न विआपे ॥१॥ रहाउ ॥ तिखा भूख बहु तपति विआपिआ ॥ सीतल भए हरि हरि जसु जापिआ ॥२॥ कोटि जतन संतोखु न पाइआ ॥ मनु त्रिपताना हरि गुण गाइआ ॥३॥ देहु भगति प्रभ अंतरजामी ॥ नानक की बेनंती सुआमी ॥४॥५॥१०॥ {पन्ना 804} पद्अर्थ: सुत = पुत्र। साध संगि = गुरमुखों की संगति। सभु = सारा।1। रवि रहिआ = मौजूद है। आपे = खुद ही। रसना = जीभ (से)। न विआपे = जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ। तिखा = माया की प्यास। तपति = तपश, जलन, खिझ। विआपिआ = फसा हुआ।2। कोटि = करोड़ों। त्रिपताना = तृप्त हो जाता है।3। प्रभ = हे प्रभू! सुआमी = हे मालिक!।4। अर्थ: हे भाई! (जो) परमात्मा स्वयं ही सब जीवों में व्यापक है उस (के नाम) का जाप जीभ से करता रह (इस तरह) कोई दुख जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ। हे भाई! माता, पिता, पुत्र, माया- (इनमें से कोई भी जीव का सदा के लिए) साथी नहीं बन सकता, (दुख घटित होने पर भी सहायक नहीं बन सकता)। गुरू की संगति में टिकने से सारा दुख-कलेश दूर किया जा सकता है।1। हे भाई! जगत माया की तृष्णा, माया की भूख और तपश में फँसा हुआ है। जो मनुष्य परमात्मा की सिफत-सालाह करते हैं, (उनके हृदय) शीतलता से भर जाते हैं।2। हे भाई! करोड़ों यत्न करने से भी (माया की तृष्णा) से संतुष्टि नहीं पाई जा सकती। प्रभू की सिफत-सालाह करने से मन तृप्त हो जाता है।3। हे हरेक के दिल की जानने वाले प्रभू! (तेरे दास) नानक की (तेरे दर पे) विनती है कि अपनी भक्ति का दान दे।4।5।10। बिलावलु महला ५ ॥ गुरु पूरा वडभागी पाईऐ ॥ मिलि साधू हरि नामु धिआईऐ ॥१॥ पारब्रहम प्रभ तेरी सरना ॥ किलबिख काटै भजु गुर के चरना ॥१॥ रहाउ ॥ अवरि करम सभि लोकाचार ॥ मिलि साधू संगि होइ उधार ॥२॥ सिम्रिति सासत बेद बीचारे ॥ जपीऐ नामु जितु पारि उतारे ॥३॥ जन नानक कउ प्रभ किरपा करीऐ ॥ साधू धूरि मिलै निसतरीऐ ॥४॥६॥११॥ {पन्ना 804} पद्अर्थ: वडभागी = बड़ी किस्मत से। मिलि = मिल के। साधू = गुरू (को)। प्रभ = हे प्रभू! किलबिख = पाप। भजु = आसरा ले।1। रहाउ। अवरि = (शब्द 'अवर' का बहुवचन) और (सारे)। सभि = सारे। लोकाचार = लोक आचार, जगत का रिवाज पूरा करने वाले। संगि = साथ में, संगत में। उधार = पार उतारा।2। सिंम्रिति = इनकी गिनती 27 के करीब है। वेद आदि के वाक्यों को याद करके हिन्दू-समाज की अगुवाई के लिए लिखे हुए धार्मिक ग्रंथ। सासत = शास्त्र, हिन्दू दर्शन के ग्रंथ: सांख, पतंजलि या योग, न्याय, वैशैषिक, मीसांसा, वेदांत। जितु = जिसके द्वारा।3। प्रभ = हे प्रभू! धूरि = चरण धूड़। निसतरीअै = पार लांघ सकते हैं।4। अर्थ: हे पारब्रहम प्रभू! (मैं) तेरी शरण आया हूँ (मुझे गुरू मिला)। हे भाई! गुरू के चरणों को अपने हृदय में बसा ले, गुरू सारे पाप काट देता है।1। रहाउ। हे भाई! (गुरू की शरण पड़े बिना) और सारे कर्म सिर्फ दिखावा ही हैं। गुरू की संगति में मिल के (ही) संसार-समुंद्र से पार-उतारा होता है।1। हे भाई ! (गुरू की शरण के बिना) और सारे कर्म निरे दिखावा ही हैं। गुरू की सँगति में मिल के (ही) संसार-समुँद्र से पार-उतारा होता है।2। हे भाई! सारे शास्त्र, स्मृतियाँ और वेद विचार करके देख लिए हैं। (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम ही सिमरना चाहिए, इस हरी के नाम द्वारा ही गुरू पार लंघाता है।3। हे प्रभू! अपने दास नानक पर मेहर कर। (तेरे दास को) गुरू के चरणों की धूड़ मिल जाए। (गुरू की कृपा से ही) संसार-समुंद्र से पार लांघा जासकता है।4।6।11। बिलावलु महला ५ ॥ गुर का सबदु रिदे महि चीना ॥ सगल मनोरथ पूरन आसीना ॥१॥ संत जना का मुखु ऊजलु कीना ॥ करि किरपा अपुना नामु दीना ॥१॥ रहाउ ॥ अंध कूप ते करु गहि लीना ॥ जै जै कारु जगति प्रगटीना ॥२॥ नीचा ते ऊच ऊन पूरीना ॥ अम्रित नामु महा रसु लीना ॥३॥ मन तन निरमल पाप जलि खीना ॥ कहु नानक प्रभ भए प्रसीना ॥४॥७॥१२॥ {पन्ना 804} पद्अर्थ: रिदे महि = हृदय में। चीना = पहचाना, विचार किया। सगल = सारे। आसीना = आशाएं।1। ऊजलु = उज्जवल, रौशन। कीना = कर दिया। करि = करके।1। रहाउ। अंध कूप ते = अंधे कूएं से। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। जै जैकारु = जै जैकार, फतह का डंका, बहुत शोभा। जगति = जगत में।2। ऊन = कम, खाली। पूरीना = भर दिए। महा रस = बहुत स्वादिष्ट। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला।3। निरमल = पवित्र। जलि = जल के। खीना = समाप्त हो गए। नानक = हे नानक! प्रसीना = प्रसन्न।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने मेहर करके (जिन संत जनों को) अपना नाम बख्शा, उन संत जनों का मुँह (लोक-परलोक में) रौशन हो गया।1। रहाउ। हे भाई! (जिन भाग्यशालियों ने) गुरू का शबद अपने हृदय में विचारा, उनके सारे मनोरथ पूरे हो गए, उनकी सारी ही आशाएं पूरी हो गई।1। हे भाई! जिन भाग्यशालियों को प्रभू ने (माया के मोह के) अंधेरे कूएँ में से हाथ पकड़ के निकाल लिया, सारे जगत में उनकी बहुत ही शोभा पसर गई।2। हे भाई! (जिन मनुष्यों ने) आत्मिक जीवन देने वाला और बहुत ही स्वादिष्ट हरी का नाम जपना आरम्भ कर दिया, वे नीच से ऊँचे बन गए (श्रेष्ठ बन गए), वे (जो पहले) गुणहीन थे (अब) गुणवान हो गए।3। हे नानक! कह- (जिन मनुष्यों पर) प्रभू जी प्रसन्न हो गए, उनके मन, उनके शरीर पवित्र हो गए, उनके सारे पाप जल के राख हो गए।4।7।12। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |