श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 803 बिलावलु महला ५ ॥ बिखै बनु फीका तिआगि री सखीए नामु महा रसु पीओ ॥ बिनु रस चाखे बुडि गई सगली सुखी न होवत जीओ ॥ मानु महतु न सकति ही काई साधा दासी थीओ ॥ नानक से दरि सोभावंते जो प्रभि अपुनै कीओ ॥१॥ हरिचंदउरी चित भ्रमु सखीए म्रिग त्रिसना द्रुम छाइआ ॥ चंचलि संगि न चालती सखीए अंति तजि जावत माइआ ॥ रसि भोगण अति रूप रस माते इन संगि सूखु न पाइआ ॥ धंनि धंनि हरि साध जन सखीए नानक जिनी नामु धिआइआ ॥२॥ जाइ बसहु वडभागणी सखीए संता संगि समाईऐ ॥ तह दूख न भूख न रोगु बिआपै चरन कमल लिव लाईऐ ॥ तह जनम न मरणु न आवण जाणा निहचलु सरणी पाईऐ ॥ प्रेम बिछोहु न मोहु बिआपै नानक हरि एकु धिआईऐ ॥३॥ द्रिसटि धारि मनु बेधिआ पिआरे रतड़े सहजि सुभाए ॥ सेज सुहावी संगि मिलि प्रीतम अनद मंगल गुण गाए ॥ सखी सहेली राम रंगि राती मन तन इछ पुजाए ॥ नानक अचरजु अचरज सिउ मिलिआ कहणा कछू न जाए ॥४॥२॥५॥ {पन्ना 802-803} पद्अर्थ: बनु = पानी (वनं कानने जले)। बिखै बनु = विषौ विकारों का जल। री सखीऐ = हे सहेलीऐ! महा रसु = बड़ा स्वादिष्ट अमृत। बुडि गई = डूब रही है। सगली = सारी (सृष्टि)। जीओ = जीउ, जिंद। मानु = फखर, आसरा। महतु = महत्वता, बड़प्पन। सकति = ताकत, शक्ति। काई = (स्त्रीलिंग) कोई ही। थीओ = हो जा। से = वे लोग (बहुवचन)। दरि = (प्रभू के) दर पर। प्रभि = प्रभू ने। प्रभि अपुनै = अपने प्रभू ने। कीओ = कर लिए।1। हरिचंदउरी = हरीचंद नगरी, हवाई किला। भ्रम = भरम, भुलेखा। म्रिग त्रिसना = मृग तृष्णा, ठग नीरा। द्रुम = वृक्ष। छाइआ = छाया। चंचलि = (स्त्रीलिंग) कहीं एक जगह ना टिकने वाली। संगि = से। अंति = आखिर को। रसि = स्वाद से। अति = बहुत। माते = मस्त। इन संगि = इनकी संगति में रहने से। धंनि = भाग्यशाली।2। जाइ = जा के। बसहु = बसो, टिको। तह = वहाँ। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। लिव = सुरति। बिछोहु = विछोड़ा।3। धारि = धार के, कर के। द्रिसटि = निगाह, नजर। बेधिआ = भेद लिया। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = प्यार में। सेज = हृदय सेज। सुहावी = सुख देने वाली। मिलि = मिल के। गाऐ = गा के। रंगि = रंग में, प्रेम में। अचरजु = हैरान करने वाली हालत में पहुँचा हुआ जीव।4। अर्थ: हे सहेलिए! विषौ-विकारों का बे-स्वादा पानी (पीना) छोड़ दे। सदा नाम-अमृत पीया कर, यह बहुत स्वादिष्ट है। (नाम अमृत का) स्वाद ना चखने के कारण, सारी सृष्टि (विषौ-विकारों के पानी में) डूब रही है, (फिर भी) जिंद सुखी नहीं होती। कोई (अन्य) आसरा, कोई महानता, कोई ताकत (नाम-अमृत की प्राप्ति का साधन नहीं बन सकते)। हे सहेलिए! (नाम-जल की प्राप्ति के लिए) गुरमुखों की दासी बनी रह। हे नानक! प्रभू के दर पर वह लोग शोभा वाले होते हैं जिनको प्यारे प्रभू ने स्वयं ही शोभा वाले बनाया है।1। हे सहेलिए! यह माया (जैसे) हवाई किला है, मन को भटकना में डालने का साधन है, मृग-तृष्णा है, वृक्ष की छाया है। कभी भी एक जगह ना टिक सकने वाली ये माया किसी के साथ नहीं जाती, ये आखिर में (साथ) छोड़ जाती है। स्वाद से दुनिया के पदार्थ भोगने, दुनियाँ के रूपों और रसों में मस्त रहना- हे सखिए! इनकी संगति में आत्मिक आनंद नहीं मिलता। हे नानक! (कह-) हे सहेलिए! भाग्यशाली हैं परमात्मा के भक्त जिन्होंने सदा परमात्मा का नाम सिमरा है।2। हे भाग्यशाली सहेलिए! जा के साध-संगति में टिका कर। गुरमुखों की ही संगति में सदा टिकना चाहिए। वहाँ टिकने से दुनिया के दुख, माया की तृष्णा, कोई रोग आदिक- ये कोई भी अपना जोर नहीं डाल सकते। (साध-संगति में जा के) प्रभू के सुंदर चरणों में सुरति जोड़नी चाहिए। साध-संगति में रहने से जनम-मरण का चक्कर नहीं सताता, मन की अडोलता कायम रहती है। सो, प्रभू की शरण में पड़े रहना चाहिए। हे नानक! (साध-संगति की बरकति से) प्रभू-प्रेम की गैर-मौजूदगी और माया का मोह- ये कोई भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। सत-संगति में सदा परमात्मा का नाम सिमरा जा सकता है।3। हे प्यारे! (प्रभू)! मेहर की निगाह करके तूने जिनका मन अपने चरणों में परो लिया है, वे आत्मिक अडोलता में, प्रेम में, सदा रंगे रहते हैं। हे प्रीतम! तेरे (चरणों) से मिल के उनका हृदय आनंद-भरपूर हो जाता है, तेरे गुण गा-गा के उनके अंदर आनंद बना रहता है। हे नानक! जो (सत्संगी) सहेलियाँ प्रभू के प्रेम-रंग में रंगी रहती हैं, प्रभू उनके मन की तन की हरेक इच्छा पूरी करता है, उनकी (ऊँची हो चुकी) जिंद आश्चर्य-रूप प्रभू से इस प्रकार मिल जाती है कि (उस अवस्था का) बयान नहीं किया जा सकता।4।2।5। रागु बिलावलु महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ एक रूप सगलो पासारा ॥ आपे बनजु आपि बिउहारा ॥१॥ ऐसो गिआनु बिरलो ई पाए ॥ जत जत जाईऐ तत द्रिसटाए ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक रंग निरगुन इक रंगा ॥ आपे जलु आप ही तरंगा ॥२॥ आप ही मंदरु आपहि सेवा ॥ आप ही पूजारी आप ही देवा ॥३॥ आपहि जोग आप ही जुगता ॥ नानक के प्रभ सद ही मुकता ॥४॥१॥६॥ {पन्ना 803} नोट: यहाँ से आगे घरु ४ के चउपदे आरम्भ होते हैं। पद्अर्थ: ऐक रूप = एक (परमात्मा के अनेकों) रूप। सगलो = सारा। पासारा = जगत खिलारा। आपे = आप ही।1। गिआनु = सूझ। ई = ही। बिरलो ई = कोई विरला मनुष्य ही। जत कत = जहाँ तहाँ। द्रिसटाऐ = दिखता है।1। रहाउ। निरगुन = जिस पर माया के तीनों गुणों का प्रभाव नहीं पड़ता। तरंगा = लहरें।2। आप ही = स्वयं ही (शब्द 'आपि' की 'पि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। आपहि = आप ही। देवा = देवता।3। जोग = जोगी। जुगता = जोग की जुगति, जोग के साधन। मुकता = निर्लिप।4। अर्थ: हे भाई! जगत में जिस-जिस ओर चले जाएं, हर तरफ़ परमात्मा ही नज़र आता है। पर यह सूझ कोई विरला मनुष्य ही हासिल करता है।1। रहाउ। हे भाई! ये सारा जगत-पसारा उस एक (परमात्मा के ही अनेकों) रूप हैं। (सब जीवों में व्यापक हो के) प्रभू स्वयं ही (जगत का) वणज-व्यवहार कर रहा है।1। हे भाई! सदा एक-रंग रहने वाले और माया के तीन गुणों से निर्लिप परमात्मा के ही (जगत में दिखाई दे रहे) अनेकों रंग-तमाशे हैं। वह प्रभू स्वयं ही पानी है, और, स्वयं ही (पानी में उठ रही) लहरें हैं (जैसे पानी और पानी की लहरें एक ही रूप हैं, वैसे ही परमात्मा से ही जगत के अनेकों रूप-रंग बने हैं)।2। हे भाई! प्रभू खुद ही मन्दिर है, खुद ही सेवा-भगती है, खुद ही (मन्दिर में) देवता है, और स्वयं ही (देवते का) पुजारी है।3। हे भाई! प्रभू स्वयं ही जोगी है, स्वयं ही जोग का साधन है। (सब जीवों में व्यापक होता हुआ भी) नानक का परमात्मा सदा ही निर्लिप है।4।1।6। नोट: अंक1 बताता है कि घरु ४ का यह पहला चउपदा है। बिलावलु महला ५ ॥ आपि उपावन आपि सधरना ॥ आपि करावन दोसु न लैना ॥१॥ आपन बचनु आप ही करना ॥ आपन बिभउ आप ही जरना ॥१॥ रहाउ ॥ आप ही मसटि आप ही बुलना ॥ आप ही अछलु न जाई छलना ॥२॥ आप ही गुपत आपि परगटना ॥ आप ही घटि घटि आपि अलिपना ॥३॥ आपे अविगतु आप संगि रचना ॥ कहु नानक प्रभ के सभि जचना ॥४॥२॥७॥ {पन्ना 803} पद्अर्थ: उपावन = पैदा करने (वाला)। सधरना = (धन = आसरा) आसरा देने वाला। करावन = (जीवों से काम) करवाने वाला।1। बचनु = हुकम। बिभउ = प्रताप, ऐश्वर्य। जरना = बर्दाश्त करना, (दुख) सहता है।1। रहाउ। मसटि = चुप। बुलना = बोलता। बुलना = बोलता, बोलने वाला।2। घटि घटि = हरेक घर में। अलिपना = निर्लिप।3। आपे = स्वयं ही। अविगतु = अव्यक्त, अदृष्ट। संगि = साथ। रचना = श्रृष्टि। सभि = सारे। जचना = करिश्मे, चोज।4। अर्थ: हे भाई! (हरेक जीव में व्यापक हो के) अपने बोल (प्रभू स्वयं ही बोल रहा है, और) खुद ही (उस बोल के अनुसार) काम कर रहा है।1। रहाउ। हे भाई! प्रभू स्वयं ही (सब जीवों को) पैदा करने वाला है, और स्वयं ही (सबको) सहारा देने वाला है। (सबमें व्यापक हो के) प्रभू स्वयं ही (सब जीवों से) काम करवाने वाला है, पर प्रभू (इन कामों का) दोष अपने ऊपर नहीं लेता।1। (हरेक में मौजूद है। यदि कोई मौनधारी बैठा है, तो उस में) प्रभू खुद ही मौनधारी है, (अगर कोई बोल रहा है, तो उसमें) प्रभू स्वयं ही बोल रहा है। प्रभू स्वयं ही (किसी में बैठा) माया के प्रभाव से परे है, माया उसे छल नहीं सकती।2। हे भाई! प्रभू स्वयं ही (सब जीवों में) छुपा बैठा है, और, (जगत-रचना के रूप में) स्वयं ही प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। प्रभू स्वयं ही हरेक शरीर में बस रहा है, (हरेक में बसता हुआ) प्रभू स्वयं ही निर्लिप है।3। हे भाई! प्रभू खुद ही अदृष्ट है, खुद ही (अपनी रची हुई) सृष्टि के साथ मिला हुआ है। हे नानक! कह- (जगत में दिखाई दे रहे ये) सारे करिश्मे प्रभू के अपने ही हैं।4।2।7। बिलावलु महला ५ ॥ भूले मारगु जिनहि बताइआ ॥ ऐसा गुरु वडभागी पाइआ ॥१॥ सिमरि मना राम नामु चितारे ॥ बसि रहे हिरदै गुर चरन पिआरे ॥१॥ रहाउ ॥ कामि क्रोधि लोभि मोहि मनु लीना ॥ बंधन काटि मुकति गुरि कीना ॥२॥ दुख सुख करत जनमि फुनि मूआ ॥ चरन कमल गुरि आस्रमु दीआ ॥३॥ अगनि सागर बूडत संसारा ॥ नानक बाह पकरि सतिगुरि निसतारा ॥४॥३॥८॥ {पन्ना 803-804} पद्अर्थ: भूले = (जीवन के सही मार्ग से) भूलते जा रहे को। मारगु = (जीवन का सही) रास्ता। जिनहि = जिनि ही, जिस (गुरू) ने। वड भागी = बड़े भाग्यों से।1। मना = हे मन! चितारे = चितार के, ध्यान जोड़ के। हिरदै = हृदय में।1। रहाउ। कामि = काम में। क्रोधि = क्रोध में। लीना = फसा हुआ। काटि = काट के। गुरि = गुरू ने। मुकति = मुक्ति।2। करत = करते हुए। जनमि = जनम में (आ के), पैदा हो के। फुनि = दोबारा। गुरि = गुरू ने। आस्रमु = आश्रम, सहारा, ठिकाना।3। अगनि सागर = (तृष्णा की) आग का समुंद्र। बूडत = डूब रहा है। पकरि = पकड़ के। सतिगुरि = सतिगुरू ने। निसतारा = पार लंघा दिया।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! ध्यान जोड़ के परमात्मा का नाम सिमरा कर। (पर वही मनुष्य हरी नाम का सिमरन करता है, जिसके) हृदय में प्यारे सतिगुरू के चरन बसे रहते हैं (इसलिए, हे मन! तू भी गुरू का आसरा ले)।1। रहाउ। (हे मन!) ऐसा गुरू बड़े भाग्यों से ही मिलता है, जो (जीवन के सही रास्ते से) विचलित होते जा रहे मनुष्य को (जिंदगी का सही) रास्ता बता देता है।1। (हे मन! देख, मनुष्य का) मन (सदा) काम में, क्रोध में लोभ में फंसा रहता है। (पर जब वह गुरू की शरण आया), गुरू ने (उसके ये सारे) बँधन काट के उसको (इन विकारों से) खलासी दे दी।2। हे मन! दुख-सुख करते हुए मनुष्य कभी मरता है कभी जी उठता है (दुख के आने पर सहम जाता है, सुख मिलने पर आराम की साँस लेने लग जाता है। इस प्रकार डुबकियाँ लेते हुए जब मनुष्य गुरू की शरण आया) गुरू ने उसको सुंदर चरणों का आसरा दे दिया।3। हे नानक! जगत तृष्णा की आग के समुंद्र में डूब रहा है। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ा) गुरू ने (उसकी) बाँह पकड़ के (उसे संसार-समुंद्र में से) पार लंघा दिया।4।3।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |