श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ५ ॥ स्रब निधान पूरन गुरदेव ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु जपत नर जीवे ॥ मरि खुआरु साकत नर थीवे ॥१॥ राम नामु होआ रखवारा ॥ झख मारउ साकतु वेचारा ॥२॥ निंदा करि करि पचहि घनेरे ॥ मिरतक फास गलै सिरि पैरे ॥३॥ कहु नानक जपहि जन नाम ॥ ता के निकटि न आवै जाम ॥४॥१३॥१८॥ {पन्ना 806}

पद्अर्थ: स्रब = (सर्व) सारे।1। रहाउ।

जीवे = आत्मिक जीवन तलाश लेते हैं। मरि = आत्मिक मौत सहेड़ के। साकत नर = प्रभू से टूटे हुए बंदे। खुआरु थीवे = परेशान होते हैं।1।

मारउ = (हुकमी भविष्यत, अन्न पुरख, एक वचन) बेशक मारे।2।

करि = कर के। पचहि = जलते हैं, खिजते हैं। मिरतक फास = मौत की फांसी। सिरि = सिर पर। पैरे = पैरों में। गलै = गले में।3।

जपहि = जपते हैं। ता के निकटि = उनके नजदीक।4।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू की शरण पड़ने से सारे खजानों का मालिक प्रभू मिल जाता है।1। रहाउ।

(गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपने से मनुष्य आत्मिक जीवन तलाश लेते हैं। पर परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य बेचारा (उसकी निंदा आदि करने के लिए) झखें मारता है (पर उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता)।2।

अनेकों लोग (हरी-नाम का सिमरन करने वाले मनुष्य की) निंदा कर-कर के (बल्कि) परेशान (ही होते) हैं। (आत्मिक) मौत की फाही उनके गले में उनके पैरों में पड़ी रहती है, आत्मिक मौत उनके सिर पर सवार रहती है।3।

हे नानक! (बेशक) कह- जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपते हैं, जम भी उनके नजदीक नहीं फटक सकता।4।13।18।

नोट: यहाँ चार बंदों वाले शबद (चौपदे) समाप्त होते हैं। आगे दो बंदों वाले (दो-पदे) आरम्भ होते हैं।

रागु बिलावलु महला ५ घरु ४ दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कवन संजोग मिलउ प्रभ अपने ॥ पलु पलु निमख सदा हरि जपने ॥१॥ चरन कमल प्रभ के नित धिआवउ ॥ कवन सु मति जितु प्रीतमु पावउ ॥१॥ रहाउ ॥ ऐसी क्रिपा करहु प्रभ मेरे ॥ हरि नानक बिसरु न काहू बेरे ॥२॥१॥१९॥ {पन्ना 806}

पद्अर्थ: संजोग = मिलाप का समय, लगन, महूरत। मिलउ = मिलूँ। पलु पलु = हरेक पल। निमख = आँख झपकने जितना समय।1।

धिआवउ = मैं ध्यान धरता रहूँ। सुमति = अच्छी मति। जितु = जिसके द्वारा।1। रहाउ।

प्रभ = हे प्रभू! काहू बेरे = किसी भी वक्त। बिसरु न = ना भूल।2।

अर्थ: हे भाई! वह कौन सी सद्-बुद्धि है जिसकी बरकति से मैं अपने प्यारे प्रभू को मिल सकूँ? (वह कौन सी सुमति है जिसके माध्यम से) मैं परमात्मा के सुंदर चरणों का हर वक्त ध्यान धर सकूँ?।1। रहाउ।

हे भाई! वह कौन से महूरत हैं जब मैं अपने प्रभू को मिल सकूँ? (वह लगन-महूरत तो हर वक्त ही हैं) एक-एक पल, आँख झपकने जितना समय भर भी सदा ही हरी-नाम जपने से (परमात्मा से मिलाप हो सकता है)।1।

(पर, प्रभू की अपनी मेहर हो, तो ही सिमरन हो सकता है। इस वास्ते उसके दर पर सदैव अरदास करें-) हे मेरे प्रभू! (मेरे पर) ऐसी मेहर कर, कि, हे हरी! मुझ नानक को तेरा नाम कभी भी ना भूले।2।1।19।

बिलावलु महला ५ ॥ चरन कमल प्रभ हिरदै धिआए ॥ रोग गए सगले सुख पाए ॥१॥ गुरि दुखु काटिआ दीनो दानु ॥ सफल जनमु जीवन परवानु ॥१॥ रहाउ ॥ अकथ कथा अम्रित प्रभ बानी ॥ कहु नानक जपि जीवे गिआनी ॥२॥२॥२०॥ {पन्ना 806}

पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर और कोमल पैर। हिरदै = हृदय में। सगले = सारे।1।

गुरि = गुरू ने। दानु = (नाम की) दाति। सफल = कामयाब। परवानु = (लोक परलोक में) कबूल।1। रहाउ।

अकथ = वह प्रभू जिसके सारे गुण बयान ना किए जा सके। कथा = सिफत सालाह की बातें। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाली। बानी = सिफत सालाह की बाणी। गिआनी = ज्ञानवान, प्रभू के साथ गहरी सांझ डालने वाला मनुष्य। गिआन = ज्ञान, परमात्मा से जान पहचान। जीवे = आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।2।

अर्थ: हे भाई! गुरू ने (जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम की) दात दे दी, उसका सारा दुख भी गुरू ने दूर कर दिया। उस मनुष्य की जिंदगी कामयाब हो गई, (लोक-परलोक में) उसका जीवन कबूल हो गया।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरू की कृपा से जिस मनुष्य ने अपने) हृदय में प्रभू के सुंदर चरन-कमलों का ध्यान धरना आरम्भ कर दिया, उसके सारे रोग दूर हो गए, उसने सारे सुख प्राप्त कर लिए।1।

हे नानक! कह- बेअंत गुणों के मालिक प्रभू की सिफत-सालाह वाली बाणी आत्मिक जीवन देने वाली है। प्रभू से गहरी जान-पहचान वाला मनुष्य प्रभू के गुणों को याद कर-करके आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।2।2।20।

बिलावलु महला ५ ॥ सांति पाई गुरि सतिगुरि पूरे ॥ सुख उपजे बाजे अनहद तूरे ॥१॥ रहाउ ॥ ताप पाप संताप बिनासे ॥ हरि सिमरत किलविख सभि नासे ॥१॥ अनदु करहु मिलि सुंदर नारी ॥ गुरि नानकि मेरी पैज सवारी ॥२॥३॥२१॥ {पन्ना 806}

पद्अर्थ: सांति = शांति, आत्मिक ठंड। गुरि = गुरू ने। सतिगुरि = सतिगुरू ने। उपजे = पैदा हो गए। बाजे = बज गए। अनहद = अनहत्, बिना बजाए, एक रस। तूरे = बाजे।1। रहाउ।

ताप = दुख। पाप = विकार। संताप = कलेश। सिमरत = सिमरते हुए। किलविख = पाप। सभि = सारे।1।

अनदु करहु = आत्मिक आनंद पैदा करो। मिलि = मिल के। नारी = हे नारियो! हे मेरी ज्ञानेन्द्रियो! गुरि = गुरू ने। नानकि = नानक ने। पैज = लाज, इज्जत।2।

अर्थ: हे भाई! पूरे सतिगुरू ने, गुरू ने (हरी-नाम की दाति दे के जिस मनुष्य के हृदय में) शीतलता बरता दी, उसके अंदर सारे सुख पैदा हो गए (मानो, उसके अंदर) एक-रस सारे बाजे बजने लग गए।1। रहाउ।

(जिस मनुष्य ने गुरू की कृपा से हरी-नाम सिमरना शुरू कर दिया, उसके सारे) दुख-कलेश दूर हो गए। परमात्मा का नाम सिमरते-सिमरते उसके सारे पाप नाश हो गए।1।

(नाम की बरकति से) सुंदर (बन चुकी) हे मेरी ज्ञानेन्द्रियों! तुम अब मिल के (सत्संग करके अपने अंदर) आत्मिक आनंद पैदा करो। गुरू नानक ने (मुझे ताप-पाप-संताप से बचा के) मेरी इज्जत रख ली है।2।3।21।

बिलावलु महला ५ ॥ ममता मोह ध्रोह मदि माता बंधनि बाधिआ अति बिकराल ॥ दिनु दिनु छिजत बिकार करत अउध फाही फाथा जम कै जाल ॥१॥ तेरी सरणि प्रभ दीन दइआला ॥ महा बिखम सागरु अति भारी उधरहु साधू संगि रवाला ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभ सुखदाते समरथ सुआमी जीउ पिंडु सभु तुमरा माल ॥ भ्रम के बंधन काटहु परमेसर नानक के प्रभ सदा क्रिपाल ॥२॥४॥२२॥ {पन्ना 806}

पद्अर्थ: मम = मेरा। ममता = (शब्द 'मम' से भाव वाचक संज्ञा) अपनत्व। ध्रोह = ठॅगी। मदि = नशे में। माता = मस्त। बंधनि = बंधन के साथ, रस्सी। बाधिआ = बँधा हुआ। अति = बहुत। बिकराल = डरावना। दिनु दिनु = हर रोज। छिजत = घटती जाती। अउध = उम्र।1।

प्रभ = हे प्रभू! दीन = गरीब, निमाणे। बिखम = मुश्किल। सागरु = समुंद्र। उधरहु = पार लंघा लो। साधू = गुरू। साधू संगि = गुरू की संगति में। रवाला = चरण धूड़।1। रहाउ।

जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सभु = ये सारा। मालु = पूँजी। भ्रम = भटकना।2।

अर्थ: दीनों पर दया करने वाले हे प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ। ये (संसार-) समुंद्र बहुत बड़ा है, (इसमें से पार होना) बहुत ही मुश्किल है। हे प्रभू! मुझे गुरू की संगति में (रख के) मुझे गुरू की चरण-धूड़ दे के (इस संसार-समुंर में डूबने से) बचा ले।1। रहाउ।

(हे प्रभू! इस संसार-समुंद्र में फंस के जीव) अपनत्व के मद में, मोह के नशे में, ठॅगी-चालाकी के मद में मस्त रहता है। माया के मोह की जकड़ से बँधा हुआ जीव बड़े डरावने जीवन वाला बन जाता है। हर रोज विकार करते हुए इसकी उम्र घटती जाती है, ये जम की फाही में जम के जाल में हमेशा फसा रहता है।1।

हे सारे सुख देने वाले प्रभू! हे सब ताकतों के मालिक स्वामी! (जीवों को मिला हुआ) ये शरीर और आत्मा (जिंद) सब कुछ तेरा ही दिया हुआ सरमाया है। हे नानक के प्रभू! हे सदा कृपालु प्रभू! हे परमेश्वर! (जीव माया में भटक रहे हैं, जीवों के ये) भटकना के बँधन काट दे।2।4।22।

बिलावलु महला ५ ॥ सगल अनंदु कीआ परमेसरि अपणा बिरदु सम्हारिआ ॥ साध जना होए किरपाला बिगसे सभि परवारिआ ॥१॥ कारजु सतिगुरि आपि सवारिआ ॥ वडी आरजा हरि गोबिंद की सूख मंगल कलिआण बीचारिआ ॥१॥ रहाउ ॥ वण त्रिण त्रिभवण हरिआ होए सगले जीअ साधारिआ ॥ मन इछे नानक फल पाए पूरन इछ पुजारिआ ॥२॥५॥२३॥ {पन्ना 806}

पद्अर्थ: सगल = सारा, पूर्ण। परमेसरि = परमेश्वर ने। बिरदु = ईश्वर की मूल कदीमी स्वभाव। समारिआ = संभाला, याद रखा। बिगसे = खुश हुए, खिल उठे। सभि = सारे। सभ परवारिआ = सारे परिवार।1।

कारजु = काम। सतिगुरि = गुरू ने। सवारिआ = सफल कर दिया। आरजा = उम्र।1। रहाउ।

वण = जंगल। त्रिण = घास के तीले। जीअ = ('जीउ' का बहुवचन) सारे जीव। साधारिआ = आसरा दिया है। पूरन = मुकम्मल तौर पर। पुजारिआ = पूरी की।2।

अर्थ: (हे भाई! लोग तो देवी आदि की पूजा की प्रेरणा कर रहे थे। पर देखिए, हरिगोबिंद को चेचक के बुखार से आरोग्य करने वाला ये बड़ा) काम (मेरे) सतिगुरू ने खुद ही सफल कर दिया है। (गुरू ने खुद ही) हरिगोबिंद की उम्र लंबी कर दी है, (गुरू ने स्वयं ही हरिगोबिंद को) सुख-खुशी-आनंद देने की विचार की है।1। रहाउ।

(हे भाई! ये यकीन जानो कि) परमात्मा अपना मूल कदीमी बिरद (भगत-वछॅल होने का) स्वभाव हमेशा याद रखता है, अपने संत-जनों पर हमेशा दयावान रहता है, उनको हरेक किस्म का सुख-आनंद देता है, उनके सारे परिवार (सारी ज्ञानेन्द्रियाँ भी) आनंद-भरपूर रहती हैं।1।

हे नानक! जिस परमात्मा की कृपा से सारे जंगल, सारी बनस्पति, तीनों ही भवन हरे-भरे रहते हैं, वह परमात्मा सारे जीवों को आसरा देता है। (जो भी मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ते हैं) वे मन-मांगी मुरादें पा लेते हैं, परमात्मा उनकी सारी कामनाएं पूरी करता है (बस! उस परमात्मा का ही आसरा लिया करो)।2।5।23।

नोट: छेवें गुरू, गुरू हरिगोबिंद साहिब जी को बचपन में माता (चेचक) निकली। लोगों ने अपने भ्रमित स्वभाव के अनुसार, पिता गुरू अरजन देव जी (पाँचवें सतिगुरू) को भी सलाह दी कि बिमार बालक को देवी-माता के मंदिर में ले के जाना चाहिए। उक्त शबद द्वारा सतिगुरू उस गलत सलाह प्रेरणा का उक्तर दे रहे हैं, और सदा के लिए अपने सिखों को सही मार्ग-दर्शन कर रहे हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh