श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 810

बिलावलु महला ५ ॥ अह्मबुधि परबाद नीत लोभ रसना सादि ॥ लपटि कपटि ग्रिहि बेधिआ मिथिआ बिखिआदि ॥१॥ ऐसी पेखी नेत्र महि पूरे गुर परसादि ॥ राज मिलख धन जोबना नामै बिनु बादि ॥१॥ रहाउ ॥ रूप धूप सोगंधता कापर भोगादि ॥ मिलत संगि पापिसट तन होए दुरगादि ॥२॥ फिरत फिरत मानुखु भइआ खिन भंगन देहादि ॥ इह अउसर ते चूकिआ बहु जोनि भ्रमादि ॥३॥ प्रभ किरपा ते गुर मिले हरि हरि बिसमाद ॥ सूख सहज नानक अनंद ता कै पूरन नाद ॥४॥८॥३८॥ {पन्ना 810}

पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंबुद्धि, अहंकार वाली मति, मैं मैं करने वाली अक्ल। परबाद = प्रवाद, दूसरे को वंगारने वाले जोश भरे कड़वे बोल। नीत = नित्य, सदा। सादि = स्वाद में। रसना = जीभ। लपटि = लिपट के, फस के। कपटि = कपट में, ठॅगी फरेब में। ग्रिहि = घर (के मोह) में। मिथिआ = नाशवंत। बिखिआद = बिखिआ आदि, माया वगैरा।1।

पेखी = देखी है। महि = में। गुर परसादि = गुरू की कृपा से। बादि = व्यर्थ।1। रहाउ।

धूप = धुखाने वाली सुगंधित वस्तुएं। सोगंधता = खुशबू। कापर = कपड़े। भोगादि = भोग आदि, खाने वाले बढ़िया पदार्थ। संगि = साथ। पापिसट = महा पापी। तन = शरीर। दुरगादि = दुर्गन्धि।2।

फिरत फिरत = (कई जूनियों में) भटकते भटकते। खिन भंगन = एक छिन में नाश हो जाने वाला। देहादि = देह, शरीर। अउसर = अवसर। ते = से। चुकिआ = चूक गया, (मौका) हाथ से निकल गया। भ्रमादि = भटकता है।3।

किरपा ते = कृपा से। बिसमाद = विस्माद, आश्चर्यरूप। ता कै = उस (मनुष्य) के हृदय में। नाद = धुनि, शब्द, बाजे। सहज = आत्मिक अडोलता।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू की कृपा से मैंने अपनी आँखों से ही (जगत के पदार्थों की) ऐसी हालत देख ली है (कि दुनिया की) बादशाहियाँ, ज़मीनों (की मल्कियत), धन और जवानी (आदि सारे ही) परमात्मा के नाम के बिना व्यर्थ हैं।1। रहाउ।

(प्रभू के नाम से टूट के मनुष्य) अहंकार की बुद्धि के आसरे दूसरों को ललकारने वाले कड़वे बोल बोलता है, सदा लालच और जीभ के स्वाद में (फसा रहता है); घर (के मोह) में, ठॅगी-फरेब में फस के, नाशवंत माया (के मोह) में भेदा रहता है।1।

(प्रभू के नाम से विछुड़ के) महा विकारी मनुष्य (शरीर का गर्व करता है, पर इस विकारी) शरीर के साथ छू के सुंदर-सुंदर पदार्थ, धूप आदि सुगंधियाँ, बढ़िया कपड़े, बढ़िया पकवान (ये सारे ही) दुर्गन्धि देने वाले बन जाते हैं।2।

हे भाई! अनेकों जूनियों में भटकता-भटकता जीव मनुष्य बनता है, ये शरीर भी एक छिन में नाश हो जाने वाला है (इसका गुमान भी कैसा? इस शरीर में भी परमात्मा के नाम से टूटा रहता है)। इस मौके से विछुड़ा हुआ जीव (फिर) अनेकों जूनियों में जा भटकता है।3।

हे नानक! परमात्मा की कृपा से जो मनुष्य गुरू को मिल गए, उन्होंने आश्चर्य रूप से हरी का नाम जपा, उनके हृदय में आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद के बाजे सदा बजने लग पड़े।4।8।38।

बिलावलु महला ५ ॥ चरन भए संत बोहिथा तरे सागरु जेत ॥ मारग पाए उदिआन महि गुरि दसे भेत ॥१॥ हरि हरि हरि हरि हरि हरे हरि हरि हरि हेत ॥ ऊठत बैठत सोवते हरि हरि हरि चेत ॥१॥ रहाउ ॥ पंच चोर आगै भगे जब साधसंगेत ॥ पूंजी साबतु घणो लाभु ग्रिहि सोभा सेत ॥२॥ निहचल आसणु मिटी चिंत नाही डोलेत ॥ भरमु भुलावा मिटि गइआ प्रभ पेखत नेत ॥३॥ गुण गभीर गुन नाइका गुण कहीअहि केत ॥ नानक पाइआ साधसंगि हरि हरि अम्रेत ॥४॥९॥३९॥ {पन्ना 810}

पद्अर्थ: बोहिथा = जहाज। सागरु = (संसार) समुंद्र। जेत = जितु, जिस (जहाज) द्वारा। मारग = रास्ता। उदिआन = जंगल, (विकारों की ओर ले जाने वाला) भटकाव भरा राह। गुरि = गुरू ने।1।

हेत = हित, प्यार। चेत = चेते कर, सिमर।1। रहाउ।

पंच = (कामादिक) पाँच। आगै = आगे से, मुकाबले पर। भगे = दौड़ जाते हैं। संगेत = संगति। पूँजी = (आत्मिक जीवन वाली) राशि, सरमाया। घणो = बहुत। ग्रिहि = घर में, प्रभू की हजूरी में। सेत = से, साथ।2।

निहचल = अडोल। डोलेत = (विकारों में) डोलता। भरमु = भटकना। नेत = नेत्री, आँखों से।3।

गभीर = गंभीर, गहरा (समुंद्र)। गुण नाइका = गुणों का मालिक, गुणों का खजाना। कहीअहि = कहे जाते हैं। कहीअहि केत = कितने (गुण) कहे जा सकते? साध संगि = गुरू की संगति में। अंम्रेत = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला हरी नाम जल।4।

अर्थ: हे भाई! उठते-बैठते-सोए हुए (हर वक्त) परमात्मा का नाम याद करा कर। सदा ही हर वक्त परमात्मा के नाम में प्यार डाल।1। रहाउ।

(हे भाई! जिस मनुष्य को हरी-नाम सिमरन का) भेद गुरू ने बता दिया, उसने (विकारों की ओर ले जाने वाले) बीयाबान-जंगल में (भी जीवन का सही) रास्ता ढूँढ लिया, गुरू के चरण (उस मनुष्य के लिए) जहाज बन गए जिस (जहाज) के माध्यम से वह मनुष्य (संसार-) समुंद्र से पार लांघ गया।1।

(हे भाई !) जब (मनुष्य) साध-संगत में (जा टिकता है, तब कामादिक) पाँचों चोर उससे टकराने का साहस नहीं करते (उससे दूर भाग जाते हैं)। (तब ना सिर्फ) उसके आत्मिक जीवन की सारी की सारी राशि-पूँजी (लूटे जाने से) बच जाती है। (बल्कि, उसको इस नाम के व्यापार में) बहुत सारा फायदा भी होता है, और परलोक में शोभा ले के जाता है।2।

(हे भाई! साध-संगति की बरकति से हर जगह) आँखों से परमात्मा के दर्शन करके उस मनुष्य की भटकना समाप्त हो जाती है, गलत रास्ते पर जाने वाली आदत दूर हो जाती है, (विकारों के मुकाबले में) उसका हृदय-आसन अटल हो जाता है, उसकी (हरेक किस्म की) चिंता मिट जाती है, वह मनुष्य (विकारों के सामने) डोलता नहीं।3।

हे नानक! परमात्मा गुणों का अथाह समुंद्र है, गुणों का खजाना है (बयान करने से) उसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते। पर जो मनुष्य साध-संगति में टिक के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जल पीता है, उसको परमात्मा का मिलाप प्राप्त हो जाता है।4।9।39।

बिलावलु महला ५ ॥ बिनु साधू जो जीवना तेतो बिरथारी ॥ मिलत संगि सभि भ्रम मिटे गति भई हमारी ॥१॥ जा दिन भेटे साध मोहि उआ दिन बलिहारी ॥ तनु मनु अपनो जीअरा फिरि फिरि हउ वारी ॥१॥ रहाउ ॥ एत छडाई मोहि ते इतनी द्रिड़तारी ॥ सगल रेन इहु मनु भइआ बिनसी अपधारी ॥२॥ निंद चिंद पर दूखना ए खिन महि जारी ॥ दइआ मइआ अरु निकटि पेखु नाही दूरारी ॥३॥ तन मन सीतल भए अब मुकते संसारी ॥ हीत चीत सभ प्रान धन नानक दरसारी ॥४॥१०॥४०॥ {पन्ना 810}

पद्अर्थ: साधू = गुरू। तेतो = उतना ही, वह सारा ही। संग = (गुरू के) साथ। भ्रम = भटकना। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1।

जा दिन = जिस दिन। साधू = गुरू जी। भेटे = मिले। मोहि = मुझे। उआ दिन = उस दिन से। जीअरा = प्यारी जीवात्मा। हउ = मैं। वारी = वारूँ, कुर्बान करूँ।1। रहाउ।

ऐत = ऐत (अपराधी), इतना अपनत्व। मोहि ते = मुझसे। इतनी = इतनी (विनम्रता)। द्रिढ़तारी = दृढ़ता। रेन = चरण धूड़। अपधारी = अपनत्व।2।

निंद चिंद = निंदा का ख्याल। पर दूखना = दूसरों का बुरा चितवना। ऐ = ये विकार। जारी = जला दिए। मइआ = तरस। अरु = और (शब्द 'अरि' और 'अरु' में फर्क याद रखने योग्य है)। निकटि पेखु = प्रभू को नजदीक देखना। दूरारी = दूर।3।

सीतल = ठंडे ठार, शांत। अब = अब। मुकते = आजाद। संसारी = दुनियां के बंधनों से। हीत = हित, लगन। चीत = चिक्त, सुरति। प्रान = जिंद।4।

अर्थ: (हे भाई!) मैं तो उस दिन पर सदके जाता हूँ, जिस दिन मुझे मेरे गुरू (पातशाह) मिल गए। अब मैं (अपने गुरू से) अपना शरीर, अपना मन, अपनी प्यारी जीवात्मा बारंबार सदके करता हूँ।1। रहाउ।

(हे भाई!) गुरू (के मिलाप) के बिना जितनी भी उम्र गुजारनी है, वह सारी व्यर्थ चली जाती है। गुरू की संगति में मिलते ही सारी भटकनें मिट जाती हैं, (गुरू की कृपा से) हम जीवों को उच्च आत्मिक अवस्था मिल जाती है।1।

हे भाई! (गुरू ने कृपा करके) मुझसे अपनत्व (मोह की पकड़) इतना छुड़वा दिया है, और विनम्रता (मेरे हृदय में) इतनी पक्की कर दी है कि अब मेरा ये मन सभी की चरण-धूड़ बन गया है, हर वक्त अपने ही स्वार्थ का ख्याल मेरे अंदर से खत्म हो गया है।1।

हे भाई! गुरू ने मेरे अंदर से पराई निंदा का ख्याल, दूसरों का बुरा देखना - ये सब कुछ एक छिन में ही जला दिए हैं। (दूसरों पर) दया (करनी), (जरूरतमंदों पर) तरस (करना), और (परमात्मा को हर वक्त) अपने नजदीक देखना- ये हर वक्त मेरे अंदर बसते हैं।3।

हे नानक! (कह- हे भाई! जब से मुझे गुरू मिल गया है, उसकी मेहर से) अब मेरा मन और तन (विकारों की तरफ से) शांत हो गए हैं, दुनियाँ के मोह और बँधनों से आजाद हो गए हैं। अब मेरी लगन, मेरी सुरति, मेरी जीवात्मा प्रभू के दर्शनों में ही मगन है, प्रभू के दर्शन ही मेरे वास्ते धन (पदार्थ) हैं।4।10।40।

बिलावलु महला ५ ॥ टहल करउ तेरे दास की पग झारउ बाल ॥ मसतकु अपना भेट देउ गुन सुनउ रसाल ॥१॥ तुम्ह मिलते मेरा मनु जीओ तुम्ह मिलहु दइआल ॥ निसि बासुर मनि अनदु होत चितवत किरपाल ॥१॥ रहाउ ॥ जगत उधारन साध प्रभ तिन्ह लागहु पाल ॥ मो कउ दीजै दानु प्रभ संतन पग राल ॥२॥ उकति सिआनप कछु नही नाही कछु घाल ॥ भ्रम भै राखहु मोह ते काटहु जम जाल ॥३॥ बिनउ करउ करुणापते पिता प्रतिपाल ॥ गुण गावउ तेरे साधसंगि नानक सुख साल ॥४॥११॥४१॥ {पन्ना 810-811}

पद्अर्थ: करउ = करूँ, करता रहूँ। पर = पैर। झारउ = झाड़ दूँ। बाल = केसों से। मसतकु = माथा, सिर। भेट देउ = मैं अर्पण कर दूँ। सुनउ = सुनूँ। रसाल = (रस आलय) स्वादिष्ट।1।

जीओ = जी जाता है, आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। दइआल = हे दया के श्रोत! निसि = रात। बासुर = दिन। मनि = मन में (शब्द 'मनि' और 'मनु' का व्याकर्णिक अर्थ याद रखें)। किरपाल = हे कृपा के श्रोत!।1। रहाउ।

उधारन = बचाने वाले। साध प्रभ = प्रभू का भजन करने वाले गुरमुख। तिन् पाल = तिन्ह पाल, उनके पल्ले, उनकी शरण। मो कउ = मुझे। प्रभ = हे प्रभू! पग राल = पैरों की धूड़।2।

उकति = युक्ति, दलील। घाल = मेहनत, सेवा। भै = भय ('भउ' का बहुवचन)। मोह ते = मोह से। जम जाल = जम का जाल।3।

बिनउ = विनय, विनती। करउ = करूँ। करुणा पते = (करुणा = तरस, दया। पते = हे पति!) हे दया के मालिक! गावउ = गाऊँ। साल = (शाला) घर। सुख साल = सुखों का घर।4।

अर्थ: हे दया के श्रोत प्रभू! तुझे मिलके मेरा मन आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। हे कृपा के घर प्रभू! (तेरे गुण) याद करते हुए दिन-रात मेरे मन में आनंद बना रहता है।1। रहाउ।

(हे प्रभू! मेहर कर) मैं तेरे सेवक की सेवा करता रहूँ। मैं (तेरे सेवक के) चरण (अपने) केसों से झाड़ता रहूँ। मैं अपना सिर (तेरे सेवक के आगे) भेटा कर दूँ, (और उससे तेरे) रस भरे गुण सुनता रहूँ।1।

हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले गुरमुख मनुष्य दुनिया (के लोगों) को (विकारों से) बचाने की स्मर्था वाले होते हैं, (अगर विकारों से बचने की आवश्यक्ता है तो) उनकी शरण पड़े रहो। हे प्रभू! मुझे (भी) अपने संतजनों की चरणों की धूड़ का दान दे।2।

हे प्रभू! मेरे पल्ले दलील करने की स्मर्था नहीं, मेरे अंदर कोई समझदारी नहीं, मैंने किसी सेवा की मेहनत नहीं की, (मेरी तो तेरे ही दर पर आरजू है - हे प्रभू!) मुझे भटकनों से, डरों से, मोह से बचा ले (ये भटकन, ये डर, ये मोह सब जम के जाल, जम के वश में डालने वाले हैं, मेरा यह) जमों का जाल काट दे।3।

हे तरस के श्रोत! हे रक्षा करने के समर्थ प्रभू! मैं (तेरे आगे) विनती करता हूँ। हे नानक! (कह- हे प्रभू! मेहर कर) साध-संगति में टिक के मैं तेरे गुण गाता रहूँ। (हे प्रभू!) तेरी साध-संगति सुखों का घर है।4।11।41।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh