श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 811 बिलावलु महला ५ ॥ कीता लोड़हि सो करहि तुझ बिनु कछु नाहि ॥ परतापु तुम्हारा देखि कै जमदूत छडि जाहि ॥१॥ तुम्हरी क्रिपा ते छूटीऐ बिनसै अहमेव ॥ सरब कला समरथ प्रभ पूरे गुरदेव ॥१॥ रहाउ ॥ खोजत खोजत खोजिआ नामै बिनु कूरु ॥ जीवन सुखु सभु साधसंगि प्रभ मनसा पूरु ॥२॥ जितु जितु लावहु तितु तितु लगहि सिआनप सभ जाली ॥ जत कत तुम्ह भरपूर हहु मेरे दीन दइआली ॥३॥ सभु किछु तुम ते मागना वडभागी पाए ॥ नानक की अरदासि प्रभ जीवा गुन गाए ॥४॥१२॥४२॥ {पन्ना 811} पद्अर्थ: कीता लोड़हि = (जो कुछ) तू करना चाहता है। करहि = तू करता है।1। क्रिपा ते = कृपा से। अहंमेव = (अहं+एव = मैं ही हूँ ) अहंकार। कला = ताकत। गुरदेव = हे सबसे बड़े देवते!।1। रहाउ। नामै बिनु = (परमात्मा के) नाम के बिना। कूरु = झूठ। सभु = सारा। प्रभ = हे प्रभू! मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। पूरु = पूरा कर।2। जितु = जिस में। जितु जितु = जिस जिस काम में। लगहि = (जीव) लगते हैं। सभ = सारी। जाली = जला दी। जत कत = जहाँ कहाँ।, हर जगह।3। तुम ते = तेरे से। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन प्राप्त करूँ। गाऐ = गा के।4। अर्थ: हे सारी ताकतों के मालिक प्रभू! हे सब कुछ कर सकने वाले प्रभू! हे गुणों से भरपूर प्रभू! हे सबसे बड़े देवते प्रभू! तेरी मेहर से (ही विकारों से) बच सकते हैं। (तेरी कृपा से ही) (जीवों का) अहंकार दूर हो सकता है।1। रहाउ। हे प्रभू! जो कुछ तू करना चाहता है, वही तू करता है, तेरी प्रेरणा के बिना (जीवों से) कुछ नहीं हो सकता। तेरा तेज-प्रताप देख के जमदूत (भी जीव को) छोड़ जाते हैं।1। हे प्रभू! तलाश करते-करते (आखिर मैंने ये बात) जान ली है कि (तेरे) नाम के बिना (और सब कुछ) नाशवंत है। जिंदगी का सारा सुख साध-संगति में (ही प्राप्त होता है)। हे प्रभू! (मुझे भी साध-संगति में टिकाए रख, मेरी ये) तमन्ना पूरी कर।2। हे प्रभू! जिस जिस काम में तू (जीवों को) लगाता है, उसी उसी में (जीव) लगते हैं। (इस वास्ते) हे प्रभू! मैंने अपनी सारी चतुराई खत्म कर दी है। (और, तेरी रजा में चलने की चाहत रखता हूँ)। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! तू (सारे जगत में) हर जगह मौजूद है (तुझसे कोई आकी नहीं हो सकता)।3। हे प्रभू! (हम जीव) सब कुछ तुझसे ही माँग सकते हैं। (जो) भाग्यशाली (मनुष्य माँगता है, वह) प्राप्त कर लेता है। हे प्रभू! (तेरे दास) नानक की (तेरे दर पर) अरदास है (मेहर कर, मैं नानक) तेरे गुण गा गा के आत्मिक जीवन हासिल कर लूँ।4।12।42। बिलावलु महला ५ ॥ साधसंगति कै बासबै कलमल सभि नसना ॥ प्रभ सेती रंगि रातिआ ता ते गरभि न ग्रसना ॥१॥ नामु कहत गोविंद का सूची भई रसना ॥ मन तन निरमल होई है गुर का जपु जपना ॥१॥ रहाउ ॥ हरि रसु चाखत ध्रापिआ मनि रसु लै हसना ॥ बुधि प्रगास प्रगट भई उलटि कमलु बिगसना ॥२॥ सीतल सांति संतोखु होइ सभ बूझी त्रिसना ॥ दह दिस धावत मिटि गए निरमल थानि बसना ॥३॥ राखनहारै राखिआ भए भ्रम भसना ॥ नामु निधान नानक सुखी पेखि साध दरसना ॥४॥१३॥४३॥ {पन्ना 811} पद्अर्थ: बासबै = के बसेरे से। कलमल = पाप। सभि = सारे। सेती = साथ। रंगि = प्रेम रंग में। ता ते = उस (प्रेम रंग) के कारण। ते = से, के कारण। गरभि = गर्भ में, जनम मरण के चक्कर में। ग्रसना = फसना।1। सूची = स्वच्छ, पवित्र। रसना = जीभ। निर्मल = साफ, पवित्र। होई है = हो जाते हैं।1। रहाउ। रसु = स्वाद। ध्रापिआ = तृप्त हो गया। मनि = मन में। हसना = खिल उठा। उलटि = (माया के मोह से) पलट के। कमलु = हृदय का कमल फूल। बिगसना = खिल पड़ा।2। सीतल = ठंडा ठार। सभ त्रिसना = सारी प्यास (माया की)। दह दिस = दसों तरफ। धावत = दौड़ भाग। थानि = जगह में।3। राखनहारै = रक्षा कर सकने वाले प्रभू ने। भ्रम = भटकना, भरम वहिम। भसना = भस्म, राख। निधान = खजाने। पेखि = देख के। साध दरसना = गुरू का दर्शन।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपने से (मनुष्य की) जीभ पवित्र हो जाती है। गुरू का (बताया हुआ हरी नाम का) जाप-जपने से मन पवित्र हो जाता है, शरीर पवित्र हो जाता है।1। रहाउ। हे भाई! गुरू की संगति में टिके रहने से सारे पाप दूर हो जाते हैं। (साध-संगत की बरकति से) परमात्मा से (सांझ बनने से) परमात्मा के प्रेम-रंग में रंग जाते हैं, जिसके कारण जनम-मरण के चक्कर में नहीं फसते।1। (हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा के नाम का रस चखने से (माया की लालच से) तृप्त हो जाते हैं, परमात्मा का नाम-रस मन में बसा के सदा खिले रहा जाता है। बुद्धि में (सही जीवन मार्ग का) प्रकाश हो जाता है, बुद्धि उज्जवल हो जाती है। हृदय-कमल (माया के मोह की ओर से) पलट के सदा खिला रहता है।2। (हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम का जाप करने से मनुष्य का मन) ठंडा-ठार हो जाता है, (मन में) शांति और संतोख पैदा हो जाते हैं, माया वाली सारी तृष्णा समाप्त हो जाती है। (माया की खातिर) दसों दिशाओं में (सारे जगत में) दौड़-भाग मिट जाती है, (प्रभू के चरणों में) पवित्र स्थल पर निवास हो जाता है।3। हे नानक! रक्षा करने में समर्थ प्रभू ने जिस मनुष्य की (विकारों से) रक्षा की, उसकी सारी ही भटकनें (जल के) राख हो गई। गुरू का दर्शन करके उस मनुष्य ने परमात्मा का नाम प्राप्त कर लिया (जो मानो, दुनिया के सारे ही) खजाने (हैं), (और नाम की बरकति से वह सदा के लिए) सुखी हो गया।4।13।43। बिलावलु महला ५ ॥ पाणी पखा पीसु दास कै तब होहि निहालु ॥ राज मिलख सिकदारीआ अगनी महि जालु ॥१॥ संत जना का छोहरा तिसु चरणी लागि ॥ माइआधारी छत्रपति तिन्ह छोडउ तिआगि ॥१॥ रहाउ ॥ संतन का दाना रूखा सो सरब निधान ॥ ग्रिहि साकत छतीह प्रकार ते बिखू समान ॥२॥ भगत जना का लूगरा ओढि नगन न होई ॥ साकत सिरपाउ रेसमी पहिरत पति खोई ॥३॥ साकत सिउ मुखि जोरिऐ अध वीचहु टूटै ॥ हरि जन की सेवा जो करे इत ऊतहि छूटै ॥४॥ सभ किछु तुम्ह ही ते होआ आपि बणत बणाई ॥ दरसनु भेटत साध का नानक गुण गाई ॥५॥१४॥४४॥ {पन्ना 811} पद्अर्थ: पीसु = पीसना। दास कै = प्रभू के सेवक के घर में। निहालु = आनंद भरपूर। मिलख = भूमि (की मल्कियत)। जालु = जला के।1। छोहरा = लड़का, नौकर। छत्रपति = राजा, छत्र के मालिक।1। रहाउ। दाना = अन्न। सरब = सारे। निधान = खजाने। ग्रिहि = घर में। साकत = प्रभू से टूटा हुआ मनुष्य। ग्रिहि साकत = साकत के घर में। छतीह प्रकार = छक्तिस किस्मों के (भोजन)। बिखु = जहर। समान = बराबर, जैसे।2। लूगरा = फटी हुई लोई। ओढि = पहन के। पिरपाउ = सिरोपा। पति = इज्जत। खोई = गवा ली।3। सिउ = साथ। मुखि जोरिअै = अगर मुँह जोड़ा जाय, अगर मेल जोल रखा जाए। इत ऊतहि = इत ही उत ही, इस लोक में भी परलोक में भी।4। ते = से। बणत = रचना। दरसनु भेटत = दर्शन करते हुए। भेटत = मिल के, परसने से। साधू = गुरू। गाई = मैं गाऊँ।5। अर्थ: हे भाई! जो गुरमुख मनुष्यों का नौकर हो, उसके चरणों में लगा कर। (हे भाई!) मैं तो (जो) बड़े-बड़े धनाढ राजे (हों) उनका साथ छोड़ने को तैयार होऊँगा (पर संतजनों के सेवकों के चरणों में रहना पसंद करूँगा)।1। हे भाई! प्रभू के भगत के घर में पानी (ढोया कर), पंखा (फेरा कर), (आटा) पीसा) कर, तब ही तू आनंद भोगेगा। दुनियाँ की हकूमतें, जमीनों की मल्कियत, सरदारियाँ - इन को आग में जला के (इन का लालच छोड़ दे)।1। हे भाई! गुरमुखों के घर की रूखी रोटी (अगर मिले तो उसको दुनिया के) सारे खजाने (समझ)। पर परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य के घर में (यदि) कई किस्म के भोजन (मिलें, तो) उसे जहर जैसा समझ।2। हे भाई! प्रभू की भक्ति करने वाले मनुष्यों से अगर फटा हुआ कपड़े का टुकड़ा भी मिल जाए, तो उसे पहन के नंगा होने का डर नहीं रहता। प्रभू से टूटे हुए मनुष्य से अगर रेशमी सिरोपा भी मिले, उसके पहनने से अपनी इज्जत गवा लेते हैं।3। हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य से मेल-जोल रखने से वह मेल-जोल (सिरे नहीं चढ़ता) अध-बीच में ही टूट जाता है। जो मनुष्य प्रभू की भक्ति करने वाले बंदों की सेवा करता है, वह इस लोक में भी और परलोक में भी (झगड़ों-बखेड़ों से) बचा रहता है।4। (पर, हे प्रभू! जीवों के भी क्या वश? जीवों का ) हरेक काम तेरी प्रेरणा से ही होता है। तूने स्वयं ही ये सारी खेल रची हुई है। हे नानक! (अरदास कर, और कह- हे प्रभू! मेहर कर) मैं गुरू के दर्शन करके (गुरू की संगति में रह के सदा) तेरे गुण गाता रहूँ।5।14।44। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |