श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 813 बिलावलु महला ५ ॥ महा तपति ते भई सांति परसत पाप नाठे ॥ अंध कूप महि गलत थे काढे दे हाथे ॥१॥ ओइ हमारे साजना हम उन की रेन ॥ जिन भेटत होवत सुखी जीअ दानु देन ॥१॥ रहाउ ॥ परा पूरबला लीखिआ मिलिआ अब आइ ॥ बसत संगि हरि साध कै पूरन आसाइ ॥२॥ भै बिनसे तिहु लोक के पाए सुख थान ॥ दइआ करी समरथ गुरि बसिआ मनि नाम ॥३॥ नानक की तू टेक प्रभ तेरा आधार ॥ करण कारण समरथ प्रभ हरि अगम अपार ॥४॥१९॥४९॥ {पन्ना 813} पद्अर्थ: तपति = (विकारों की) तपश। सांति = शांति, शीतलता। परसत = छूते हुए। अंध कूप = अंधेरा कूआँ। दे = दे के।1। ओइ = (शब्द 'ओह' का बहुवचन) वह संत जन। साजना = सज्जन, मित्र। रेन = चरण धूड़। भेटत = मिलने से। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। देन = देते हैं।1। रहाउ। परा पूरबला = बहुत जन्मों का। अब = अब जब हरी साधु मिल गया है। संगि = साथ। हरि साध कै संगि = प्रभू के भक्त के साथ। आसाइ = आशाएं।2। भै = ('भउ' का बहुवचन) सारे डर। तिहु लोक के = तीनों भवनों के, सारे जगत के। सुख थान = सुख देने वाली जगह, साध-संगति। गुरि = गुरू ने। समरथ = सब कुछ कर सकने वाला। मनि = मन में।3। टेक = ओट, सहारा। प्रभ = हे प्रभू! आधार = आसरा। करण कारण = जगत का कारण, जगत का मूल। अगम = अपहुँच। अपार = बेअंत।4। अर्थ: हे भाई! जिनको मिलने से (मेरा मन) आनंद से भर जाता है, जो (मुझे) आत्मिक जीवन की दाति देते हैं, वह (संतजन ही) मेरे (असल) मित्र हैं, मैं उनके चरणों की धूड़ (की चाहत रखता) हूँ।1। रहाउ। हे भाई! (उन संत जनों के पैर) परसने से सारे पाप नाश हो जाते हैं, मन में विकारों की भारी तपश से शांति बनी रहती है। जो मनुष्य (विकारों-पापों के) घोर अंधेरे कूएं में गल-सड़ रहे होते हैं, उनको (वे संत-जन अपना) हाथ दे के (उस कूएं में से) निकाल लेते हैं।1। हे भाई! इस मानस जन्म में (जब किसी मनुष्य को कोई संतजन मिल जाता है, तब) बड़े पूर्बले जन्मों से उसके माथे पर लेख उघड़ पड़ते हैं। प्रभू के सेवक-जन की संगति में बसते हुए (उस मनुष्य की) सारी आशाएं पूरी हो जाती है।2। हे भाई! सब कुछ कर सकने वाले गुरू ने जिस मनुष्य पर दया की, उसके मन में प्रभू का नाम बस पड़ता है, सारे जगत को डराने वाले (उसके) सारे डर नाश हो जाते हैं (क्योंकि गुरू की कृपा से) उसको सुखों का ठिकाना (साध-संगति) मिल जाता है।3। हे जगत के मूल प्रभू! हे सारी ताकतों के मालिक प्रभू! हे अपहुँच हरी! हे बेअंत हरी! नानक की तू ही ओट है, नानक का तू ही आसरा है (मुझे नानक को भी गुरू मिला, संत जन मिला)।4।19।49। बिलावलु महला ५ ॥ सोई मलीनु दीनु हीनु जिसु प्रभु बिसराना ॥ करनैहारु न बूझई आपु गनै बिगाना ॥१॥ दूखु तदे जदि वीसरै सुखु प्रभ चिति आए ॥ संतन कै आनंदु एहु नित हरि गुण गाए ॥१॥ रहाउ ॥ ऊचे ते नीचा करै नीच खिन महि थापै ॥ कीमति कही न जाईऐ ठाकुर परतापै ॥२॥ पेखत लीला रंग रूप चलनै दिनु आइआ ॥ सुपने का सुपना भइआ संगि चलिआ कमाइआ ॥३॥ करण कारण समरथ प्रभ तेरी सरणाई ॥ हरि दिनसु रैणि नानकु जपै सद सद बलि जाई ॥४॥२०॥५०॥ {पन्ना 813} पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। मलीन = मैला, गंदा। दीनु = कंगाल। हीनु = नीच। आपु = अपने आप को। गनै = समझता है। बिगाना = बे ज्ञाना, मूर्ख।1। तदे = तब ही। जदि = जब। चिति = चिक्त में। प्रभ चिति आऐ = प्रभू चिक्त आने से। गाऐ = गाता है।1। रहाउ। ते = से। खिन महि = तुरंत। थापै = गद्दी पर बैठा देता है, इज्जत वाला बना देता है। ठाकुर परतापै = ठाकुर के प्रताप की।2। लीला = खेल तमाशे। सुपने का सुपना भइआ = जो चीज़ थी ही सपना, वह आखिर में सपना ही बन गई। संगि = साथ। कमाइआ = किए हुए कर्म।3। करण कारण = हे जगत के रचनहार! करण = जगत। दिनसु रैणि = दिन रात। नानकु जपै = नानक जपता है (शब्द 'नानकु' और 'नानक' में फर्क है)। सद सद = सदा ही। बलि जाई = सदके जाता है।4। अर्थ: (हे भाई! मनुष्य को) तब ही दुख होता है जब इसे परमात्मा भूल जाता है। परमात्मा के मन में बसने से (हमेशा) सुख प्रतीत होता है। प्रभू का सेवक सदा प्रभू के गुण गाता रहता है। सेवक के हृदय में ये आनंद टिका रहता है।1। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा भूल जाता है, वही मनुष्य गंदा है, कंगाल है, नीच है। वह मूर्ख मनुष्य अपने आप को (कोई बड़ी हस्ती) समझता रहता है, सब कुछ करने के समर्थ प्रभू को कुछ समझता नहीं।1। (पर, हे भाई! याद रख) परमात्मा ऊँचे (घमण्डी, अकड़वाले) से नीचा बना देता है, और नीचों को एक पल में इज्जत वाले बना देता है। उस परमात्मा के प्रताप का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।2। (हे भाई! दुनिया के) खेल-तमाशे (दुनिया के) रंग-रूप देखते-देखते (ही मनुष्य के दुनिया से) चलने के दिन आ पहुँचते हैं। इन रंग-तमाशों से तो साथ खत्म ही होना था, वह साथ खत्म हो जाता है, मनुष्य के साथ तो किए हुए कर्म ही जाते हैं।3। हे जगत के रचनहार प्रभू! हे सारी ताकतों के मालिक प्रभू! (तेरा दास नानक) तेरी शरण आया है। हे हरी! नानक दिन-रात (तेरा ही नाम) जपता है, तुझसे ही सदा-सदा सदके जाता है।4।20।50। बिलावलु महला ५ ॥ जलु ढोवउ इह सीस करि कर पग पखलावउ ॥ बारि जाउ लख बेरीआ दरसु पेखि जीवावउ ॥१॥ करउ मनोरथ मनै माहि अपने प्रभ ते पावउ ॥ देउ सूहनी साध कै बीजनु ढोलावउ ॥१॥ रहाउ ॥ अम्रित गुण संत बोलते सुणि मनहि पीलावउ ॥ उआ रस महि सांति त्रिपति होइ बिखै जलनि बुझावउ ॥२॥ जब भगति करहि संत मंडली तिन्ह मिलि हरि गावउ ॥ करउ नमसकार भगत जन धूरि मुखि लावउ ॥३॥ ऊठत बैठत जपउ नामु इहु करमु कमावउ ॥ नानक की प्रभ बेनती हरि सरनि समावउ ॥४॥२१॥५१॥ {पन्ना 813} पद्अर्थ: ढोवउ = मैं ढोऊँ। इह सीस करि = इस सीस से। कर = हाथों से (कर्ण कारक, बहुवचन)। पग = (बहुवचन) दोनों पैरों से। पखलावउ = मैं धोऊँ। बारि जाउ = मैं कुर्बान जाऊँ। बेरीआ = बारी। पेखि = देख के। जीवावउ = (मैं अपने अंदर) आत्मिक जीवन पैदा करूँ।1। करउ = करूँ। मनोरथ = जरूरत, मांग। ते = से। पावउ = पाऊँ। देउ = मैं दूँ। सूहनी = झाड़ू। साध कै = गुरू के घर में। बीजनु = पंखा। ढोलावउ = (पंखा) झलूँ।1। रहाउ। अंम्रित गुण = आत्मिक जीवन देने वाले हरी गुण। सुणि = सुन के। मनहि = मन को। पीवावउ = पिलाऊँ। साति = शांति। त्रिपति = तृप्ति। बिखै जलनि = विषयों की जलन। बुझावउ = बुझाऊँ।2। करहि = करते हैं। संत मंडली = सत्संगी। मिलि = मिल के। गावउ = गाऊँ। मुखि = मुँह पर। लावउ = लगाऊँ।3। जपउ = जपूँ। करमु = कर्म। कमावउ = मैं करूँ। प्रभ = हे प्रभू! समावउ = मैं लीन रहूँ।4। अर्थ: (हे भाई! मेरी सदा यही आरजू है कि) मैं जो भी माँग अपने मन में करूँ, वह माँग मैं अपने परमात्मा से प्राप्त कर लूँ, मैं गुरू के घर में (साध-संगति में) झाड़ू दिया करूँ और पंखा झला करूँ।1। रहाउ। (हे भाई! मेरी यह तमन्ना है कि गुरू के घर में) मैं अपने सिर पर पानी ढोया करूँ, और अपने हाथों से (संत जनों के) पैर धोया करूँ। मैं लाखों बार (गुरू से) सदके जाऊँ और (गुरू की संगति के) दर्शन करके (अपने अंदर) आत्मिक जीवन पैदा करता रहूँ।1। (हे भाई! मेरी ये अरदास है कि साध-संगति में) संत जन परमात्मा के आत्मिक जीवन देने वाले जो गुण उचारते हैं, उनको सुन के मैं अपने मन को (नाम अमृत) पिलाया करूँ, (नाम अमृत के) उस स्वाद में (मेरे अंदर) शांति और (तृष्णा से) तृप्ति पैदा हो, (नाम-अमृत की सहायता से) मैं (अपने अंदर से) विषियों की जलन बुझाता रहूँ।2। (हे भाई! मेरी यही अरदास है कि) जब संत जन साध-संगति में बैठ के परमात्मा की भक्ति करते हैं, उनके साथ मिल के मैं भी परमात्मा के गुण गान करूँ, मैं संतजनों के आगे सिर झुकाया करूँ, और उनके चरणों की धूड़ (अपने) माथे पर लगाया करूँ।3। हे प्रभू! (तेरे दर पर) नानक की यही विनती है कि उठते-बैठते (हर वक्त) मैं (तेरा) नाम जपा करूँ, मैं इस काम को (ही श्रेष्ठ जान के नित्य) करा करूँ, और, हे हरी! मैं तेरे ही चरणों में लीन रहूँ4।21।51। बिलावलु महला ५ ॥ इहु सागरु सोई तरै जो हरि गुण गाए ॥ साधसंगति कै संगि वसै वडभागी पाए ॥१॥ सुणि सुणि जीवै दासु तुम्ह बाणी जन आखी ॥ प्रगट भई सभ लोअ महि सेवक की राखी ॥१॥ रहाउ ॥ अगनि सागर ते काढिआ प्रभि जलनि बुझाई ॥ अम्रित नामु जलु संचिआ गुर भए सहाई ॥२॥ जनम मरण दुख काटिआ सुख का थानु पाइआ ॥ काटी सिलक भ्रम मोह की अपने प्रभ भाइआ ॥३॥ मत कोई जाणहु अवरु कछु सभ प्रभ कै हाथि ॥ सरब सूख नानक पाए संगि संतन साथि ॥४॥२२॥५२॥ {पन्ना 813-814} पद्अर्थ: सागरु = समुंद्र। सोई = वही मनुष्य। कै संगि = के साथ। वसै = बसता है। वडभागी = बड़े भाग्यों वाला मनुष्य।1। सुणि = सुन के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। तुम् जन = तुम्ह जन, तेरे जनों ने। लोअ महि = लोक में, जगत में। राखी = बचाई हुई इज्जत।1। रहाउ। ते = से, में से। अगनि = आग। प्रभि = प्रभू ने। जलनि = जलन। संचिआ = छिड़का।2। सिलक = फाही। प्रभ भाइआ = प्रभू को प्यारा लगा।3। सभ = सारी (जीवन जुगति)। हाथि = हाथ में। साथि = साथ में। संगि = साथ।4। अर्थ: हे प्रभू! तेरे सेवक तेरी सिफत-सालाह की जो बाणी उचारते हैं, तेरा दास उस बाणी को हर वक्त सुन-सुन के आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। (इस तरह विकारों से बचा के) तू अपने सेवक की जो इज्जत रखता है वह सारे संसार में प्रकट हो जाती है।1। रहाउ। (हे भाई! ये जगत, मानो, एक समुंद्र है जिसमें विकारों का पानी भरा पड़ा है) इस समुंद्र में से वही मनुष्य पार लांघता है, जो परमात्मा के सिफत-सालाह के गीत गाता रहता है, जो साध-संगति के साथ मेल-जोल रखता है। (पर यह दाति) कोई भाग्यशाली मनुष्य ही प्राप्त करता है।1। (हे भाई! जिस सेवक ने सिफत-सालाह की बाणी सुन के आत्मिक जीवन प्राप्त कर लिया) परमात्मा ने खुद उसको (विकारों की) आग के समुंद्र में से निकाल लिया, परमात्मा ने स्वयं (उसके अंदर से विकारों की जलन) शांत कर दी। सतिगुरू जी ने उस सेवक की सहायता की, और (उसके हृदय में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल छिड़का।2। (हे भाई! जिस सेवक ने सिफत-सालाह की बाणी सुन-सुन के आत्मिक जीवन पा लिया) उसने जनम-मरण के चक्कर का दुख काट लिया, उसने वह (आत्मिक) ठिकाना पा लिया जहाँ सुख ही सुख है, उसने (अपने अंदर से) भटकना और मोह की फाही काट ली, वह सेवक अपने प्रभू को प्यारा लगने लग पड़ा।3। (पर, हे भाई!) कहीं यह ना समझ लेना (कि ऐसा आत्मिक) आनंद लेने के लिए हमारा (जीवों का) और कोई चारा चल सकता है (यकीन से जानो कि) हरेक जुगति परमात्मा के (अपने) हाथ में है। हे नानक! वही सेवक सारे सुख प्राप्त करता है जो संत-जनों की संगति में रहता है जो संतजनों के साथ रहता है।4।22।52। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |