श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ५ ॥ बंधन काटे आपि प्रभि होआ किरपाल ॥ दीन दइआल प्रभ पारब्रहम ता की नदरि निहाल ॥१॥ गुरि पूरै किरपा करी काटिआ दुखु रोगु ॥ मनु तनु सीतलु सुखी भइआ प्रभ धिआवन जोगु ॥१॥ रहाउ ॥ अउखधु हरि का नामु है जितु रोगु न विआपै ॥ साधसंगि मनि तनि हितै फिरि दूखु न जापै ॥२॥ हरि हरि हरि हरि जापीऐ अंतरि लिव लाई ॥ किलविख उतरहि सुधु होइ साधू सरणाई ॥३॥ सुनत जपत हरि नाम जसु ता की दूरि बलाई ॥ महा मंत्रु नानकु कथै हरि के गुण गाई ॥४॥२३॥५३॥ {पन्ना 814}

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभू ने। किरपाल = (कृपा+आलय) दयावान। नदरि = निगाह। निहाल = आनंद भरपूर।1।

गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। सीतलु = ठंडा, शांत। धिआवन जोगु = जिस का ध्यान धरना चाहिए1। रहाउ।

अउखधु = दवा। जितु = जिस (दवा) के द्वारा। न विआपै = जोर नहीं डाल सकता। साध संगि = गुरू की संगति में। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। हितै = (नाम दवा) प्यारी लगती है। न जापै = प्रतीत नहीं होता।2।

जापीअै = जपना चाहिए। अंतरि = (मन के) अंदर। लाई = लगा के। किलविख = (सारे) पाप। सुधु = पवित्र। साध = गुरू।3।

जसु = शोभा, वडिआई। नाम जसु = नाम की वडिआई, नाम का यश। ता की = उस (मनुष्य) की। बलाई = बला, बिपता। महा मंत्र = सबसे बड़ा मंत्र। गाई = गाता है।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर पूरे गुरू ने कृपा कर दी, ध्यान-करने-योग्य प्रभू का ध्यान धर के उस मनुष्य का (हरेक) दुख (हरेक) रोग दूर हो जाता है, उसका मन, उसका हृदय ठंडाठार हो जाता है, वह मनुष्य सुखी हो जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई! जिस मनुष्य पर पूरे गुरू ने कृपा कर दी) प्रभू ने खुद (उसके सारे) बंधन काट दिए, प्रभू उस मनुष्य पर दयावान हो गया। (हे भाई!) प्रभू पारब्रहम दीनों पर दया करने वाला है (जिस भी गरीब पर प्रभू निगाह करता है) वह मनुष्य उस (प्रभू) की निगाह से आनंद-भरपूर हो जाता है।1।

हे भाई! परमात्मा का नाम (एक ऐसी) दवा है जिसकी बरकति से (कोई भी) रोग जोर नहीं डाल सकता। जब गुरू की संगति में टिक के (मनुष्य के) मन में तन में (हरी नाम) प्यारा लगने लग जाता है, तब (मनुष्य को) कोई दुख महसूस नहीं होता।2।

हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर अपने अंदर सुरति जोड़ कर, सदा परमात्मा का नाम जपते रहना चाहिए। (इस तरह सारे) पाप (मन से) उतर जाते हैं, (मन) पवित्र हो जाता है।3।

हे भाई! नानक (एक) सबसे बड़ा मंत्र बताता है (मंत्र ये है कि जो मनुष्य) परमात्मा के गुण गाता रहता है, परमात्मा के नाम की महिमा सुनते और जपते हुए उस मनुष्य की हरेक बला (विपदा) दूर हो जाती है।4।23।53।

बिलावलु महला ५ ॥ भै ते उपजै भगति प्रभ अंतरि होइ सांति ॥ नामु जपत गोविंद का बिनसै भ्रम भ्रांति ॥१॥ गुरु पूरा जिसु भेटिआ ता कै सुखि परवेसु ॥ मन की मति तिआगीऐ सुणीऐ उपदेसु ॥१॥ रहाउ ॥ सिमरत सिमरत सिमरीऐ सो पुरखु दातारु ॥ मन ते कबहु न वीसरै सो पुरखु अपारु ॥२॥ चरन कमल सिउ रंगु लगा अचरज गुरदेव ॥ जा कउ किरपा करहु प्रभ ता कउ लावहु सेव ॥३॥ निधि निधान अम्रितु पीआ मनि तनि आनंद ॥ नानक कबहु न वीसरै प्रभ परमानंद ॥४॥२४॥५४॥ {पन्ना 814}

पद्अर्थ: ते = से। भै ते = (संबंधक के साथ 'भउ' से शब्द 'भै' बन जाता है। भउ = डर, अदब, निर्मल डर) निरमल डर की बरकति से। अंतरि = अंदर, हृदय में। भ्रांति = भटकना।1।

जिस = जिस (मनुष्य) को। भेटिआ = मिल गया। ता के = उस के (हृदय) में। सुखि = सुख ने।1। रहाउ।

सिमरत सिमरत = हर वक्त सिमरते हुए। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू। मन ते = मन से।2।

सिउ = साथ। रंगु = प्यारा। जा कउ = जिसको, जिस (मनुष्य) पर। प्रभ = हे प्रभू!।3।

निधि = (दुनिया के सारे) खजाने। निधान = खजाने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मनि = मन में। तनि = तन में। परमानंद = (परम+आनंद) सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभू।4।

अर्थ: हे भाई! अपने मन की मति छोड़ देनी चाहिए, (गुरू का) उपदेश सुनना चाहिए। जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल जाता है, (विश्वास कीजिए कि) उस (मनुष्य) के हृदय में सुख ने प्रवेश कर लिया है।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरू की कृपा से परमात्मा का निर्मल डर हृदय में पैदा हो जाता है, उस) भय-अदब के द्वारा प्रभू की भक्ति (हृदय में) पैदा होती है, और मन में ठंड पड़ जाती है। हे भाई! परमात्मा का नाम जपते-जपते (हरेक किस्म की) भ्रम-भटकना नाश हो जाती है।1।

हे भाई! सब दातें बख्शने वाले उस सर्व-व्यापक प्रभू को हर वक्त ही सिमरते रहना चाहिए। (हे भाई! ख़्याल रख कि) वह अकाल पुरख कभी भी मन से ना बिसरे।2।

हे भाई! गुरू की यह आश्चर्यजनक महिमा है कि उसकी कृपा से परमात्मा के सुंदर चरणों से प्रीति बन जाती है। हे प्रभू! जिस मनुष्य पर तू कृपा करता है (उसको गुरू मिलाता है और उसको) तू अपनी सेवा-भक्ति में लगा लेता है।3।

(हे भाई! गुरू की कृपा से जिस मनुष्य ने) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी लिया (जो) सारे खजानों का खजाना है, (उस मनुष्य के) मन में हृदय में खुशी भरी रहती है। हे नानक! (ख़्याल रख कि) सबसे ऊँचे आनंद का मालिक परमात्मा कभी भी (मन से) बिसर ना जाए।4।24।54।

बिलावलु महला ५ ॥ त्रिसन बुझी ममता गई नाठे भै भरमा ॥ थिति पाई आनदु भइआ गुरि कीने धरमा ॥१॥ गुरु पूरा आराधिआ बिनसी मेरी पीर ॥ तनु मनु सभु सीतलु भइआ पाइआ सुखु बीर ॥१॥ रहाउ ॥ सोवत हरि जपि जागिआ पेखिआ बिसमादु ॥ पी अम्रितु त्रिपतासिआ ता का अचरज सुआदु ॥२॥ आपि मुकतु संगी तरे कुल कुट्मब उधारे ॥ सफल सेवा गुरदेव की निरमल दरबारे ॥३॥ नीचु अनाथु अजानु मै निरगुनु गुणहीनु ॥ नानक कउ किरपा भई दासु अपना कीनु ॥४॥२५॥५५॥ {पन्ना 814}

पद्अर्थ: ममता = अपनत्व (मम = मेरा। ममता = ये आकर्षण कि माया मेरी हो जाए)। भै = ('भउ' का बहुवचन) सारे डर। भरमा = वहिम। थिति = (स्थिति) शांति, टिकाव। गुरि = गुरू ने। कीने धरमा = (सहायता करने का) नियम निबाह दिया है।1।

मेरी पीर = ममता का दुख। सीतलु = शांत। बीर = हे भाई!।1।

सोवत = माया के मोह में सोया हुआ। जपि = जप के। बिसमादु = आश्चर्य रूप प्रभू। पी = पी कर। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ता का = उस (अमृत) का।2।

मुकतु = (माया के बंधनों से) आजाद। संगी = साथी। निरमल दरबारे = पवित्र हजूरी में।3।

अजानु = अंजान। नानक कउ = नानक को, नानक पर। कीनु = बना लिया।4।

अर्थ: हे भाई! (जिस भी मनुष्य ने) पूरे गुरू का आसरा लिया है। उसका (माया की) ममता वाला दुख दूर हो जाता है। उसका मन उसका तन ठंडा-ठार हो जाता है, उसको आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू का आसरा लिया) गुरू ने उसकी सहायता करने का नेम-निर्वाह दिया, (उसके अंदर से माया की) तृष्णा मिट गई, (माया की) ममता दूर हो गई, उसके सारे डर-वहिम भाग गए, उसने आत्मिक अडोलता हासिल कर ली, उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो गया।1।

(हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू का पल्ला पकड़ा, माया के मोह में) सोया हुआ उसका मन परमात्मा का नाम जप के जाग पड़ा, उसने (हर जगह) आश्चर्य-रूप परमात्मा के दर्शन कर लिए। आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (अमृत) पी के उसका मन (माया की ओर से) तृप्त हो गया। हे भाई! उस नाम-अमृत का स्वाद है ही आश्चर्य भरा।2।

(हे भाई! गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य) खुद (माया के बँधनों से) आजाद हो जाता है, उसके साथी भी (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं, वह मनुष्य अपनी कुलों को, अपने परिवार को पार लंघा लेता है। गुरू की की हुई सेवा उसे फलदायक साबित हो जाती है, (प्रभू की) पवित्र हजूरी में (उसे जगह मिल जाती है)।3।

हे भाई! मैं नीच था, अनाथ था, अंजान था, मेरे अंदर कोई गुण नहीं थे, मैं गुणों से वंचित था (पर, गुरू की शरण पड़ने के कारण, मुझ) नानक पर परमात्मा की मेहर हुई, परमात्मा ने मुझे अपना सेवक बना लिया।4।25।55।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh