श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ५ ॥ जिनि तू बंधि करि छोडिआ फुनि सुख महि पाइआ ॥ सदा सिमरि चरणारबिंद सीतल होताइआ ॥१॥ जीवतिआ अथवा मुइआ किछु कामि न आवै ॥ जिनि एहु रचनु रचाइआ कोऊ तिस सिउ रंगु लावै ॥१॥ रहाउ ॥ रे प्राणी उसन सीत करता करै घाम ते काढै ॥ कीरी ते हसती करै टूटा ले गाढै ॥२॥ अंडज जेरज सेतज उतभुजा प्रभ की इह किरति ॥ किरत कमावन सरब फल रवीऐ हरि निरति ॥३॥ हम ते कछू न होवना सरणि प्रभ साध ॥ मोह मगन कूप अंध ते नानक गुर काढ ॥४॥३०॥६०॥ {पन्ना 816}

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तू = तुझे। बंधि करि छोडिआ = बाँध के रखा हुआ था (माँ के पेट में)। फुनि = फिर (माँ के पेट में से निकाल के)। चरणारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरविंद = कमल का फूल) कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। शीतल = शांत चिक्त। होताइआ = हो जाते हैं।

अथवा = और। जीवतिआ = जीते जी, इस लोक में। मुइआ = मरणोंपरांत, परलोक में। कामि = काम। तिस कोऊ = कोई विरला। सिउ = साथ। रंगु = प्रेम।1। रहाउ।

उसन = गरमी। सीत = ठंडक। करता = करतार। घाम ते = तपश से। कीरी = कीड़ी। ते = से। हस्ती = हाथी। ले = ले कर (अपने चरणों के साथ लगा कर)।2।

अंडज = अण्डे से पैदा हुए जीव, (पंछी आदि)। जेरज = जिउर से पैदा हुए (मनुष्य और पशू)। सेतज = (सैत = पसीना) पसीने से पैदा हुए (जूआँ आदि)। उतभुजा = पानी की मदद से धरती में से पैदा हुए (बनस्पति)। किरति = रचना। निरति = (नि+रति। रति = प्यार, मोह) निर्मोही हो के।3।

हम ते = हम (जीवों) से। प्रभ = हे प्रभू! सरणि साध = गुरू की शरण (रख)। मगन = डूबे हुए। कूप = कूआँ। अंध = अंधा। गुर = हे गुरू!।4।

अर्थ: (हे भाई! जो माया) इस लोक में और परलोक में कहीं भी साथ नहीं निभाती (जीव सदा ही उसके साथ मोह डाले रखता है)। जिस परमात्मा ने ये सारा जगत पैदा किया है, उसके साथ कोई विरला मनुष्य ही प्यार बनाता है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे (पहले माँ के पेट में) बाँध के रखा हुआ था, फिर (माँ के पेट में से निकाल के जगत में ला के जगत के) सुखों में ला फसाया है, उसके सुंदर चरण सदा सिमरता रह। (इस तरह सदा) शांत-चिक्त रह सकते हैं।1।

हे भाई! (विकारों की) गर्मी और (नाम की) ठंडक परमात्मा स्वयं ही बनाता है, वह (खुद ही विकारों की) तपश में से निकालता है। वह प्रभू कीड़ी (नाचीज जीव से) हाथी (विशालकाय आदर सम्मान वाला) बना देता है, (अपने चरणों से) टूटे हुए जीव को वह खुद ही (बाँह से) पकड़ कर (अपने चरणों से) बाँध लेता है (उसीकी शरण पड़ा रह)।2।

(हे भाई! दुनिया में) अंडे से पैदा हुए जीव, जिओर से पैदा हुए जीव, पसीने से पैदा हुए जीव, सारी बनस्पति - ये सारी परमात्मा की ही पैदा की हुई रचना है। उस परमात्मा का नाम (इस रचना से) निर्मोह रह के सिमरना चाहिए- ये कमाई करने से (जीवन के) सारे मनोरथ पूरे हो जाते हैं।3।

हे प्रभू! हम जीवों से तो कुछ भी नहीं हो सकता (हमें) गुरू की शरण डाले रख। हे नानक! (अरदास किया कर-) हे गुरू! हम जीव माया के मोह में डूबे रहते हैं, (हमें मोह के इस) अंधेरे कूएं में से निकाल ले।4।3।60।

बिलावलु महला ५ ॥ खोजत खोजत मै फिरा खोजउ बन थान ॥ अछल अछेद अभेद प्रभ ऐसे भगवान ॥१॥ कब देखउ प्रभु आपना आतम कै रंगि ॥ जागन ते सुपना भला बसीऐ प्रभ संगि ॥१॥ रहाउ ॥ बरन आस्रम सासत्र सुनउ दरसन की पिआस ॥ रूपु न रेख न पंच तत ठाकुर अबिनास ॥२॥ ओहु सरूपु संतन कहहि विरले जोगीसुर ॥ करि किरपा जा कउ मिले धनि धनि ते ईसुर ॥३॥ सो अंतरि सो बाहरे बिनसे तह भरमा ॥ नानक तिसु प्रभु भेटिआ जा के पूरन करमा ॥४॥३१॥६१॥ {पन्ना 816}

पद्अर्थ: फिरा = फिरूँ, मैं फिरता हूँ। खोजउ = खोजूँ। थान = (अनेकों) जगहें। अछेद = जिसका नाश ना हो सके, अ+छेद।1।

कब = कब? देखउ = देखूँ। कै रंगि = के रंग में। बसीअै = अगर बस सकें।1। रहाउ।

बरन = चार वर्ण (ब्राहमण, खत्री, वैश्य, शूद्र)। आस्रम = चार आश्रम (ब्रहमचर्य, गृहस्त, वानप्रस्थ, सन्यास)। सुनउ = सुनूँ।2।

कहहि = कहते हैं, बताते हैं। जोगीसुर = (जोगी+ईसुर) जोगी राज। करि = कर के। जा कउ = जिस को। ते = वह (बहुवचन)। ईसुर = बड़े मनुष्य।3।

अंतरि = (हरेक जीव के) अंदर। बाहरे = बाहरि, सब से अलग। तह = वहाँ, उसमें (टिकने से)। भेटिआ = मिला। तिसु = उस (मनुष्य) को। करमा = भाग्य।4।

अर्थ: (हे भाई! मुझे हर वक्त ये तमन्ना रहती है कि) अपनी जीवात्मा के चाव से कब मैं अपने (प्यारे) प्रभू को देख सकूँगा। (यदि रात को सोए हुए सपने में भी) प्रभू के साथ बस सकें, तो इस जागते रहने से बेहतर (सोए हुए का वह) सपना भला है।1। रहाउ।

(हे भाई! प्रभू को) ढूँढता-ढूँढता मैं (हर तरफ़) फिरता रहता हूँ, मैं कई जंगल, अनेकों जगहों में खोजता फिरता हॅूँ (पर मुझे प्रभू कहीं भी नहीं मिलता। मैंने सुना है कि वह) भगवान प्रभू जी ऐसे हैं कि उनको माया छल नहीं सकती, वे नाश-रहित हैं, और उनका भेद नहीं पाया जा सकता।1।

(हे भाई! प्रभू के दर्शन करने के लिए) मैं चारों वर्णों और चारों आश्रमों के कर्म करता हूँ, शास्त्रों (के उपदेश भी) सुनता हूँ (पर, दर्शन नहीं होते) दर्शनों की लालसा बनी ही रहती है। (हे भाई!) उस अविनाशी ठाकुर प्रभू का ना कोई रूप, चिन्ह-चक्र है और ना ही वह (जीवों की तरह) पाँच तत्वों का ही बना हुआ है।2।

(हे भाई!) कृपा करके प्रभू स्वयं ही जिनको मिलता है, वह महान जोगी हैं वह बहुत भाग्यवान हैं। वे विरले जोगीराज ही वे संत जन ही (उस प्रभू का) वह स्वरूप बयान करते हैं (कि उसका कोई रूप-रेख नहीं है)।3।

(हे भाई! विरले संतजन ही बताते हैं कि) वह प्रभू सब जीवों के अंदर बसता है, और वह सबसे अलग भी है, उस प्रभू के चरणों में जुड़ने से सारे भ्रम-वहिम नाश हो जाते हैं। हे नानक! जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जाग उठते हैं उसको वह प्रभू (स्वयं ही) मिल जाता है।4।31।61।

बिलावलु महला ५ ॥ जीअ जंत सुप्रसंन भए देखि प्रभ परताप ॥ करजु उतारिआ सतिगुरू करि आहरु आप ॥१॥ खात खरचत निबहत रहै गुर सबदु अखूट ॥ पूरन भई समगरी कबहू नही तूट ॥१॥ रहाउ ॥ साधसंगि आराधना हरि निधि आपार ॥ धरम अरथ अरु काम मोख देते नही बार ॥२॥ भगत अराधहि एक रंगि गोबिंद गुपाल ॥ राम नाम धनु संचिआ जा का नही सुमारु ॥३॥ सरनि परे प्रभ तेरीआ प्रभ की वडिआई ॥ नानक अंतु न पाईऐ बेअंत गुसाई ॥४॥३२॥६२॥ {पन्ना 816}

पद्अर्थ: जीअ जंत = (वह) सारे जीव। सुप्रसंन = बहुत प्रसन्न, निहाल। देखि = देख के। परताप = प्रताप, वडिआई। करजु = कर्जा, विकारों का भार। करि = कर के। आहरु = उद्यम।1।

खात = खाते हुए। खरचत = बाँटते हुए। निबहत रहै = निर्वाह होता है, उम्र बीतती रहती है। अखूट = कभी ना खत्म होने वाली। समगरी = (कोई स्वादिष्ट पकवान बनाने के लिए आवश्यक) रसद, सामग्री। पूरन भई = जरूरत के मुताबिक पूरी हो जाती है। तूट = तोटि, कमी।1। रहाउ।

साध संगि = गुरू की संगति में। निधि = खजाना। आपार = बेअंत। अरु = और। बार = समय।2।

अराधहि = सिमरते हैं। रंगि = प्रेम में। संचिआर = संचित कर लिया, इकट्ठा कर लिया। जा का = जिस (धन) का। सुमारु = शुमार, अंदाजा।3।

प्रभ = हे प्रभू! गुसाई = धरती का पति।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू का शबद (आत्मिक जीवन के प्रफुल्लित होने के लिए एक ऐसा भोजन है जो) कभी समाप्त नहीं होता। (जिस मनुष्य की उम्र यह भोजन खुद) खाते हुए (और, औरों को) बाँटते हुए गुजरती है, उसके पास (इस) सामग्री के भण्डार भरे रहते हैं, (इस सामग्री में) कभी भी कमी नहीं आती।1। रहाउ।

हे भाई! गुरू ने स्वयं उद्यम करके (जिस-जिस जीव को गुरू-शबद की दाति दे के उनके सिर पर पिछले जन्मों के किए हुए) विकारों का कर्जा (भार) उतार दिया, वे सारे जीव परमात्मा की साक्षात महानता देख के निहाल हो जाते हैं।1।

(इस वास्ते, हे भाई!) गुरू की संगति में टिक के परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए, ये एक ऐसा खजाना है जो कभी समाप्त नहीं होता। (दुनिया में) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष (ये चार ही प्रसिद्ध अमूल्य पदार्थ माने गए हैं। जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है, परमात्मा उसको ये पदार्थ) देते हुए समय नहीं लगाता।2।

हे भाई! गोबिंद गोपाल के भक्त एक-रस प्रेम-रंग में टिक के उसका नाम सिमरते हैं। वह मनुष्य परमात्मा के नाम का धन (इतना) इकट्ठा करते रहते हैं कि उसका अंदाजा नहीं लग सकता।3।

हे प्रभू! (तेरे भक्त तेरी कृपा से) तेरी शरण पड़े रहते हैं। (हे भाई! प्रभू के भक्त) प्रभू की सिफत-सालाह ही करते रहते हैं। हे नानक! जगत के पति प्रभू के गुण बेअंत हैं, उनका अंत नहीं पाया जा सकता।4।32।62।

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरि सिमरि पूरन प्रभू कारज भए रासि ॥ करतार पुरि करता वसै संतन कै पासि ॥१॥ रहाउ ॥ बिघनु न कोऊ लागता गुर पहि अरदासि ॥ रखवाला गोबिंद राइ भगतन की रासि ॥१॥ तोटि न आवै कदे मूलि पूरन भंडार ॥ चरन कमल मनि तनि बसे प्रभ अगम अपार ॥२॥ बसत कमावत सभि सुखी किछु ऊन न दीसै ॥ संत प्रसादि भेटे प्रभू पूरन जगदीसै ॥३॥ जै जै कारु सभै करहि सचु थानु सुहाइआ ॥ जपि नानक नामु निधान सुख पूरा गुरु पाइआ ॥४॥३३॥६३॥ {पन्ना 816-817}

पद्अर्थ: सिमरि = सिमर के। पूरन = सारे गुणों से भरपूर। कारज = (सारे) काम। भऐ रासि = सफल हो जाते हैं। करतार पुरि = करतार के शहर में, उस स्थान में जहाँ करतार सदा बसता है, साधसंगति में। करता = परमात्मा।1। रहाउ।

बिघनु = रुकावट। कोऊ = कोई भी। पहि = पास। राइ = राजा। रासि = राशि।1।

तोटि = कमी। न मूलि = बिल्कुल नहीं। पूरन = भरे हुए। भंडार = खजाने। मनि = मन में। तनि = तन में। अगम = अपहुँच। अपार = बेअंत।2।

बसत = (साधसंगति में, करतार के शहर में) बसते हुए। सभि = सारे। ऊन = कमी, घाटा। संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। भेटे = मिल जाते हैं। जगदीसै = जगत का मालिक।3।

जै जैकारु = शोभा गुणगान, वडिआई। करहि = करते हैं। सचु = सदा कायम रहने वाला। सुहाइआ = सुंदर। जपि = जप के। निधान सुख = सुखों के खजाने।4।

अर्थ: हे भाई! साध-संगति में परमात्मा (स्वयं) बसता है, अपने संतजनों के अंग संग बसता है। (साध-संगति में) सारे गुणों से भरपूर प्रभू (का नाम) सिमर-सिमर के (मनुष्य के) सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! प्रभू पातशाह अपने संत जनों का (हमेशा) स्वयं रखवाला है, प्रभू (का नाम) संत जनों की राशि पूँजी है। (जो भी मनुष्य साध-संगति में आ के) गुरू के दर पर अरदास करते रहते हैं, (उनकी जिंदगी के रास्ते में) कोई रुकावट पैदा नहीं होती।1।

(हे भाई! साध-संगति एक ऐसा स्थान है जहाँ बख्शिशों के) भण्डारे भरे रहते हैं, (वहाँ इस बख्शिशों की) कभी भी कमी नहीं आती। (जो भी मनुष्य साध-संगति में निवास रखता है, उसके) मन में (उसके) हृदय में अपहुँच और बेअंत प्रभू के सुंदर चरण टिके रहते हैं।2।

(हे भाई! जो भी मनुष्य साध-संगति में) निवास रखते हैं और नाम-सिमरन की कमाई करते हैं, वे सारे सुखी रहते हैं, उन्हें किसी बात की कोई कमी नहीं दिखती। गुरू की कृपा से उनको जगत के मालिक पूर्ण प्रभू जी मिल जाते हैं।3।

(हे भाई! जो मनुष्य साध-संगति में टिकते हैं) सारे लोक (उनकी) शोभा-वडिआई करते हैं। साध-संगति एक ऐसा सुंदर स्थान है जो सदा कायम रहने वाला है। हे नानक! (साध-संगति की बरकति से) सारे सुखों के खजाने हरी-नाम को जप के पूरे गुरू का (सदा के लिए) मिलाप हासिल कर लेते हैं।4।33।63।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh