श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ५ ॥ हरि हरि हरि आराधीऐ होईऐ आरोग ॥ रामचंद की लसटिका जिनि मारिआ रोगु ॥१॥ रहाउ ॥ गुरु पूरा हरि जापीऐ नित कीचै भोगु ॥ साधसंगति कै वारणै मिलिआ संजोगु ॥१॥ जिसु सिमरत सुखु पाईऐ बिनसै बिओगु ॥ नानक प्रभ सरणागती करण कारण जोगु ॥२॥३४॥६४॥ {पन्ना 817}

पद्अर्थ: आराधीअै = आराधना करनी चाहिए। होईअै = हुआ जाता है। आरोग = आरोग्य, रोग रहित। लसटीका = लाठी, छड़ी, राज दण्ड। जिनि = जिस (हरी की आराधना) ने। मारिआ = समाप्त कर दिया।1। रहाउ।

जापीअै = जपना चाहिए। नित = सदा। कीचै = कर सकते हैं। भोगु = आत्मिक आनंद। कै वारणै = से सदके। संजोग = मिलाप के अवसर।1।

पाईअै = पा लेते हैं। बिओगु = वियोग, विछोड़ा। सरणागती = शरण पड़ना चाहिए। जोगु = योग्य, समर्थ। करण कारण जोगु = जगत की रचना करने के समर्थ।2।

अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए, (सिमरन की बरकति से विकार आदि) रोगों से रहित हुआ जाता है। ये सिमरन ही श्री रामचंद्र जी की छड़ी है (जिस छड़ी के भय से कोई दुष्ट सिर नहीं उठा सकता था)। इस (सिमरन) ने (हरेक सिमरन करने वाले के अंदर से हरेक) रोग दूर कर दिया है।1। रहाउ।

हे भाई! पूरे गुरू की शरण पड़ना चाहिए और प्रभू का नाम जपना चाहिए। (इस तरह) सदा आत्मिक आनंद भोग सकते हैं। गुरू की संगति से कुर्बान जाना चाहिए (साध-संगति की कृपा से) परमात्मा के मिलाप के अवसर बनते हैं।1।

हे नानक! उस प्रभू की शरण पड़े रहना चाहिए, जो जगत की रचना करने के समर्थ है, जिसका सिमरन करने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है और प्रभू से विछोड़ा दूर हो जाता है।2।34।64।

नोट: ये ऊपर दिए हुए शबदों का संग्रह 34 शबदों का है। इसमें पहले 33 चौपदे (चार पदों वाले शबद) हैं, आखिरी शबद दो पदों वाला है।

रागु बिलावलु महला ५ दुपदे घरु ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अवरि उपाव सभि तिआगिआ दारू नामु लइआ ॥ ताप पाप सभि मिटे रोग सीतल मनु भइआ ॥१॥ गुरु पूरा आराधिआ सगला दुखु गइआ ॥ राखनहारै राखिआ अपनी करि मइआ ॥१॥ रहाउ ॥ बाह पकड़ि प्रभि काढिआ कीना अपनइआ ॥ सिमरि सिमरि मन तन सुखी नानक निरभइआ ॥२॥१॥६५॥ {पन्ना 817}

नोट: दुपदे-दो पदों व दो बंदों वाले शबद।

पद्अर्थ: अवरि = ('अवर' का बहुवचन) और सारे। उपाव = 'उपाउ'का बहुवचन, प्रयत्न। सभि = सारे। दारू = दवा। सीतल = शांति। भइआ = भया, हो गया।1।

आराधिआ = हृदय में बसाया। सगला = सारा। राखनहारै = रक्षा कर सकने वाले प्रभू ने। करि = कर के। मइआ = दया।1। रहाउ।

पकड़ि = पकड़ के। प्रभि = प्रभू ने। अपनइआ = अपना। सिमरि = सिमर के। निरभइआ = निर्भय।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरू को अपने दिल में बसाए रखता है, उसका सारा दुख-कलेश दूर हो जाता है, (क्योंकि) रक्षा करने के समर्थ परमात्मा ने (उस पर) कृपा करके (दुख-कलेशों से सदा) उसकी रक्षा की है।1। रहाउ।

(हे भाई!) जिस मनुष्य ने सिर्फ गुरू का पल्ला पकड़ा है, अन्य सारे हीले-वसीले छोड़ दिए हैं और परमात्मा का नाम (की ही) दवा बरती है, उसके सारे दुख-कलेश, सारे पाप, सारे रोग मिट गए हैं; उसका मन (विकारों की तपश से बच के) ठंडा-ठार हुआ है।1।

(हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू को अपने हृदय में बसाया है) प्रभू ने (उसकी) बाँह पकड़ के उसको अपना बना लिया है। हे नानक! प्रभू का नाम सिमर सिमर के उसका मन उसका हृदय आनंद-भरपूर हो गया है, और उसको (ताप-पाप रोग आदि का) कोई डर नहीं रह जाता।2।1।65।

बिलावलु महला ५ ॥ करु धरि मसतकि थापिआ नामु दीनो दानि ॥ सफल सेवा पारब्रहम की ता की नही हानि ॥१॥ आपे ही प्रभु राखता भगतन की आनि ॥ जो जो चितवहि साध जन सो लेता मानि ॥१॥ रहाउ ॥ सरणि परे चरणारबिंद जन प्रभ के प्रान ॥ सहजि सुभाइ नानक मिले जोती जोति समान ॥२॥२॥६६॥ {पन्ना 817}

पद्अर्थ: करु = हाथ (एक वचन)। धारि = धार के। मसतकि = माथे पर। थापिआ = थापी देनी, आर्शिवाद देना, हल्लाशेरी देनी। दानि = दान के तौर पर। ता की = उस (सेवा) की। हानि = नुकसान।1।

आपे = खुद ही। आनि = लाज, इज्जत। चितवहि = मन में धारते हैं। लेता मानि = मान लेता है।1। रहाउ।

चरणारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरबिंद = कमल का फूल) कमल जैसे सुंदर चरण। प्रान = जिंद (जैसे प्यारे)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। समान = लीन हो जाती है। जोती = परमात्मा।2।

अर्थ: हे भाई! अपने भक्तों की इज्जत परमात्मा खुद ही बचाता है। परमात्मा के भक्त जो कुछ अपने मन में धारते हैं, परमात्मा वही कुछ मान लेता है।1। रहाउ।

हे भाई! (प्रभू अपने भक्तजनों के) माथे पर (अपना) हाथ रख के उनको आर्शिवाद देता है और बख्शिश के तौर पर (उनको अपना) नाम देता है। हे भाई! परमात्मा की की हुई सेवा-भक्ति जीवन-मनोरथ पूरा करती है, ये की हुई सेवा-भक्ती व्यर्थ नहीं जाती।1।

हे भाई! जो संतजन प्रभू के सुंदर चरण-कमलों का आसरा लेते हैं, वे प्रभू को प्राणों के समान प्यारे हो जाते हैं। हे नानक! वह संत जन आत्मिक अडोलता में टिक के प्रेम में टिक के प्रभू के साथ मिल जाते हैं। उनकी जीवात्मा प्रभू की ज्योति में लीन हो जाती है।2।2।66।

नोट: दो बंदों वाले शबदों के इस नए संग्रह का ये दूसरा शबद है।

बिलावलु महला ५ ॥ चरण कमल का आसरा दीनो प्रभि आपि ॥ प्रभ सरणागति जन परे ता का सद परतापु ॥१॥ राखनहार अपार प्रभ ता की निरमल सेव ॥ राम राज रामदास पुरि कीन्हे गुरदेव ॥१॥ रहाउ ॥ सदा सदा हरि धिआईऐ किछु बिघनु न लागै ॥ नानक नामु सलाहीऐ भइ दुसमन भागै ॥२॥३॥६७॥ {पन्ना 817}

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभू ने। ता का = (प्रभू) का।1।

राखनहार = रक्षा करने की समर्थता वाला। ता की सेव = उस (प्रभू) की सेवा = भक्ति। निरमल = पवित्र। रामदास पुरि = राम के दासों के शहर में, सत्संगियों के टिकने वाली जगह में, साध-संगति में। राम राज = रूहानी राज।1। रहाउ।

सालाहीअै = सराहना करनी चाहिए। भाइ = भय, (नाम से) डर से।2।

अर्थ: हे भाई! गुरू ने साध-संगति में रूहानी राज कायम कर दिया है। प्रभू बेअंत और रक्षा करने में समर्थ है, (साध-संगति में टिक के की हुई) उसकी सेवा-भक्ति (जीवन को) पवित्र (बना देती है)।1। रहाउ।

हे भाई! (जिन सेवकों को साध-संगति में) प्रभू ने खुद अपने सुंदर चरण-कमलों का आसरा दिया है, वह सेवक उसका सदा कायम रहने वाला प्रताप देख के उसकी शरण पड़े रहते हैं।1।

हे नानक! (साध-संगति में टिक के) सदा ही परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए (इस तरह जीवन के रास्ते में) कोई रुकावट नहीं पड़ती। परमात्मा के नाम की वडिआई करनी चाहिए (प्रभू के) डर के कारण (कामादिक) सारे वैरी भाग जाते हैं।2।3।67।

बिलावलु महला ५ ॥ मनि तनि प्रभु आराधीऐ मिलि साध समागै ॥ उचरत गुन गोपाल जसु दूर ते जमु भागै ॥१॥ राम नामु जो जनु जपै अनदिनु सद जागै ॥ तंतु मंतु नह जोहई तितु चाखु न लागै ॥१॥ रहाउ ॥ काम क्रोध मद मान मोह बिनसे अनरागै ॥ आनंद मगन रसि राम रंगि नानक सरनागै ॥२॥४॥६८॥ {पन्ना 817-818}

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। आराधीअै = आराधना चाहिए। मिलि = मिल के। साध समागै = साध समागम में, साध-संगति में। उचरत = उचरते हुए। जसु = यश, सिफत सालाह। ते = से।1।

अनदिनु = हर रोज। सद = सदा। जागै = (विकारों की ओर से) सचेत रहते हैं। तंतु मंतु = जादू टूणा। जोहई = जोहै, देख सकता, असर कर सकता। तितु = उस (मनुष्य) पर। चाखु = चक्षु, बुरी नज़र।1। रहाउ।

मद मान = अहंकार की मस्ती। मद = मस्ती। अन रागै = अन्य के मोह प्यार में। मगन = मस्त। रसि = रस में, स्वाद में। रंगि = प्रेम में।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपता रहता है, वह हर वक्त सदा (विकारों से) सचेत रहता है। कोई जादू-टूणा उस पर असर नहीं कर सकता, कोई बुरी नजर उसको नहीं लग सकती।1। रहाउ।

हे भाई! साध-संगति में मिल के मन से हृदय से परमात्मा के नाम की आराधना करते रहना चाहिए। जगत के रक्षक प्रभू के गुण और यश उचारने से जम (भी) दूर से ही भाग जाता है।1।

हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के रस में टिका रहता है, प्रभू के प्रेम में मस्त रहता है, प्रभू की शरण पड़ा रहता है, वह सदा आत्मिक आनंद में मस्त रहता है। (उसके अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार की मस्ती, मोह और और पदार्थों के चस्के सब नाश हो जाते हैं।2।4।68।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh