श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ५ ॥ जीअ जुगति वसि प्रभू कै जो कहै सु करना ॥ भए प्रसंन गोपाल राइ भउ किछु नही करना ॥१॥ दूखु न लागै कदे तुधु पारब्रहमु चितारे ॥ जमकंकरु नेड़ि न आवई गुरसिख पिआरे ॥१॥ रहाउ ॥ करण कारण समरथु है तिसु बिनु नही होरु ॥ नानक प्रभ सरणागती साचा मनि जोरु ॥२॥५॥६९॥ {पन्ना 818}

पद्अर्थ: जीअ जुगति = जीवों का जिंदगी गुजारने का ढंग। वसि = वश में। कै वसि = के बस में। कहै = कहता है, प्रेरित करता है। गोपाल राइ = जगत का मालिक पातशाह। भउ = डर।1।

चितारे = चिक्त में बसाए रख। जम कंकरु = जम का सेवक, जम दूत। आवई = आए, आता। गुर सिख = हे गुरू के सिख! पिआरे = हे प्यारे!।1। रहाउ।

करण = जगत। कारण = मूल। करण कारण समरथु = जगत की रचना करने के ताकत रखने वाला। साचा = सदा कायम रहने वाला। मनि = मन में। जोरु = ताकत, बल, आसरा।2।

अर्थ: हे प्यारे गुरसिख! परमात्मा को अपने चिक्त में बसाए रख। तुझे कभी भी कोई दुख छू नहीं सकेगा, (दुख तो कहीं रहे) जमदूत (भी) तेरे नजदीक नहीं आएगा।1। रहाउ।

हे भाई! हम जीवों की जीवन-जु्रगति परमात्मा के वश में है, जो कुछ करने के लिए वह हमें प्रेरित करता है वही हम कर सकते हैं। जिस मनुष्य पर जगत-पालक पातशाह दयावान होता है, उसे किसी से डरने की आवश्यक्ता नहीं रह जाती।1।

हे नानक! प्रभू ही जगत की रचना करने की ताकत वाला है, उसके बिना कोई और (इस प्रकार की समर्था वाला) नहीं है। हम जीव उस प्रभू की शरण में ही रह सकते हैं, (हमारे) मन में उसी का ही सदा कायम रहने वाला आसरा है।2।5।69।

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरि सिमरि प्रभु आपना नाठा दुख ठाउ ॥ बिस्राम पाए मिलि साधसंगि ता ते बहुड़ि न धाउ ॥१॥ बलिहारी गुर आपने चरनन्ह बलि जाउ ॥ अनद सूख मंगल बने पेखत गुन गाउ ॥१॥ रहाउ ॥ कथा कीरतनु राग नाद धुनि इहु बनिओ सुआउ ॥ नानक प्रभ सुप्रसंन भए बांछत फल पाउ ॥२॥६॥७०॥ {पन्ना 818}

पद्अर्थ: सिमरि = सिमर के। नाठा = भाग गया। दुख ठाउ = दुखों की जगह। बिस्राम = विश्राम, ठिकाना। मिलि = मिल के। साध संगि = गुरू की संगति में। ता ते = उस (साध-संगति) से। बाहुड़ि = दोबारा। न धाउ = मैं नहीं दौड़ता।1।

बलिहारी = कुर्बान। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ। पेखत = दर्शन करके। गाउ = मैं गाता हूँ।1। रहाउ।

धुनि = ध्वनि, सुर, लगन। सुआउ = स्वार्थ, मनोरथ। सुप्रसन्न = बहुत खुश। पाउ = पाऊँ, मैं पा रहा हूँ।2।

अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरू से कुर्बान जाता हूँ, मैं (अपने गुरू के) चरणों से सदके जाता हूँ। गुरू के दर्शन करके मैं प्रभू की सिफत-सालाह के गीत गाता हूँ, और मेरे अंदर सारे आनंद, सारे सुख सारे चाव-हिल्लोरे बने रहते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! गुरू की संगति में मिल के मैंने प्रभू के चरणों में निवास हासिल कर लिया है (इस वास्ते) उस (साध-संगति) से कभी परे नहीं भागता। (गुरू की संगति की बरकति से) मैं अपने प्रभू का हर वक्त सिमरन करके (ऐसी अवस्था में पहुँच गया हूँ कि मेरे अंदर से) दुखों का ठिकाना ही दूर हो गया है।1।

हे नानक! (कह- हे भाई! गुरू की कृपा से) प्रभू की कथा-कहानियाँ, कीर्तन, सिफत-सालाह की लगन - यही मेरी जिंदगी का निशाना बन गए हैं। (गुरू की मेहर से) प्रभू जी (मेरे पर) बहुत खुश हो गए हैं, मैं अब मन-माँगा फल प्राप्त कर रहा हूँ।2।6।70।

बिलावलु महला ५ ॥ दास तेरे की बेनती रिद करि परगासु ॥ तुम्हरी क्रिपा ते पारब्रहम दोखन को नासु ॥१॥ चरन कमल का आसरा प्रभ पुरख गुणतासु ॥ कीरतन नामु सिमरत रहउ जब लगु घटि सासु ॥१॥ रहाउ ॥ मात पिता बंधप तूहै तू सरब निवासु ॥ नानक प्रभ सरणागती जा को निरमल जासु ॥२॥७॥७१॥ {पन्ना 818}

पद्अर्थ: रिद = हृदय में। परगासु = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। ते = से, साथ। पारब्रहम = हे परमात्मा! दोख = ऐब, विकार। दोखन को = विचारों का।1।

प्रभ = हे प्रभू! पुरख = हे सर्व व्यापक! गुणतासु = गुणों का बर्तन। रहउ = रहूँ। सिमरत रहउ = मैं सिमरता रहूँ। घटि = (मेरे) शरीर में। सासु = सांस।1। रहाउ।

मात = माता। बंधप = रिश्तेदार। सरब = सारे जीवों में। जा को = जिस (प्रभू) का। जासु = जस, सिफत सालाह। निरमलु = पवित्र।2।

अर्थ: हे सर्व-व्यापक प्रभू! तू (ही) सारे गुणों का खजाना है। मुझे (तेरे) ही सुंदर चरणों का आसरा है। (मुझ पर मेहर कर) जब तक (मेरे) शरीर में सांस (चल रही है), मैं तेरा नाम सिमरता रहूँ, तेरी सिफत सालाह करता रहूँ।1। रहाउ।

हे पारब्रहम! (मैं तेरा दास हूँ) तेरे दास की (तेरे दर पर) आरजू है कि मेरे हृदय में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश कर (ता कि) तेरी कृपा से (मेरे अंदर से) विकारों का नाश हो जाए।1।

हे प्रभू! तू ही मेरी माँ है, तू ही मेरा पिता है, तू ही मेरा साक-संबंधी है, तू सारे ही जीवों में बसता है। हे नानक! जिस प्रभू की सिफत-सालाह (जीवन) पवित्र कर देती है, उसकी शरण पड़े रहना चाहिए।2।7।71।

बिलावलु महला ५ ॥ सरब सिधि हरि गाईऐ सभि भला मनावहि ॥ साधु साधु मुख ते कहहि सुणि दास मिलावहि ॥१॥ सूख सहज कलिआण रस पूरै गुरि कीन्ह ॥ जीअ सगल दइआल भए हरि हरि नामु चीन्ह ॥१॥ रहाउ ॥ पूरि रहिओ सरबत्र महि प्रभ गुणी गहीर ॥ नानक भगत आनंद मै पेखि प्रभ की धीर ॥२॥८॥७२॥ {पन्ना 818}

पद्अर्थ: सरब सिधि हरि = सारी ही सिद्धियों का मालिक परमात्मा। गाईअै = (अगर) सिफत सालाह करते रहें। सभि = सारे लोक। भला मनावहि = भला मांगते हैं। साधु = भले मनुष्य, गुरमुख। ते = से। कहहि = कहते हैं। सुण = सुन के। मिलावहि = मिलते हैं।1।

सहज = आत्मिक अडोलता। रस = स्वाद। पूरै गुरि = पूरे गुरू ने। जीअ लगन = सारे जीवों पर। दइआल = दयावान। चीन् = चीन्ह, (जो मनुष्य) पहचानता है।1। रहाउ।

पूरि रहिओ = भरपूर है, मौजूद है। सरबत्र महि = सबमें। गुणी = गुणों का मालिक। गहीर = गहरा, अथाह। आनंद मै = आनंद मय, आनंद भरपूर। पेखि = देख के। धीर = आसरा।2।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू ने जिस मनुष्य को आत्मिक अडोलता के सुख आनंद रस बख्श दिए, वह मनुष्य सदा परमात्मा के साथ सांझ डाले रखता है और (परमात्मा को सर्व-व्यापक जानता हुआ) सारे जीवों पर दयावान रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! सारी सिद्धियों के मालिक प्रभू की सिफत-सालाह करते रहना चाहिए, (जो मनुष्य सिफत-सालाह करता है) सारे लोग (उसकी) सुख मांगते हैं। मुँह से (सभी लोग उसे) गुरमुखि गुरमुखि कहते हैं, (उसके बचन) सुन के सेवक भाव से उसके चरणों में लगते हैं।1।

हे नानक! (प्रभू की सिफत-सालाह करने वाले) भक्त-जन प्रभू का आसरा देख के सदा आनंद-भरपूर रहते हैं, (उन्हें) निश्चय होता है कि सारे गुणों का मालिक अथाह प्रभू सारे जीवों में बसता है।2।8।72।

बिलावलु महला ५ ॥ अरदासि सुणी दातारि प्रभि होए किरपाल ॥ राखि लीआ अपना सेवको मुखि निंदक छारु ॥१॥ तुझहि न जोहै को मीत जन तूं गुर का दास ॥ पारब्रहमि तू राखिआ दे अपने हाथ ॥१॥ रहाउ ॥ जीअन का दाता एकु है बीआ नही होरु ॥ नानक की बेनंतीआ मै तेरा जोरु ॥२॥९॥७३॥ {पन्ना 818}

पद्अर्थ: दातारि = दातार ने। प्रभि = प्रभू ने। राखि लीआ = रक्षा की। मुखि = मुँह पर। छारु = राख।1।

तुझहि = तुझे। जोहै = देख सकता, बुरी निगाह से देख सकता है। को = कोई भी। मीत = हे मित्र! पारब्रहमि = पारब्रहम ने। तू = तुझे। दे = दे के।1। रहाउ।

बीआ = दूसरा। मै = मुझे। जोरु = ताण, सहारा।2।

अर्थ: हे मित्र! हे सज्जन! (अगर) तू गुरू का सेवक (बना रहे, तो विश्वास रख कि) परमात्मा ने अपना हाथ दे के तेरी रक्षा करनी है।1। रहाउ।

हे मित्र! जिस सेवक की अरदास प्रभू ने सुन ली, जिस सेवक पर प्रभू जी दयावान हो गए, अपने उस सेवक की प्रभ ने (सदा) रक्षा की है, उस सेवक के दोखी-निंदक के मुँह पर राख ही पड़ी है (निंदक हमेशा धिक्कारा ही गया है)।1।

हे मित्र! सारे जीवों को दातें देने वाला सिर्फ परमात्मा ही है, उसके बिना कोई और दूसरा (दातें देने के काबिल) नहीं है (उस प्रभू की शरण पड़ा रह)। नानक की (भी प्रभू-दर पर ही सदा) अरदास है- (हे प्रभू!) मुझे तेरा ही आसरा है।2।9।73।

बिलावलु महला ५ ॥ मीत हमारे साजना राखे गोविंद ॥ निंदक मिरतक होइ गए तुम्ह होहु निचिंद ॥१॥ रहाउ ॥ सगल मनोरथ प्रभि कीए भेटे गुरदेव ॥ जै जै कारु जगत महि सफल जा की सेव ॥१॥ ऊच अपार अगनत हरि सभि जीअ जिसु हाथि ॥ नानक प्रभ सरणागती जत कत मेरै साथि ॥२॥१०॥७४॥ {पन्ना 818-819}

पद्अर्थ: मीत हमारे साजना = हे मेरे मित्रो! हे मेरे सज्जनो! राख = रक्षा करता है। गोबिंद = सृष्टि की पालना करने वाला। मिरतक = आत्मिक तौर पर मुर्दे। निचिंद = बेफिक्र।1। रहाउ।

सगल = सारे। प्रभि = प्रभू ने। भेटे = मिल गए। जै जैकारु = शोभा ही शोभा। जा की सेव = जिस (प्रभू) की सेवा भक्ति। सफल = फल देने वाली।1।

अपार = बेअंत, अ+पार। अगनत = (अ+गनत) जिसके गुण गिने नहीं जा सकते। सभि = सारे। जीअ = ('जीउ' का बहुवचन)। जिसु हाथि = जिस (प्रभू) के हाथ में। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। मेरै साथि = मेरे साथ।2।

अर्थ: हे मेरे मित्रो! हे मेरे सज्जनो! (यकीन रखो कि) परमात्मा (अपने सेवकों की जरूर) रक्षा करता है। (सेवक की) निंदा करने वाले (खुद ही) आत्मिक मौत मर जाते हैं। (इस वास्ते तुम परमात्मा का आसरा-सहारा लिए रखो, और निंदकों की तरफ से) बेफिक्र रहो।1। रहाउ।

हे मेरे मित्रो! जिस प्रभू की सेवा-भगती मनोरथ पूरे करती है, उस प्रभू ने (सदा ही उस सेवक के) सारे मनोरथ पूरे किए हैं जिसको (भाग्यों से) गुरू मिल गया, (उसके निरे मनोरथ ही पूरे नहीं होते) सारे जगत में उसकी शोभा होती है।1।

हे नानक! जो प्रभू! (सबसे) ऊँचा है, बेअंत है, जिसके गुण गिने नहीं जा सकते, सारे ही जीव जिसके वश में हैं। (तू उस) प्रभू की शरण पड़ा रह (और, विश्वास रख कि) वह प्रभू हर जगह मेरे अंग-संग है।2।10।74।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh