श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 819 बिलावलु महला ५ ॥ गुरु पूरा आराधिआ होए किरपाल ॥ मारगु संति बताइआ तूटे जम जाल ॥१॥ दूख भूख संसा मिटिआ गावत प्रभ नाम ॥ सहज सूख आनंद रस पूरन सभि काम ॥१॥ रहाउ ॥ जलनि बुझी सीतल भए राखे प्रभि आप ॥ नानक प्रभ सरणागती जा का वड परताप ॥२॥११॥७५॥ {पन्ना 819} पद्अर्थ: आराधिआ = मन में याद रखा। किरपाल = दयावान (कृपा+आलय)। मारगु = (जीवन का सही) रास्ता। संति = गुरू ने, संत ने। जम जाल = जम की फाहियां।1। संसा = संशय, सहम। सहज = आत्मिक अडोलता। सभि = सारे। काम = कर्म।1। रहाउ। जलनि = जलन। प्रभि = प्रभू ने। जा का = जिस (प्रभू) का।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरते हुए सारे दुख, सारी भूखें, सारे सहम मिट जाते हैं। (नाम की बरकति से) आत्मिक अडोलता के सुख आनंद स्वाद (प्राप्त हो जाते हैं)। सारी आवश्यक्ताएं पूरी हो जाती हैं।1। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरू को हृदय में बसाए रखता है, जिस पर गुरू दयावान होता है, जिस मनुष्य को गुरू ने (सही जीवन का) रास्ता बता दिया, उसकी जम वाली सारी जंजीरें टूट जाती हैं (उसके वह मानसिक बंधन टूट जाते हैं, जो आत्मिक मौत लाने के लिए जिम्मेवार हैं)।1। (हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभू का नाम सिमरा) प्रभू ने खुद (उसकी जम जाल से) रक्षा की (उसके अंदर से विकारों की) जलन मिट गई, उसका मन शीतल हो गया। हे नानक! जिस प्रभू में इतनी बड़ी ताकत है तू भी उसकी शरण पड़ा रह।2।11।75। बिलावलु महला ५ ॥ धरति सुहावी सफल थानु पूरन भए काम ॥ भउ नाठा भ्रमु मिटि गइआ रविआ नित राम ॥१॥ साध जना कै संगि बसत सुख सहज बिस्राम ॥ साई घड़ी सुलखणी सिमरत हरि नाम ॥१॥ रहाउ ॥ प्रगट भए संसार महि फिरते पहनाम ॥ नानक तिसु सरणागती घट घट सभ जान ॥२॥१२॥७६॥ {पन्ना 819} पद्अर्थ: धरति = (कर्म बीज बीजने वाली) शरीर धरती। सुहावी = सुंदर। सफल = कामयाब। थानु = हृदय स्थल। काम = (सारे) काम। भ्रमु = भ्रम, भटकना। रविआ = सिमरा।1। कै संगि = के साथ, की संगति में। बसत = बसते हुए। सहज = आत्मिक अडोलता। बिस्राम = शांति। साई = वही (स्त्री लिंग)। सुलखणी = अच्छे लक्षणों वाली, भाग्यशाली।1। रहाउ। प्रगट = प्रसिद्ध, नामवर। महि = में। पहनाम = (फारसी = पिनहां) छुपे हुए, जिन्हें कोई जानता-बूझता नहीं था। तिसु = उस (परमात्मा) की। घट घट जान = हरेक के दिल की जानने वाला।2। अर्थ: हे भाई! गुरमुखों के संगति में टिके रहने से आत्मिक अडोलता का आनंद प्राप्त होता है, (मन को) शांति मिलती है। (हे भाई! मनुष्य के जीवन में) वही घड़ी भाग्यशाली होती है (जब मनुष्य गुरमुखों की संगति में रह के) परमात्मा का नाम सिमरता है।1। (हे भाई! जो मनुष्य साधसंगति में टिक के) प्रभू का नाम सिमरता है, (उसके मन में से हरेक किस्म का) डर दूर हो जाता है, भटकना मिट जाती है, उसका शरीर सुंदर हो जाता है (उसकी ज्ञानेन्द्रियां सदाचारी हो जाती हैं), उसका हृदय-स्थल जीवन-मनोरथ पूरा करने वाला बन जाता है, उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।2। हे भाई! जिन मनुष्यों को पहले कोई जानता-पहचानता नहीं था (साध-संगति में टिक के सिमरन की बरकति से) वे जगत में मशहूर हो जाते हैं। हे नानक! (साध-संगति का आसरा ले के) उस परमात्मा की शरण पड़े रहना चाहिए जो हरेक जीव के दिल की हरेक बात जानने वाला है।2।12।76। बिलावलु महला ५ ॥ रोगु मिटाइआ आपि प्रभि उपजिआ सुखु सांति ॥ वड परतापु अचरज रूपु हरि कीन्ही दाति ॥१॥ गुरि गोविंदि क्रिपा करी राखिआ मेरा भाई ॥ हम तिस की सरणागती जो सदा सहाई ॥१॥ रहाउ ॥ बिरथी कदे न होवई जन की अरदासि ॥ नानक जोरु गोविंद का पूरन गुणतासि ॥२॥१३॥७७॥ {पन्ना 819} पद्अर्थ: प्रभि = प्रभू ने। उपजिआ = पैदा हुआ। वड परतापु = बड़े प्रताप वाला। अचरज रूपु = आश्चर्य स्वरूप वाला।1। गुरि = गुरू ने। गोबिंद = गोबिंद ने। भाई = प्यारा। सहाई = सहायता करने वाला।1। तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है। बिरथी = व्यर्थ, फल हीन। होवई = होती है। जन = सेवक। जोरु = बल, आसरा। गुण तासि = गुणों का खजाना।2। अर्थ: हे भाई! मैंने तो उस परमात्मा का ही आसरा लिया हुआ है, जो सदा सहायता करने वाला है। (देखो, उसकी मेहर कि) गुरू ने परमात्मा ने (ही मेरे ऊपर) कृपा की है, मेरे प्यारे को (हाथ दे के) बचा लिया है।1। रहाउ। हे भाई! वह परमात्मा बड़े प्रताप वाला है, आश्चर्य स्वरूप वाला है, उसी ने ही (मेरे पर) बख्शिश की है। प्रभू ने खुद ही (मेरे प्यारे का) रोग दूर किया है, (उसकी मेहर से) सुख मिला है शांति मिली है।1। हे नानक! (कह- हे भाई! प्रभू के दर के ही सेवक बने रहो) सेवक की आरजू कभी खाली नहीं जाती (प्रभू जरूर सहायता करता है, और, रोग आदि से खुद ही बचाता है)। वह परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, सारे गुणों से भरपूर है। मुझे तो उस परमात्मा का ही आसरा है।2।13।77। बिलावलु महला ५ ॥ मरि मरि जनमे जिन बिसरिआ जीवन का दाता ॥ पारब्रहमु जनि सेविआ अनदिनु रंगि राता ॥१॥ सांति सहजु आनदु घना पूरन भई आस ॥ सुखु पाइआ हरि साधसंगि सिमरत गुणतास ॥१॥ रहाउ ॥ सुणि सुआमी अरदासि जन तुम्ह अंतरजामी ॥ थान थनंतरि रवि रहे नानक के सुआमी ॥२॥१४॥७८॥ {पन्ना 819} पद्अर्थ: मरि = मर के, आत्मिक मौत सहेड़ के। जिन = जिनको। जीवन = जिंदगी। जनि = जन ने, सेवक ने। सेविआ = सिमरा। अनदिनु = हर रोज। रंगि = प्रेम में।1। सहजु = आत्मिक अडोलता। घना = बहुत। साध संगि = साध-संगति में। गुणतास = गुणों का खजाना।1। रहाउ। सुणि = सुनी। सुआमी = हे स्वामी! अरदासि जन = (अपने) सेवक की अरदास। अंतरजामी = दिलों की जानने वाला। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। रवि रहे = तुम मौजूद हो।2। अर्थ: (हे भाई! सेवक ने) गुणों के खजाने हरी (का नाम) साध-संगति में सिमरते हुए (सदा) आत्मिक आनंद प्राप्त किया है। (सेवक के हृदय में) शांति, आत्मिक अडोलता और बहुत आनंद बना रहता है। (सेवक की) हरेक कामना पूरी हो जाती है।1। रहाउ। हे भाई! जिन मनुष्यों को जिंदगी देने वाला परमात्मा भूल जाता है, वह आत्मिक मौत सहेड़ के जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। पर प्रभू के सेवक ने प्रभू को हर वक्त सिमरा है, (प्रभू का सेवक प्रभू के) प्रेम-रंग में रंगा रहता है।1। हे सवामी! नानक के मालिक! तू हर जगह में बसता है, तू हरेक के दिल की जानने वाला है, तू (अपने) सेवक की अरदास (सदा) सुनता है।2।14।78। बिलावलु महला ५ ॥ ताती वाउ न लगई पारब्रहम सरणाई ॥ चउगिरद हमारै राम कार दुखु लगै न भाई ॥१॥ सतिगुरु पूरा भेटिआ जिनि बणत बणाई ॥ राम नामु अउखधु दीआ एका लिव लाई ॥१॥ रहाउ ॥ राखि लीए तिनि रखनहारि सभ बिआधि मिटाई ॥ कहु नानक किरपा भई प्रभ भए सहाई ॥२॥१५॥७९॥ {पन्ना 819} पद्अर्थ: ताती = गरम। ताती वाउ = गर्म हवा, सेक। लगई = लगे, लगता। चउगिरद = चौगिर्दा, चारों तरफ। रामकार = राम के नाम की लकीर। (नोट: बनवास के समय रावण सीता को छलने आया। सीता जी की प्रेरणा से श्री रामचंद्र हिरन को पकड़ने गए, लक्ष्मण को सीता जी के पास छोड़ गए। जंगल में से इस तरह की आवाज आई जैसे श्री रामचंद्र जी को किसी बिपता ने आ के ग्रस लिया है। सीता जी के कहने पर लक्ष्मण सीता जी के चारों तरफ राम-कार खींच के श्री रामचंद्र जी की तलाश में चले गए। पर सीता जी को हिदायत कर गए कि इस लकीर से बाहर नहीं निकलना। रावण का दाव तब ही लगा, जब सीता जी उससे बाहर निकल आए)। भाई = हे भाई!।1। भेटिआ = मिल गया। जिनि = जिस (गुरू) ने। बणत = (व्याधियों को दूर करने की) बिउंत। अउखधु = दवा।1। रहाउ। तिनि = उसने। रखनहारि = रखने की समर्थता वाले ने। बिआधि = रोग। सहाई = मददगार।2। अर्थ: हे भाई! जिस गुरू ने (परमात्मा का नाम-दवा दे के जीवों के रोग दूर करने की) बिउंत बना रखी है, वह पूरा गुरू (जिस मनुष्य को) मिल जाता है और परमात्मा का नाम दवाई देता है, वह मनुष्य सदा परमात्मा में सुरति जोड़े रखता है।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा की शरण पड़ने से (व्याधियों का) सेक नहीं लगता। हे भाई! हम जीवों के चारों तरफ परमात्मा का नाम (मानो) एक लकीर है (जिसकी बरकति से) कोई दुख छू नहीं सकता।1। हे नानक! कह- (जिस मनुष्य को गुरू मिल गया उसको) उस रखवाले प्रभू ने बचा लिया, (उसके अंदर से) हरेक रोग दूर कर दिया, उस मनुष्य पर प्रभू की कृपा हो गई, प्रभू उस मनुष्य का मददगार बन गया।2।15।79। बिलावलु महला ५ ॥ अपणे बालक आपि रखिअनु पारब्रहम गुरदेव ॥ सुख सांति सहज आनद भए पूरन भई सेव ॥१॥ रहाउ ॥ भगत जना की बेनती सुणी प्रभि आपि ॥ रोग मिटाइ जीवालिअनु जा का वड परतापु ॥१॥ दोख हमारे बखसिअनु अपणी कल धारी ॥ मन बांछत फल दितिअनु नानक बलिहारी ॥२॥१६॥८०॥ {पन्ना 819-820} पद्अर्थ: रखिअनु = रखे हैं उस (प्रभू) ने। गुरदेव = सबसे बड़ा देवता। सहज = आत्मिक अडोलता। सेव = सिमरन की मेहनत।1। रहाउ। प्रभि = प्रभू ने। जीवालिअनु = उसने जीवित किए हैं, उसने आत्मिक जीवन दिया है।1। दोख = ऐब, विकार। बखसिअनु = उसने बख्शे हैं। कल = कला, सक्ता। धारी = टिकाई है। मन बांछत = मन मांगे। दितिअनु = दिए हैं उस प्रभू ने।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबसे बड़ा देवता (है, हम जीव उसके बच्चे हैं) अपने बच्चों की वह सदा ही स्वयं रक्षा करता आया है। (जो मनुष्य उसकी शरण पड़ते हैं, उनके अंदर) शांति, आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद पैदा होते हैं, उनकी सेवा-सिमरन की मेहनत सफल हो जाती है।1। रहाउ। हे भाई! जिस प्रभू का (सबसे) बड़ा तेज-प्रताप है उस ने अपने भक्तों की आरजू (सदा) सुनी है (उनके अंदर से) रोग मिटा के उनको आत्मिक जीवन की दाति बख्शी है।1। हे भाई! उस प्रभू-पिता ने हम बच्चों के ऐब सदा माफ कर दिए हैं, और हमारे अंदर अपने नाम की ताकत भरी है। हे नानक! प्रभू पिता ने हम बच्चों को सदा मन-मांगे फल दिए हैं, उस प्रभू से सदा सदके जाना चाहिए।2।16।80। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |