श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु बिलावलु महला ५ चउपदे दुपदे घरु ६    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरे मोहन स्रवनी इह न सुनाए ॥ साकत गीत नाद धुनि गावत बोलत बोल अजाए ॥१॥ रहाउ ॥ सेवत सेवि सेवि साध सेवउ सदा करउ किरताए ॥ अभै दानु पावउ पुरख दाते मिलि संगति हरि गुण गाए ॥१॥ रसना अगह अगह गुन राती नैन दरस रंगु लाए ॥ होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन मोहि चरण रिदै वसाए ॥२॥ सभहू तलै तलै सभ ऊपरि एह द्रिसटि द्रिसटाए ॥ अभिमानु खोइ खोइ खोइ खोई हउ मो कउ सतिगुर मंत्रु द्रिड़ाए ॥३॥ अतुलु अतुलु अतुलु नह तुलीऐ भगति वछलु किरपाए ॥ जो जो सरणि परिओ गुर नानक अभै दानु सुख पाए ॥४॥१॥८१॥ {पन्ना 820}

पद्अर्थ: मोहन = हे जीवों के मन को मोह लेने वाले! हे सुंदर! स्रवनी = श्रवणी, (मेरे) कानों में। न सुनाऐ = ना सुनाए। साकत = परमात्मा से टूटे हुए लोग। धुनि = सुर। अजाऐ = व्यर्थ।1। रहाउ।

सेवि सेवि = सदा सेवा करके। साध सेवउ = मैं गुरू की सेवा करता रहूँ। किरताऐ = किरत, काम काज। अभै = निर्भयता। पावउ = पाऊँ। पुरख = हे सर्व व्यापक! मिलि = मिल के। गाऐ = गा के।1।

रसना = जीभ। अगह = अपहुँच। राती = रति रहे, रंगी रहे। नैन = आँखें। दरस रंगु = दर्शन का आनंद। लाऐ = लगा के। दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख नाश करने वाले! मोहि रिदै = मेरे हृदय में। वसाऐ = बसाए रख।2।

तलै = नीचे। द्रिसटि = दृष्टि, निगाह। द्रिसटाऐ = दिखाए। खोई = दूर कर के। खोइ खोइ खोई हउ = मैं बिल्कुल दूर कर दूँ। मो कउ = मुझे। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ाऐ = दृढ़ कर, पक्का कर।3।

भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। सरणि गुर = गुरू की शरण। पाऐ = पाया जाता है।4।

अर्थ: परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य (जो गंदे) गीतों नादों धुनियों के बोल बोलते हैं और गाते हैं वह (आत्मिक जीवन के लिए) व्यर्थ हैं। हे मेरे मोहन! ऐसे बोल मेरे कानों में ना पड़ें।1। रहाउ।

हे सर्व-व्यापक दातार! हे हरी! (मेहर कर) गुरू की संगति में मिल के, तेरे गुण गा के मैं (तेरे दर से) निर्भयता की दाति प्राप्त करूँ। मैं सदा ही हर वक्त गुरू की शरण पड़ा रहूँ, मैं सदा यही काम करता रहूँ।1।

हे दीनों के दुख दूर करने वाले! (मुझ पर) दयावान हो, अपने चरण मेरे हृदय में बसाए रख, मेरी आँखें तेरे दर्शन कर-करके मेरी जीभ तुझ अपहुँच के गुणों में रति रहे।2।

हे मोहन! मेरी निगाह में ऐसी ज्योति पैदा कर कि मैं अपने आप को सबसे नीच समझूँ और सबको अपने से ऊँचा जानूँ। हे मोहन! मेरे दिल में गुरू का उपदेश पक्का कर दे, ता कि मैं सदा के लिए अपने अंदर से अहंकार दूर कर दूँ।3।

हे मोहन! तू अतुल है, तू अतुल है, तू अतुल है, (तेरे बड़प्पन को) तोला नहीं जा सकता, तू भक्ति को प्यार करने वाला है, तू सबके ऊपर कृपा करता है। हे नानक! (मोहन-प्रभू की कृपा से) जो जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह निर्भयता की दाति हासिल कर लेता है, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है।4।1।81।

नोट: इस संग्रह का शीर्षक है 'चउपदे दुपदे'। पर इस में सिर्फ पहला शबद ही चार बंदों वाला है।

बिलावलु महला ५ ॥ प्रभ जी तू मेरे प्रान अधारै ॥ नमसकार डंडउति बंदना अनिक बार जाउ बारै ॥१॥ रहाउ ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत इहु मनु तुझहि चितारै ॥ सूख दूख इसु मन की बिरथा तुझ ही आगै सारै ॥१॥ तू मेरी ओट बल बुधि धनु तुम ही तुमहि मेरै परवारै ॥ जो तुम करहु सोई भल हमरै पेखि नानक सुख चरनारै ॥२॥२॥८२॥ {पन्ना 820}

पद्अर्थ: प्रान अधारै = जिंद का आसरा। डंडउति बंदना = डंडे की तरह सीधा लंबे पड़कर नमस्कार (दण्डवत)। बार = बारी। बारै = वारने, सदके।1। रहाउ।

तुझहि = तुझे ही। चितारै = याद करता है। बिरथा = व्यथा, पीड़ा। सारै = संभालता है, पेश करता है।1।

ओट = आसरा। बल = ताण। तुमहि = तुम ही, तू ही। मेरै = मेरे लिए। परवारै = परिवार। भल = भला। हमारै = हमारे लिए। पेखि चरनारै = (तेरे) चरणों के दर्शन करके।2।

अर्थ: हे प्रभू! तू (ही) मेरी जिंद का सहारा है। हे प्रभू! मैं तेरे ही आगे नमस्कार करता हूँ, दण्डवत् करके नमस्कार करता हूँ। मैं अनेकों बार तुझसे सदके जाता हूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू! उठते, बैठते, सोते, जागते (हर वक्त) मेरा ये मन तुझे ही याद करता रहता है। मेरा ये मन अपना सुख अपना दुख अपनी हरेक पीड़ा तेरे ही आगे रखता है।1।

हे प्रभू! तू ही मेरा सहारा है, तू ही मेरा माण है, तू ही मेरा ताण (बल) है, तू ही मेरी बुद्धि है, तू ही मेरी समृद्धि (धन) है, और तू ही मेरे वास्ते मेरा परिवार है। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) जो कुछ तू करता है मेरे वास्ते वही भलाई है। तेरे चरणों के दर्शन करके मुझे आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।2।2।82।

नोट: नए संग्रह का ये दूसरा शबद है। इस राग में महला ५ के अब तक 82 शबद आ चुके हैं।

बिलावलु महला ५ ॥ सुनीअत प्रभ तउ सगल उधारन ॥ मोह मगन पतित संगि प्रानी ऐसे मनहि बिसारन ॥१॥ रहाउ ॥ संचि बिखिआ ले ग्राहजु कीनी अम्रितु मन ते डारन ॥ काम क्रोध लोभ रतु निंदा सतु संतोखु बिदारन ॥१॥ इन ते काढि लेहु मेरे सुआमी हारि परे तुम्ह सारन ॥ नानक की बेनंती प्रभ पहि साधसंगि रंक तारन ॥२॥३॥८३॥ {पन्ना 820}

पद्अर्थ: सुनीअत = सुनी जाती है। प्रभ = हे प्रभू! तउ = तेरी (वजह से)। सगल = सारे जीवों को। उधारन = (विकारों से) बचाने वाला। मगन = डूबे हुए। पतित = (विकारों में) गिरे हुए। संगि प्रानी = प्राणियों से। अैसे = इस तरह, बेपरवाही से। मनहि = मन से।1। रहाउ।

संचि = संचित करके। बिखिआ = माया। ग्राहजु = ग्राह्य, ग्रहण करने योग्य। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ते = से। डारन = फेंक दिया। रतु = रता हुआ, मस्त। सतु = दान। बिदारन = चीर फाड़ दिया, चीर डाला।1।

इनते = इनसे। सुआमी = हे नानक! हारि = हार के, थक के। सारन = शरण। पहि = पास। संगि = संगति में। रंक = कंगाल, आत्मिक जीवन से वंचित।2।

अर्थ: हे प्रभू! तेरी बाबत सुना जाता है कि तू सारे जीवों को विकारों से बचाने वाला है, (तू उनको भी बचा लेता है, जो) मोह में डूबे हुए विकारों में गिरे हुए प्राणियों के साथ उठना-बैठना रखते हैं और बड़ी बेपरवाही से तुझे मन से भुलाए रखते हैं।1। रहाउ।

हे प्रभू! (तेरे पैदा किए हुए जीव) माया इकट्ठी करके ही इसको ग्रहण करने योग्य बनाते हैं, पर आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम-जल अपने मन से परे फेंक देते हैं। (ऐसे) जीव काम-क्रोध-लोभ-निंदा (आदि विकारों) में मस्त रहते हैं और सेवा-संतोख आदि गुण को कतरा-कतरा कर रहे हैं (हे प्रभू! मेहर कर, इनको विकारों से बचा ले)।1।

हे मेरे मालिक प्रभू! इन विकारों से हमें बचा ले (हमारी इनके आगे पेश नहीं जाती) हार के तेरी शरण आ पड़े हैं। हे प्रभू! (तेरे दर के सेवक) नानक की (तेरे आगे) आरजू है कि आत्मिक जीवन से बिल्कुल वंचित लोगों को भी साध-संगति में ला के (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है।2।3।83।

बिलावलु महला ५ ॥ संतन कै सुनीअत प्रभ की बात ॥ कथा कीरतनु आनंद मंगल धुनि पूरि रही दिनसु अरु राति ॥१॥ रहाउ ॥ करि किरपा अपने प्रभि कीने नाम अपुने की कीनी दाति ॥ आठ पहर गुन गावत प्रभ के काम क्रोध इसु तन ते जात ॥१॥ त्रिपति अघाए पेखि प्रभ दरसनु अम्रित हरि रसु भोजनु खात ॥ चरन सरन नानक प्रभ तेरी करि किरपा संतसंगि मिलात ॥२॥४॥८४॥ {पन्ना 820-821}

पद्अर्थ: संतन कै = संतों के घर में, संतों की संगति में, साध-संगति में। बात = कथा वारता। सुनीअत = सुनी जाती है। धुनि = रौंअ। पूरि रही = भरी रहती है। दिनसु = दिन। अरु = और।1। रहाउ।

करि = करके। प्रभि = प्रभू ने। तन ते = शरीर से। जात = दूर हो जाते हैं।1।

त्रिपति = तृप्ति। अघाऐ = तृप्त हो गए। पेखि = देख के। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला। प्रभ = हे प्रभू! संगि = संगत में।2।

अर्थ: हे भाई! साध-संगत में प्रभू की सिफत-सालाह की कथा-वार्ता (सदा) सुनी जाती है। वहाँ दिन-रात हर वक्त प्रभू की कथा-कहानियाँ होती हैं, कीर्तन होता है, आत्मिक आनंद हिल्लौरे पैदा करने वाली धुनि सदा चली रहती है।1। रहाउ।

हे भाई! संतजनों को प्रभू ने मेहर करके अपने सेवक बना लिया होता है, उनको अपने नाम की दाति बख्शी होती है। आठों पहर प्रभू के गुण गाते-गाते (उनके) इस शरीर में से काम-क्रोध (आदि विकार) दूर हो जाते हैं।1।

हे भाई! संत जन प्रभू के दर्शन करके (माया की तृष्ण की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त रहते हैं, संत जन सदा आत्मिक जीवन देने वाला नाम हरी-नाम का स्वादिष्ट भोजन खाते हैं। हे नानक! (कह-) हे प्रभू! जो मनुष्य तेरे चरणों की शरण में आते हैं, तू कृपा करके उनको संत जनों की संगति में मिला देता है।2।4।84।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh