श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ५ ॥ अपने सेवक कउ कबहु न बिसारहु ॥ उरि लागहु सुआमी प्रभ मेरे पूरब प्रीति गोबिंद बीचारहु ॥१॥ रहाउ ॥ पतित पावन प्रभ बिरदु तुम्हारो हमरे दोख रिदै मत धारहु ॥ जीवन प्रान हरि धनु सुखु तुम ही हउमै पटलु क्रिपा करि जारहु ॥१॥ जल बिहून मीन कत जीवन दूध बिना रहनु कत बारो ॥ जन नानक पिआस चरन कमलन्ह की पेखि दरसु सुआमी सुख सारो ॥२॥७॥१२३॥ {पन्ना 829}

पद्अर्थ: कउ = को। कबहु = कभी भी। उरि = छाती से। सुआमी = हे मालिक! प्रभ = हे प्रभू! पूरब = पहली। गोबिंद = हे गोबिंद!।1। रहाउ।

पतित = विकारों में गिरे हुए। पावन = पवित्र (करना)। बिरदु = मूल कदीमी स्वभाव। तुमारो = (तुम्हारो)। दोख = ऐब। रिदै = हृदय में। मत = ना। धारहु = टिकाव। जीवन प्रान = जिंद जान। पटलु = पर्दा। करि = कर के। जारहु = जला के।1।

बिहून = बिना। मीन = मछली। कत = कैसे? रहनु = टिकने, जीने। बारो = बालक। कमलन् = कमलन्ह। पेखि = देख के। सुआमी = हे मालिक! सारो = सारे।2।

अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभू! (मुझे) अपने सेवक को कभी ना भुलाना, मेरे हृदय में बसे रहो। हे मेरे गोबिंद! मेरी पिछली प्रीति को याद रखो।1। रहाउ।

हे प्रभू! तेरा मूल कदीमी बिरद भरा स्वभाव है कि तू विकारों में गिरे हुओं को पवित्र कर देता है। हे प्रभू! मेरे ऐब (भी) अपने हृदय में ना रखना। हे हरी! तू ही मेरी जिंद जान है, तू ही मेरा धन है, तू ही मेरा सुख है। मेहर करके (मेरे अंदर से) अहंकार का पर्दा जला दे।1।

हे मेरे मालिक-प्रभू! पानी के बिना मछली कभी जीवित नहीं रह सकती। दूध के बिना बच्चा नहीं रह सकता। (वैसे ही तेरे) दास नानक को तेरे सुंदर चरणों के दर्शनों की प्यास है, दर्शन करके (तेरे सेवक को) सारे ही सुख प्राप्त हो जाते हैं।2।7।123।

बिलावलु महला ५ ॥ आगै पाछै कुसलु भइआ ॥ गुरि पूरै पूरी सभ राखी पारब्रहमि प्रभि कीनी मइआ ॥१॥ रहाउ ॥ मनि तनि रवि रहिआ हरि प्रीतमु दूख दरद सगला मिटि गइआ ॥ सांति सहज आनद गुण गाए दूत दुसट सभि होए खइआ ॥१॥ गुनु अवगुनु प्रभि कछु न बीचारिओ करि किरपा अपुना करि लइआ ॥ अतुल बडाई अचुत अबिनासी नानकु उचरै हरि की जइआ ॥२॥८॥१२४॥ {पन्ना 829}

पद्अर्थ: आगै = परलोक में। पाछै = इस लोक में। कुसलु = सुख। भइआ = हो गया, हो जाता है। गुरि = गुरू ने। राखी = (विकारों के मुकाबले में इज्जत) रखी। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। प्रभि = प्रभू ने। मइआ = दया।1। रहाउ।

मनि = मन में। तनि = तन में। रवि रहिआ = रह वक्त मौजूद रहता है। सगला = सारा। सहज = आत्मिक अडोलता। दूत = वैरी। दुसट = बुरे विकार। सभि = सारे। खइआ = खै, क्षय,नाश।1।

प्रभि = प्रभू ने। करि = कर के। करि लइआ = बना लिया, बना लेता है। अतुल = जो तोली ना जा सके, जिसके बराबर की कोई और चीज ना हो, बेमिसाल। अचुत = (च्युत = गिरा हुआ) जो गिर ना सके, कभी ना गिर सकने वाला। नानकु उचरै = नानक उचारता है। जइआ = जै।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर पारब्रहम ने प्रभू ने मेहर कर दी, (दूत-दुष्ट के मुकाबले में) पूरे गुरू ने (जिस मनुष्य की) इज्जत अच्छी तरह बचा ली, उस मनुष्य के लिए इस लोक में और परलोक में सुख बना रहता है।1। रहाउ।

(हे भाई! जिस मनुष्य की इज्जत पूरा गुरू बचाता है, उसके) मन में हृदय में प्रीतम हरी, हर वक्त बसा रहता है, उसके सारे दुख-दर्द मिट जाते हैं। वह (हर वक्त प्रभू के) गुण गाता रहता है (जिसकी बरकति से उसके अंदर) शांति और अडोलता के आनंद बने रहते हैं, (कामादिक) सारे (उसके) दोखी वैरी नाश हो जाते हैं।1।

(हे भाई! पूरा गुरू जिस मनुष्य की इज्जत बचाता है) परमात्मा उसका कोई गुण-अवगुण नहीं पड़तालता, मेहर करके उसको प्रभू अपना (सेवक) बना लेता है। हे भाई! अटॅल और अविनाशी परमात्मा की ताकत बेमिसाल है। नानक सदा उसी प्रभू की जै-जैकार उचारता रहता है।2।8।128।

बिलावलु महला ५ ॥ बिनु भै भगती तरनु कैसे ॥ करहु अनुग्रहु पतित उधारन राखु सुआमी आप भरोसे ॥१॥ रहाउ ॥ सिमरनु नही आवत फिरत मद मावत बिखिआ राता सुआन जैसे ॥ अउध बिहावत अधिक मोहावत पाप कमावत बुडे ऐसे ॥१॥ सरनि दुख भंजन पुरख निरंजन साधू संगति रवणु जैसे ॥ केसव कलेस नास अघ खंडन नानक जीवत दरस दिसे ॥२॥९॥१२५॥ {पन्ना 829}

पद्अर्थ: भै बिनु = (संबंधक 'बिनु' के कारण शब्द 'भउ' से 'भै' बन गया है) डर अदब के बिना। तरनु = संसार समुंद्र से पार उतारा। कैसे = कैसे? अनुग्रहु = दया, कृपा। पतित उधारन = हे विकारियों को बचाने वाले! सुआमी = हे मालिक! आप भरोसे = आप के आसरे, तेरे आसरे। राख = मदद कर।1। रहाउ।

नही आवत = नहीं आता, जाच नहीं। मद = नशा। मावत = मस्त। बिखिआ = माया। राता = रंगा हुआ, मगन। सुआन जैसे = जैसे कुक्ता (भटकता फिरता है)। अउध = उम्र। अधिक = बहुत। मोहावत = ठॅगा जाता है। बुडे = डूबते जाते हैं। अैसे = इस प्रकार।1।

दुख भंजन = हे दुखों के नाश करने वाले! पुरख = हे सर्व व्यापक! निरंजन = हे माया के प्रभाव से परे। रवणु = सिमरन। जैसे = जैसे कि। केसव = हे केशव! हे सुंदर केशों वाले! (केशा: प्रशस्या: सन्ति अस्य)। कलेस नास = हे कलेशों के नाश करने वाले! अघ खंडन = हे पापों के नाश करने वाले! दिसे = दिखने से।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का डर-अदब मन में बसाए बिना, भक्ति किए बिना संसार-समुंद्र से पार उतारा नहीं हो सकता। हे विकारियों को विकारों से बचाने वाले स्वामी! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे (इन विकारों से) बचाए रख, मैं तेरे ही आसरे हूँ।1। रहाउ।

(हे प्रभू! तेरी मेहर के बिना जीव को तेरा) सिमरन करने की जाच नहीं आती, माया के नशे में मस्त भटकता है, माया (के रंग) में रंगा हुआ जीव इस तरह फिरता है जैसे (पागल हुआ) कुक्ता। हे प्रभू! ज्यों-ज्यों उम्र बीतती है, जीव (विकारों के हाथों से) बहुत ज्यादा लूटे जाते हैं, बस! यूँ ही पाप करते-करते संसार-समुंद्र में डूबते जाते हैं।1।

हे नानक! (कह-) हे दुखों के नाश करने वाले! हे सर्व-व्यापक! हे माया के प्रभाव से परे रहने वाले! (मेहर कर, ता कि) जैसे भी हो सके (तेरा दास) साध-संगति में (टिक के तेरा) सिमरन करता रहे। हे केशव! हे कलेशों का नाश करने वाले! हे पापों का नाश करने वाले! (तेरा दास) नानक तेरे दर्शन करके ही आत्मिक जीवन हासिल करता है।2।9।125।

रागु बिलावलु महला ५ दुपदे घरु ९    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आपहि मेलि लए ॥ जब ते सरनि तुमारी आए तब ते दोख गए ॥१॥ रहाउ ॥ तजि अभिमानु अरु चिंत बिरानी साधह सरन पए ॥ जपि जपि नामु तुम्हारो प्रीतम तन ते रोग खए ॥१॥ महा मुगध अजान अगिआनी राखे धारि दए ॥ कहु नानक गुरु पूरा भेटिओ आवन जान रहे ॥२॥१॥१२६॥ {पन्ना 829}

पद्अर्थ: आपहि = आपि ही ('आपि' की 'हि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। ते = से। दोख = ऐब विकार।1। रहाउ।

अरु = और। तजि = त्याग के। चिंत बिरानी = बेगानी आस का ख्याल। साधह = संत जनों की। जपि = जप के। प्रीतम = हे प्रीतम! खऐ = नाश हो गए हैं।1।

मुगध = मूर्ख। दऐ = दया। धारि = धारण करके। भेटिओ = मिला। रहे = समाप्त हो गए।2।

अर्थ: हे प्रभू! जब से (जो मनुष्य) तेरी शरण आते हैं, तब से (उनके सारे) पाप दूर हो जाते हैं, क्योंकि तू स्वयं ही उनको अपने चरणों में मिला लेता है।1। रहाउ।

(हे प्रभू! जिन्हें तू अपने चरणों में जोड़ता है, वह मनुष्य) अहंकार छोड़ के बेगानी आस का ख्याल छोड़ के संत जनों की शरण आ पड़ते हैं, और, हे प्रीतम! सदा तेरा नाम जप-जप के उनके शरीर में से सारे रोग नाश हो जाते हैं।1।

(हे प्रभू! जो मनुष्य तेरी कृपा से संत-जनों की शरण पड़ते हैं, उन) बड़े-बड़े मूर्खों अंजान व अज्ञानियों को भी तू दया करके (विकारों, रोगों से) बचा लेता है। हे नानक! कह- (हे भाई! जिन मनुष्यों को) पूरा गुरू मिल जाता है, (उनके) जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।2।1।126।

नोट: नए संग्रह का यह पहला शबद है।

बिलावलु महला ५ ॥ जीवउ नामु सुनी ॥ जउ सुप्रसंन भए गुर पूरे तब मेरी आस पुनी ॥१॥ रहाउ ॥ पीर गई बाधी मनि धीरा मोहिओ अनद धुनी ॥ उपजिओ चाउ मिलन प्रभ प्रीतम रहनु न जाइ खिनी ॥१॥ अनिक भगत अनिक जन तारे सिमरहि अनिक मुनी ॥ अंधुले टिक निरधन धनु पाइओ प्रभ नानक अनिक गुनी ॥२॥२॥१२७॥ {पन्ना 829}

पद्अर्थ: जीवउ = जीऊँ, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है। सुनी = सुन के। जउ = जब। पुनी = पुग जाती है, पूरी हो जाती है।1। रहाउ।

पीर = पीड़ा। बाधी = बंध गई। मनि = मन में। धीरा = धीरज। अनद धुनी = आनंद की रौंअ से। खिनी = एक छिन वास्ते भी।1।

सिमरहि = सिमरते हैं। टिक = टेक, सहारा। निरधन = कंगाल। अनिक गुनी = हे अनेकों गुणों के मालिक!।2।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का) नाम सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है (पर प्रभू का नाम सिमरने की) मेरी आशा तब पूरी होती है जब पूरा गुरू (मेरे ऊपर) बहुत प्रसन्न होता है।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरू की कृपा से जब मैं नाम जपता हूँ, मेरे अंदर से) पीड़ा दूर हो जाती है, मेरे में हौंसला बन जाता है, मैं (अपने अंदर पैदा हुए) आत्मिक आनंद की रौंअ से मस्त हो जाता हूँ, मेरे अंदर प्रीतम प्रभू को मिलने का चाव पैदा हो जाता है, (वह चाव इतना तीव्र हो जाता है कि प्रभू के मिलाप के बिना) एक छिन भी रहा नहीं जा सकता।1।

हे मालिक! (कह-) हे अनेकों गुणों के मालिक प्रभू! (तेरा नाम) अंधे मनुष्य को, जैसे, छड़ी मिल जाती है, कंगाल को धन मिल जाता है। हे प्रभू! अनेकों ही ऋषि-मुनि तेरा नाम सिमरते हैं। (सिमरन करने वाले) अनेकों ही भक्त अनेकों ही सेवक, हे प्रभू! तूने (संसार-समुंद्र से) पार लंघा दिए हैं।2।2।127।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh