श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 830 रागु बिलावलु महला ५ घरु १३ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मोहन नीद न आवै हावै हार कजर बसत्र अभरन कीने ॥ उडीनी उडीनी उडीनी ॥ कब घरि आवै री ॥१॥ रहाउ ॥ सरनि सुहागनि चरन सीसु धरि ॥ लालनु मोहि मिलावहु ॥ कब घरि आवै री ॥१॥ सुनहु सहेरी मिलन बात कहउ सगरो अहं मिटावहु तउ घर ही लालनु पावहु ॥ तब रस मंगल गुन गावहु ॥ आनद रूप धिआवहु ॥ नानकु दुआरै आइओ ॥ तउ मै लालनु पाइओ री ॥२॥ मोहन रूपु दिखावै ॥ अब मोहि नीद सुहावै ॥ सभ मेरी तिखा बुझानी ॥ अब मै सहजि समानी ॥ मीठी पिरहि कहानी ॥ मोहनु लालनु पाइओ री ॥ रहाउ दूजा ॥१॥१२८॥ {पन्ना 830} पद्अर्थ: मोहन = हे मोहन! हे प्यारे प्रभू! हावै = आह भर के। कजर = काजल। अभरण = आभूषण, गहने। उडीनी = उदास (इन्तजार में)। घरि = घर में। री = हे बहन! हे सुहागण बहन!।1। रहाउ। सुहागनि = गुरमुख सहेली, गुरू। सीसु = सिर। धरि = धर के। लालनु = सोहणे लाल। मोहि = मुझे। घरि = हृदय घर में।1। सहेली = हे सहेली! मिलन बात = मिलने की बात। कहउ = मैं कहती हूँ। सगरो = सारी। अहं = अहंकार। तउ = तब। घर ही = घरि ही, घर में ही ('घरि' की 'रि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। रस = आनंद। मंगल = खुशी। आनद रूपु = वह प्रभू जो निरोल आनंद ही आनंद है। नानकु आइओ = नानक आया है। दुआरै = दर पे।2। रूपु दिखावै = दर्शन देता है, अपना रूप दिखाता है। मोहि = मुझे। नीद = (माया के मोह से) बेपरवाही। सुहावै = सुहाती है। त्रिखा = प्यास, तृष्णा, माया की प्यास। सहजि = आत्मिक अडोलता में। पिरहि = पिर की, प्रभू पति की। रहाउ दूजा।1।128। नोट: नए संग्रह का ये पहला शबद है। पहले 'रहाउ' में प्रश्न किया गया है कि 'कब घरि आवै री'। बंद 2 में मिलाप का तरीका बताया गया है, दूसरे 'रहाउ' में उक्तर दिया है कि 'अहं' मिटाने से 'मोहन लालन पाइओ री'। ये शबद दो बंदों वाला ही है। पड़ताल = पटह ताल (पटन = ढोल) ढोल की तरह खड़क के बजने वाली ताल। अर्थ: हे मोहन प्रभू! (जैसे पति से विछुड़ी हुई स्त्री चाहे जैसे भी) हार, काजल, कपड़े, गहने पहनती है (पर विछोड़े के कारण) आहें भरती (उसे) नींद नहीं आती, (पति के इन्तजार में वह) हर वक्त उदास रहती है, (और सहेली से पूछती है-) हे बहन! (मेरा पति) कब घर आएगा? (इसी तरह, हे मोहन! तुझसे विछुड़ के मुझे शांति नहीं आती)।1। रहाउ। हे मोहन प्रभू! मैं गुरमुख सोहागिन की शरण पड़ती हूँ, उसके चरणों पे (अपना) सिर धर के (पूछती हूँ-) हे बहन! मुझे सोहाना लाल मिला दे (बता, वह) कब मेरे हृदय-घर में आएगा।1। (सोहागिन कहती है-) हे सहेली! सुन, मैं तुझे मोहन-प्रभू मिलन की बात सुनाती हूँ। तू (अपने अंदर से) सारा अहंकार दूर कर दे। तब तू अपने हृदय-घर में उस सोहणे लाल को पा लेगी। (हृदय-घर में उसके दर्शन करके) फिर तू खुशी-आनंद पैदा करने वाले हरी-गुण गाया करना जो सिर्फ आनंद ही आनंद रूप है। हे बहन! नानक (भी उस गुरू के) दर पर आ गया है, (गुरू के दर पर आ के) मैंने (नानक के हृदय-घर में ही) सोहणा लाल पा लिया है।2। हे बहन! (अब) मोहन प्रभू मुझे दर्शन दे रहे हैं, अब (माया के मोह की ओर से पैदा हुई) उपरामता मुझे मीठी लग रही है, मेरी सारी माया की तृष्णा मिट गई है। अब मैं आत्मिक अडोलता में टिक गई हूँ। प्रभू-पति की सिफत-सालाह की बातें मुझे प्यारी लग रही हैं। हे बहन! अब मैंने सोहणा लाल मोहन पा लिया है। रहाउ दूजा।1।128। बिलावलु महला ५ ॥ मोरी अहं जाइ दरसन पावत हे ॥ राचहु नाथ ही सहाई संतना ॥ अब चरन गहे ॥१॥ रहाउ ॥ आहे मन अवरु न भावै चरनावै चरनावै उलझिओ अलि मकरंद कमल जिउ ॥ अन रस नही चाहै एकै हरि लाहै ॥१॥ अन ते टूटीऐ रिख ते छूटीऐ ॥ मन हरि रस घूटीऐ संगि साधू उलटीऐ ॥ अन नाही नाही रे ॥ नानक प्रीति चरन चरन हे ॥२॥२॥१२९॥ {पन्ना 830} पद्अर्थ: मोरी = मेरी। अहं = अहंकार। जाइ = दूर हो जाती है। राचहु = रचे रहो, मिले रहो। सहाई संतना = संतों के सहाई। अब = अब। गहे = पकड़े हैं।1। रहाउ। आहे = चाहता है, पसंद करता है। मन न भावै = मन को अच्छा नहीं लगता (शब्द 'मन' संप्रदान कारक, एकवचन)। अवरु = कोई और पदार्थ। चरनावै = चरनों की ही तरफ आता है। अलि = भँवरा। मकरंद = फूल की धूड़ी। अन = अन्य। लाहै = पाता है।1। ते = से। अन ते = किसी और (पदार्थों के) मोह से। टूटीअै = संबंध तोड़ लेते हैं। रिख = हृषीक, इन्द्रियां। छूअीअै = (पकड़ से) निजात प्राप्त कर लेते हैं। घूटीअै = चूसा जाता है। साधू = गुरू। संगि = संगति में। उलटीअै = (बिरती) परत जाती है। रे = हे भाई!।2। अर्थ: हे भाई! संतों के सहायक पति-प्रभू के चरणों में सदा जुड़े रहो। मैंने तो अब उसी के ही चरण पकड़ लिए हैं। पति-प्रभू के दर्शन करने से अब मेरा अहंकार दूर हो गया है।1। रहाउ। (हे भाई! प्रभू के दर्शन की बरकति से) मेरे मन को और कुछ अच्छा नहीं लगता, (प्रभू के दर्शनों को ही) तड़पता रहता है। जैसे भौंरा कमल-पुष्प के मकरंद पर ही लिपटा रहता है, वैसे ही मेरा मन प्रभू के चरणों की ओर ही बार-बार पलटता है। मेरा मन और (पदार्थों के) स्वाद को नहीं ढूँढता, एक परमात्मा को ही तलाशता है।1। (हे भाई! प्रभू के दर्शन की बरकति से) और (पदार्थों के मोह) संबंध तोड़ लेते हैं, इन्द्रियों की पकड़ से निजात पा लेते हैं। हे मन! गुरू की संगति में रह के परमात्मा का नाम-रस चूसते हैं, और (माया के मोह से बिरती) पलट जाती है। हे नानक! (कह-) हे भाई! (दर्शन की बरकति से) और मोह बिल्कुल ही नहीं भाते, (अगर कोई मोह अच्छा लगता है तो वह है) हर वक्त प्रभू के चरणों से ही प्यार बना रहता है।2।2।129। रागु बिलावलु महला ९ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दुख हरता हरि नामु पछानो ॥ अजामलु गनिका जिह सिमरत मुकत भए जीअ जानो ॥१॥ रहाउ ॥ गज की त्रास मिटी छिनहू महि जब ही रामु बखानो ॥ नारद कहत सुनत ध्रूअ बारिक भजन माहि लपटानो ॥१॥ अचल अमर निरभै पदु पाइओ जगत जाहि हैरानो ॥ नानक कहत भगत रछक हरि निकटि ताहि तुम मानो ॥२॥१॥ {पन्ना 830} पद्अर्थ: पछानो = पछानु, जान पहचान डाल, सांझ डाले रख। हरता = हरने वाला, नाश करने वाला। जिह = जिसको। जीअ जानो = जिंद और जान, हृदय में सांझ डाल। अजामलु = भागवत की कथा है कि ये एक ब्राहमण था कन्नौज का रहने वाला। था कुकर्मी, वैश्वागामी। अपने एक पुत्र का इसने 'नारायण' नाम रख लिया। यहीं से नारायण (परमात्मा) के सिमरन की लगन लग गई। गनिका = एक वैश्वा थी। एक साधू ने इसको एक तोता दिया और कहा कि तोते को 'राम नाम' पढ़ाया कर। उसे वहीं से लिव लग गई।1। रहाउ। गज = भागवत की ही कथा है। एक गंधर्व किसी ऋषी के श्राप से हाथी के जन्म में चला गया। वरुण देवते के तालाब में इसे एक तंदुए ने अपनी तंदों में जकड़ लिया। परमात्मा की ओट ने वहाँ से छुड़ाया और श्राप से भी बचाया। त्रास = डर। बखानो = उचारा। कहत = कहता, उपदेश करता था। लपटानो = मस्त हो गया।1। अचल = अटल। अमर = कभी ना समाप्त होने वाला। निरभै पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई आत्मिक डर छू ना सके। जाहि = जिस से। रछक = रक्षक, रक्षा करने वाला। निकटि = नजदीक, अंग संग। ताहि = उसको। मानो = मानो।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के साथ सांझ डाले रख, ये नाम सारे दुखों का नाश करने वाला है। इस नाम को सिमरते-सिमरते अजामल विकारों से हट गया, गनिका विकारों से मुक्त हो गई। तू भी अपने दिल में उस हरी-नाम के साथ जान-पहचान बनाए रख।1। रहाउ। हे भाई! जब गज ने परमात्मा का नाम उचारा, उसकी बिपदा भी एक पल में दूर हो गई। नारद का दिया हुआ उपदेश सुनते ही बालक ध्रुव परमात्मा के भजन में मस्त हो गया।1। (हरी-नाम के भजन की बरकति से ध्रुव ने) ऐसा आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लिया जो सदा के लिए अटल और अमर हो गया। उसको देख के दुनिया हैरान हो रही है। नानक कहता है- हे भाई! तू भी उस परमात्मा को सदा अपने अंग-संग बसता समझ, वह परमात्मा अपने भक्तों की रक्षा करने वाला है।2।1। बिलावलु महला ९ ॥ हरि के नाम बिना दुखु पावै ॥ भगति बिना सहसा नह चूकै गुरु इहु भेदु बतावै ॥१॥ रहाउ ॥ कहा भइओ तीरथ ब्रत कीए राम सरनि नही आवै ॥ जोग जग निहफल तिह मानउ जो प्रभ जसु बिसरावै ॥१॥ मान मोह दोनो कउ परहरि गोबिंद के गुन गावै ॥ कहु नानक इह बिधि को प्रानी जीवन मुकति कहावै ॥२॥२॥ {पन्ना 830-831} पद्अर्थ: सहस = सहम। चूकै = खत्म होता। भेदु = (जीवन मार्ग की) गहरी बात।1। रहाउ। कहा भइओ = क्या हुआ? कोई फायदा नहीं। तिह = उस (मनष्य) के। मानउ = मानूँ। जसु = यश, सिफत सालाह। जो = जो मनुष्य। जोग = योग साधन। निहफल = व्यर्थ।1। मान = अहंकार। दोनों कउ = दोनों को। परहरि = त्याग के। को = का। इह बिधि को = इस किस्म का (जीवन व्यतीत करने वाला)। प्रानी = मनुष्य। जीवन मुकति = जीते ही विकारों से आजाद।2। अर्थ: हे भाई! गुरू (जीवन-मार्ग की) यह गहरी बात बताता है, कि परमात्मा की भक्ति किए बिना मनुष्य का सहम खत्म नहीं होता, परमात्मा का नाम (सिमरन) के बिना दुख सहता रहता है।1। रहाउ। हे भाई! अगर मनुष्य परमात्मा की शरण नहीं पड़ता, तो उसका तीर्थ-यात्रा करने का कोई लाभ नहीं, वर्त रखने का कोई फायदा नहीं। जो मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह भुला देता है मैं समझता हूँ कि उसके योग-साधना और यज्ञ (आदि कर्मकाण्ड सब) व्यर्थ हैं।1। हे नानक! कह- जो मनुष्य अहंकार और माया का मोह छोड़ के परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गाता रहता है, जो मनुष्य इस किस्म का जीवन व्यतीत करने वाला है, वह जीवन-मुक्त कहलवाता है (वह मनुष्य उस श्रेणी में से गिना जाता है, जो इस जिंदगी में विकारों की पकड़ से बचे रहते हैं)।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |