श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ९ ॥ जा मै भजनु राम को नाही ॥ तिह नर जनमु अकारथु खोइआ यह राखहु मन माही ॥१॥ रहाउ ॥ तीरथ करै ब्रत फुनि राखै नह मनूआ बसि जा को ॥ निहफल धरमु ताहि तुम मानहु साचु कहत मै या कउ ॥१॥ जैसे पाहनु जल महि राखिओ भेदै नाहि तिह पानी ॥ तैसे ही तुम ताहि पछानहु भगति हीन जो प्रानी ॥२॥ कल मै मुकति नाम ते पावत गुरु यह भेदु बतावै ॥ कहु नानक सोई नरु गरूआ जो प्रभ के गुन गावै ॥३॥३॥ {पन्ना 831}

पद्अर्थ: जा महि = जिस मनुष्य (के हृदय) में। को = का। तिह नर = उस मनुष्य ने। अकारथु = व्यर्थ। खोइआ = गवा लिया। यह = यह बात। माही = में। राखहु मन माही = पक्की तरह से याद रखो।1। रहाउ।

फुनि = भी। बसि = वश में। जा के मनूआ = जिसका मन। ताहि = उसका। मानहु = समझो। साचु = सच्ची बात। या कउ = उसको।1।

पाहनु = पत्थर। महि = में। भेदै = भेदता है। तिह = उसको। पछानहु = समझो। हीन = बगैर।2।

कलि महि = संसार में, मानस जनम में। ते = से। मुकति = विकारों से खलासी। भेदु = गहरी बात। गरूआ = भारा, आदर योग।3।

अर्थ: हे भाई! ये बात अच्छी तरह याद रखो कि जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा के नाम का भजन नहीं है उस मनुष्य ने अपनी जिंदगी व्यर्थ ही गवा ली है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य का मन अपने बस में नहीं है, वह चाहे तीर्थों पर स्नान करता है, वर्त भी रखता है, पर तुम (ये तीर्थ वर्त आदि वाला) उसका धर्म व्यर्थ समझो। मैं ऐसे मनुष्य को भी यह सच्ची बात कह देता हूँ।1।

हे भाई! जैसे पत्थर पानी में रखा हुआ हो, उसको पानी भेद नहीं सकता। (पानी उस पर असर नहीं कर सकता), ऐसा ही तुम उस मनुष्य को समझ लो जो प्रभू-भक्ती से वंचित है।2।

हे भाई! गुरू जिंदगी का यह राज बताता है कि मानस जीवन में इन्सान परमात्मा के नाम के द्वारा ही विकारों से खलासी प्राप्त कर सकता है। हे नानक! कह- वही मनुष्य आदरणीय हैं जो परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।3।3।

नोट: बिलावल में गुरू तेग बहादर जी के ये तीन शबद हैं।

बिलावलु असटपदीआ महला १ घरु १०    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ निकटि वसै देखै सभु सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ विणु भै पइऐ भगति न होई ॥ सबदि रते सदा सुखु होई ॥१॥ ऐसा गिआनु पदारथु नामु ॥ गुरमुखि पावसि रसि रसि मानु ॥१॥ रहाउ ॥ गिआनु गिआनु कथै सभु कोई ॥ कथि कथि बादु करे दुखु होई ॥ कथि कहणै ते रहै न कोई ॥ बिनु रस राते मुकति न होई ॥२॥ गिआनु धिआनु सभु गुर ते होई ॥ साची रहत साचा मनि सोई ॥ मनमुख कथनी है परु रहत न होई ॥ नावहु भूले थाउ न कोई ॥३॥ मनु माइआ बंधिओ सर जालि ॥ घटि घटि बिआपि रहिओ बिखु नालि ॥ जो आंजै सो दीसै कालि ॥ कारजु सीधो रिदै सम्हालि ॥४॥ सो गिआनी जिनि सबदि लिव लाई ॥ मनमुखि हउमै पति गवाई ॥ आपे करतै भगति कराई ॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई ॥५॥ रैणि अंधारी निरमल जोति ॥ नाम बिना झूठे कुचल कछोति ॥ बेदु पुकारै भगति सरोति ॥ सुणि सुणि मानै वेखै जोति ॥६॥ सासत्र सिम्रिति नामु द्रिड़ामं ॥ गुरमुखि सांति ऊतम करामं ॥ मनमुखि जोनी दूख सहामं ॥ बंधन तूटे इकु नामु वसामं ॥७॥ मंने नामु सची पति पूजा ॥ किसु वेखा नाही को दूजा ॥ देखि कहउ भावै मनि सोइ ॥ नानकु कहै अवरु नही कोइ ॥८॥१॥ {पन्ना 831}

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। सोई = वही (प्रभू)। बूझै = समझता है। विणु भै पइअै = (परमात्मा के) डर में रहे बिना, मन में परमात्मा का डर अदब ना रहे।1।

गिआनु = (परमात्मा से) गहरी सांझ। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरू की ओर मुँह रखता है। पावसि = हासिल करेगा। रसि = (नाम के) रस में। रसि = रस के, भीग के। मानु = आदर।1। रहाउ।

कथै = कहता है। सभु कोई = हरेक जीव। कथि कथि = (ज्ञान चर्चा) कह कह के। बादु = चर्चा। कथि = कह के। कहणै ते = कहने से। रहै न = हटना नहीं। मुकति = (विकारों से) मुक्ति।2।

गुर ते = गुरू से। धिआनु = प्रभू में सुरति का टिकाव। रहत = आचरण। साचा = सदा स्थिर प्रभू। मनि = मन में। परु = परंतु। नावहु = नाम से।3।

सर जालि = (मोह के) तीरों के जाल में। बंधिओ = बँधा हुआ है। बिखु = माया जहर। आंजै = लाया जाता है, पैदा होता है। कालि = काल में, काल के वश में, आत्मिक मौत के अधीन। कारजु = (मनुष्य जीवन में करने योग्य) काम। सीधो = सफल।4।

जिनि = जिस ने। लिव = लगन। पति = इज्जत। करतै = करतार ने।5।

रैणि = (जिंदगी की) रात। कुचल = गंदे। कछोति = कु+छूत, बुरी छूत वाले। सरोति = शिक्षा। मानै = मानता है, श्रद्धा लाता है।6।

द्रिड़ामं = दृढ़ कराते हैं, ताकीद करते हैं। ऊतमा करमं = श्रेष्ठ कर्म। वसामं = बसाने से।7।

सची = सदा स्थिर रहने वाली। पति = इज्जत। वेखा = मैं देखूँ। देखि = देख के। कहउ = मैं कहता हूँ, मैं सिफत सालाह करता हूँ। सोइ = वह प्रभू।8।

अर्थ: परमात्मा का नाम एक ऐसा श्रेष्ठ पदार्थ है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ पैदा कर देता है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के (ये पदार्थ) हासिल करता है, वह (इसके) रस में भीग के (लोक-परलोक में) आदर पाता है।1। रहाउ।

परमात्मा (हरेक जीव के) नजदीक बसता है, वह स्वयं ही हरेक की संभाल करता है, पर यह भेद कोई विरला बंदा ही समझता है जो गुरू के सन्मुख रह के नाम जपता है। जब तक (यह) डर पैदा ना हो (कि वह हर वक्त नजदीक से देख रहा है) परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। जो बंदे गुरू के शबद के द्वारा (नाम-रंग में) रंगे जाते हैं उनको सदा आत्मिक आनंद मिलता है।1।

(ज़बानी ज़बानी तो) हर कोई कहता है (कि मुझे परमात्मा का) ज्ञान (प्राप्त हो गया है,) ज्ञान (मिल गया है), (ज्यों-ज्यों ज्ञान-ज्ञान) कह के चर्चा करता है (उस चर्चा में से) कलेश ही पैदा होता है। चर्चा करके (ऐसी आदत पड़ जाती है कि) चर्चा करने से जीव हटता भी नहीं। (पर चर्चा से कोई आत्मिक आनंद नहीं मिलता, क्योंकि) परमात्मा के नाम-रस में रंगे जाए बिना विकारों से खलासी नहीं मिलती।2।

परमात्मा के साथ गहरी सांझ और उसमें सुरति का टिकाव- ये सब कुछ गुरू से ही मिलता है। (जिसको मिलता है उसकी) रहनी पवित्र हो जाती है उसके मन में वह सदा-स्थिर प्रभू बस जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा (निरे ज्ञान की बातें) ही करता है, पर उसकी रहनी (पवित्र) नहीं होती। परमात्मा के नाम से टूटे हुए को (माया की भटकना से बचाने के लिए) कोई आसरा नहीं मिलता।3।

माया ने (जीवों के) मन को (मोह के) तीरों के जाल में बाँधा हुआ है। (चाहे परमात्मा) हरेक शरीर में मौजूद है, पर (माया के मोह का) जहर भी हरेक के अंदर ही है, (इस वास्ते) जो भी (जगत में) पैदा होता है वह आत्मिक मौत के वश में दिख रहा है। परमात्मा को हृदय में याद करने से ही (मनुष्य जीवन में) करने योग्य काम सिरे चढ़ते हैं।4।

वही मनुष्य ज्ञान-वान (कहलवा सकता) है जिसने गुरू के शबद के माध्यम से प्रभू के चरणों में सुरति जोड़ी है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अहंकार के अधीन रह के अपनी इज्जत गवाता है। (पर जीव के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही अपनी भक्ति (जीवों से) करवाता है, स्वयं ही (जीव को) गुरू के सन्मुख करके वडिआई (सम्मान) देता है।5।

(सिमरन के बिना मनुष्य की उम्र) एक अंधेरी रात है, परमात्मा की ज्योति के प्रकट होने के साथ ही ये रौशन हो सकती है। नाम से टूटे हुए बंदे झूठे हैं गंदे हैं और बुरी छूत वाले हैं, (भाव, औरों को भी गलत रास्ते पर डाल देते हैं)। वेद आदि हरेक धर्म-पुस्तक भगती की शिक्षा ही पुकार-पुकार के बताता है। जो जो जीव इस शिक्षा को सुन-सुन के श्रद्धा (मन में) बसाता है वह ईश्वरीय ज्योति को (हर जगह) देखता है।6।

स्मृतियाँ-शास्त्र आदि धर्म-पुस्तकें भी नाम-सिमरन की ताकीद करते हैं, जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर सिमरते हैं उनके अंदर शांति पैदा होती है, उनकी रहणी श्रेष्ठ हो जाती है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदेजनम-मरण का दुख सहते हैं, ये बँधन तब ही टूटते हैं जब परमात्मा के नाम को दिल में बसाया जाए।7।

परमात्मा के बिना कोई और (उस जैसा) नहीं है, जो बंदा उसके नाम को (अपने हृदय में) दृढ़ करता है उसको सच्ची इज्जत मिलती है, उसका आदर होता है।

नानक कहता है- मैं हर जगह उसी को देखता हूँ, उसके बिना उस जैसा कोई और नहीं है। उसे (हर जगह) देख के मैं उसकी सिफत सालाह करता हूँ, वही मुझे अपने मन में प्यारा लगता है।8।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh