श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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इहु मनु नाचै सतिगुर आगै अनहद सबद धुनि तूर वजईआ ॥ हरि हरि उसतति करै दिनु राती रखि रखि चरण हरि ताल पूरईआ ॥५॥ हरि कै रंगि रता मनु गावै रसि रसाल रसि सबदु रवईआ ॥ निज घरि धार चुऐ अति निरमल जिनि पीआ तिन ही सुखु लहीआ ॥६॥ {पन्ना 835}

पद्अर्थ: नाचै = नाचता है। नाचै सतिगुर आगै = गुरू के आगे नाचता है, जिधर गुरू चलाए उधर चलता है (ज्यादा तर क्या होता है मनुष्य माया के हाथों में नाचता फिरता है)। अनहद = अन्हत्, बिना बजाए बजने वाला, एक रस, लगातार। धुनि = ध्वनि। तूर = बाजे। उसतति = सिफत सालाह। चरण हरि = हरी के चरण। रखि रखि = बार बार रख के, हर वक्त रख के।5।

(नोट: ताल में नाचने वाले के साथ राग के साज़ भी बजाए जाते हैं। गुरू की रजा में चलना = ये है नाचना। एक रस सिफतसालाह की बाणी की लगन, ये हैं बाजे। प्रभू की याद हर वक्त मन में बसाए रखना, ये है ताल में कदम उठाने)।

कै रंगि = के (प्रेम-) रंग में। रता = रंगा हुआ। रसि = स्वाद से। रसाल = (रसालय) रसों का श्रोत प्रभू। रसालि रसि = परमात्मा के प्रेम में। रविआ = हृदय में बसाए रखता है। निज घरि = अपने (हृदय) घर में। चुअै = टपकती रहती है। अति = बहुत। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिन ही = ('तिनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) उसने ही।6।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) ये मन जिधर गुरू चलाता है उधर को चलता रहता है, (उसके अंदर) सिफत सालाह की बाणी की रौंअ (ध्वनि) के एक-रस बाजे बजते रहते हैं। वह मनुष्य दिन रात हर वक्त परमात्मा की सिफत-सालाह करता रहता है, प्रभू के चरणों को हर वक्त (हृदय में) बसा के (वह मनुष्य के जीवन की चाल को) ताल में चलाए रखता है (बेताला नहीं होता)।5।

हे भाई! प्रभू के (प्रेम-) रंग में रंगा हुआ (जिस मनुष्य का) मन (सिफत-सालाह के गीत) गाता रहता है, रसों के श्रोत प्रभू के प्यार में स्वाद से (जो मनुष्य) गुरू के शबद को जपता रहता है, उस मनुष्य के हृदय में (आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की) बड़ी ही पवित्र धारा टपकती रहती है। जिस मनुष्य ने (यह नाम-जल) पीया उसने ही आत्मिक आनंद प्राप्त किया।6।

मनहठि करम करै अभिमानी जिउ बालक बालू घर उसरईआ ॥ आवै लहरि समुंद सागर की खिन महि भिंन भिंन ढहि पईआ ॥७॥ हरि सरु सागरु हरि है आपे इहु जगु है सभु खेलु खेलईआ ॥ जिउ जल तरंग जलु जलहि समावहि नानक आपे आपि रमईआ ॥८॥३॥६॥ {पन्ना 834}

पद्अर्थ: मन हठि = (अपने) मन के हठ से। करम = (मिथे हुए धार्मिक) कर्म। अभिमानी = अहंकारी (हो जाता है)। बालू = रेत।7।

सरु = सरोवर,तालाब। सागरु = समुंद्र। आपे = स्वयं ही। सभु = सारा। तरंग = लहरें। जलहि = पानी में (जलहि = जलि ही। 'जलि' की 'लि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। समावहि = लीन हो जाती हैं।8।

अर्थ: (जो मनुष्य अपने) मन के हठ से (मिथे हुए धार्मिक) कर्म करता रहता है, उसको (अपने धर्मी होने का) गुमान हो जाता है, (उसके ये उद्यम फिर यूँ ही हैं) जैसे बच्चे रेत के घर उसारते हैं, समुंद्र के पानी की लहर आती है, और वे घर एक पल में तिनका-तिनका हो के ढह जाते हैं।7।

हे भाई! ये सारा जगत (परमात्मा ने) एक तमाशा रचा हुआ है, वह स्वयं ही (जीवन का) सरावर है, समुंद्र है (सारे जीव उस समुंद्र की लहरें हैं)। हे नानक! जैसे (समुंद्र के) पानी की लहरें (समुंद्र का) पानी (ही हैं) पानी में ही मिल जाती हैं (इस तरह) वह सुंदर राम (हर जगह) स्वयं ही स्वयं है।8।3।

बिलावलु महला ४ ॥ सतिगुरु परचै मनि मुंद्रा पाई गुर का सबदु तनि भसम द्रिड़ईआ ॥ अमर पिंड भए साधू संगि जनम मरण दोऊ मिटि गईआ ॥१॥ मेरे मन साधसंगति मिलि रहीआ ॥ क्रिपा करहु मधसूदन माधउ मै खिनु खिनु साधू चरण पखईआ ॥१॥ रहाउ ॥ तजै गिरसतु भइआ बन वासी इकु खिनु मनूआ टिकै न टिकईआ ॥ धावतु धाइ तदे घरि आवै हरि हरि साधू सरणि पवईआ ॥२॥ {पन्ना 835}

पद्अर्थ: परचै = प्रसन्न हो जाता है (जिन मनुष्यों पर)। मनि = मन में। तनि = तन पे। भसम = राख। द्रिढ़ईआ = (हृदय में) दृढ़ करके बसा लिया। अमर = अ+मर, ना मरने वाले। पिंड = शरीर। अमर पिंड = मौत रहित शरीरों वाले, जनम मरण के चक्करों से बचे हुए। साधू संगि = गुरू की संगति में। दोऊ = दोनों ही।1।

मन = हे मन! मिलि = मिल के। मध सूदन = हे मघु सूदन! हे मधू राक्षस को मारने वाले! माधउ = (मा+धव, धव = पति) हे माया के पति! पखईआ = मैं धोता रहूँ।1। रहाउ।

तजै = त्यागता है, छोड़ देता है। बनवासी = जंगल का वासी। धावतु = भटकता मन। धाइ = भटक के, दौड़ के। तदे = तब ही। घरि = घर में। साधू = गुरू।2।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरू की संगति में मिल के रहना चाहिए (और आरजू करते रहना चाहिए कि) हे मधुसूदन! हे माधव! (मेरे पर) मेहर कर, मैं हर वक्त गुरू के चरण धोता रहूँ (हर वक्त गुरू की शरण पड़ा रहूँ)।1। रहाउ।

हे भाई! (जिन मनुष्यों पर) गुरू प्रसन्न हो जाता है (गुरू की यह प्रसन्नता उनके अपने) मन में (जोगियों वाली) मुंद्रे डाली हुई है, गुरू का शबद (जो उन्होंने अपने हृदय में) दृढ़ करके बसाया हुआ है (ये उन्होंने अपने) शरीर पर (जैसे) राख मली हुई है। (इस तरह) गुरू की संगति में रह के वे जनम-मरण के चक्कर से बच गए हैं, उनके जनम और मौत दोनों ही समाप्त हो गए हैं।1।

पर, हे भाई! (जो मनुष्य) गृहस्त छोड़ जाता है और जंगल का वासी बनता है (इस तरह उसका) मन (तो) टिकाएं तो भी एक छिन-पल के लिए भी नहीं टिकता। हे भाई! ये भटकता मन भटक-भटक के तब ही ठहराव में आता है, जब मनुष्य परमात्मा की गुरू की शरण पड़ता है।2।

धीआ पूत छोडि संनिआसी आसा आस मनि बहुतु करईआ ॥ आसा आस करै नही बूझै गुर कै सबदि निरास सुखु लहीआ ॥३॥ उपजी तरक दिग्मबरु होआ मनु दह दिस चलि चलि गवनु करईआ ॥ प्रभवनु करै बूझै नही त्रिसना मिलि संगि साध दइआ घरु लहीआ ॥४॥ {पन्ना 835}

पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। मनि = मन में। करै = करता है। बूझै = समझता। कै सबदि = के शबद से। निरास = आशा रहित हो के।3।

तरक = नफरत। दिगंबरु = (दिग+अंबर। दिग = दिशा। अंबरु = कपड़ा) जिसने चारों दिशाओं को ही कपड़ा बनाया है, नांगा, जैनी। दहदिस = दसों दिशाओं में। चलि चलि = जा जा के, भटक भटक के। गवनु = रटन, दौड़ भाग। प्रभवनु = (सारे देशों का) रटन। मिलि = मिल के। दइआ घरु = दया का घर, दया का श्रोत हरी।4।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) पुत्री-पुत्रों (परिवार) को छोड़ के सन्यासी जा बनता है (वह तो फिर भी अपने) मन में अनेकों आशाएं बनाता रहता है, नित्य आशाएं बुनता है (इस तरह सही आत्मिक जीवन को) नहीं समझता। पर, हाँ! गुरू के शबद के द्वारा दुनियाँ की आशाओं से ऊपर उठ कर मनुष्य आत्मिक आनंद भोग सकता है।3।

हे भाई! (कोई मनुष्य ऐसा है जिसके मन में दुनिया के प्रति) नफरत पैदा होती है, वह नांगा साधू बन जाता है, (फिर भी उसका) मन दसों दिशाओं में दौड़-दौड़ के भटकता फिरता है, (वह मनुष्य धरती पर) रटन करता फिरता है, (उसकी माया की) तृष्णा (फिर भी) नहीं मिटती। हाँ, गुरू की संगति में मिल के मनुष्य दया के श्रोत परमात्मा को पा लेता है।4।

आसण सिध सिखहि बहुतेरे मनि मागहि रिधि सिधि चेटक चेटकईआ ॥ त्रिपति संतोखु मनि सांति न आवै मिलि साधू त्रिपति हरि नामि सिधि पईआ ॥५॥ अंडज जेरज सेतज उतभुज सभि वरन रूप जीअ जंत उपईआ ॥ साधू सरणि परै सो उबरै खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु चंडालु चंडईआ ॥६॥ {पन्ना 835}

पद्अर्थ: सिध = सिद्ध (योग साधना में) सिद्धहस्त जोगी। सिखहि = सीखते हैं। मनि = मन में। मागहि = मांगते हैं। रिधि सिधि = रिद्धियां सिद्धियां, करामाती ताकतें। चेटक = करामाती तमाशे। तिपति = (माया से) तृप्ति। मनि = मन में। मिलि साधू = गुरू को मिल के। सिधि = सफलता।5।

अंडज = अण्डों से पैदा होने वाले। जेरज = जियोर से (गर्भ से) पैदा होने वाले। सेतज = पसीने से पैदा होने वाले। उतभुज = उद्भिज्ज, धरती में से फूटने वाले। सभि = सारे। वरन = रंग। परै = पड़ता है। उबरै = (संसार समुंद्र से) बच निकलता है।6।

अर्थ: हे भाई! (जो साधनों में) पहॅुंचे हुए जोगी अनेकों आसन सीखते हैं (शीर्ष आसन, पदम् आसन आदि), पर वह भी अपने मन में करामाती ताकतों व नाटक-चेटक (करामाती प्रदर्शन) ही माँगते रहते हैं (जिससे वे आम जनता पर अपना प्रभाव डाल सकें)। (उनके) मन में माया की ओर से तृप्ति नहीं होती, उन्हें संतोष नहीं प्राप्त होता, मन में शांति नहीं आती। हाँ, गुरू को मिल के परमात्मा के नाम से मनुष्य तृप्ति हासिल कर लेता है, आत्मिक जीवन की सफलता प्राप्त कर लेता है।5।

हे भाई! अण्डों में से पैदा होने वाले, जियोर में से पैदा होने वाले, पसीने में से पैदा होने वाले, धरती में से फूटने वाले- ये सारे अनेकों रूप-रंगों के जीव-जंतु परमात्मा के पैदा किए हुए हैं। (इनमें से जो जीव) गुरू की शरण आ पड़ता है, वह (संसार-समुंद्र में से) बच निकलता है, चाहे वह खत्री है चाहे ब्राहमण है, चाहे शूद्र है, चाहे वैश्य है, चाहे महा चण्डाल है।6।

नामा जैदेउ क्मबीरु त्रिलोचनु अउजाति रविदासु चमिआरु चमईआ ॥ जो जो मिलै साधू जन संगति धनु धंना जटु सैणु मिलिआ हरि दईआ ॥७॥ संत जना की हरि पैज रखाई भगति वछलु अंगीकारु करईआ ॥ नानक सरणि परे जगजीवन हरि हरि किरपा धारि रखईआ ॥८॥४॥७॥ {पन्ना 835}

पद्अर्थ: अउजाति = नीच जाति वाला। साधू जन संगति = संत जनों की संगति में। धनु = धन्य, भाग्यों वाला। दइआ = दया का घर प्रभू।7।

पैज = इज्जत। भगति वछलु = भगती से प्यार करने वाला हरी। अंगीकारु = पक्ष। सरणि जग जीवन = जगत के जीवन प्रभू की शरण। रखईआ = रक्षा करता है।8।

अर्थ: हे भाई! नामदेव, जैदेव, कबीर, त्रिलोचन, नीच जाति वाला रविदास, धन्ना जाट, सैण (नाई) - जो जो भी संत जनों की संगति में मिलता आया है, वह भाग्यशाली बन गया, वह दया के श्रोत परमात्मा को मिल गया।7।

हे नानक! (कह- हे भाई!) परमात्मा भगती से प्यार करने वाला है, अपने संतजनों की सदा लाज रखता आया है, संत जनों का पक्ष करता आया है। जो मनुष्य जगत के जीवन प्रभू की शरण पड़ते हैं, मेहर करके (प्रभू) उनकी रक्षा करता है।8।4।

बिलावलु महला ४ ॥ अंतरि पिआस उठी प्रभ केरी सुणि गुर बचन मनि तीर लगईआ ॥ मन की बिरथा मन ही जाणै अवरु कि जाणै को पीर परईआ ॥१॥ राम गुरि मोहनि मोहि मनु लईआ ॥ हउ आकल बिकल भई गुर देखे हउ लोट पोट होइ पईआ ॥१॥ रहाउ ॥ हउ निरखत फिरउ सभि देस दिसंतर मै प्रभ देखन को बहुतु मनि चईआ ॥ मनु तनु काटि देउ गुर आगै जिनि हरि प्रभ मारगु पंथु दिखईआ ॥२॥ {पन्ना 835-836}

पद्अर्थ: अंतरि = (मेरे) अंदर। पिआस = तमन्ना। प्रभ केरी = प्रभू (को मिलने) की। सुणि = सुन के। मनि = (मेरे) मन में। बिरहा = पीड़ा। मन ही = मनु ही ('मनु' की 'नु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। जाणै = जानता है। अवरु को = कोई और। कि = क्या? परईआ = पराई।1।

राम = हे (मेरे) राम! गुरि = गुरू ने। मोहनि = मोहन ने। गुरि मोहनि = मोहन गुरू ने, प्यारे गुरू ने। मोहि लीआ = मोह लिया, अपने वश में कर लिया है। हउ = मैं। आकल बिकल = (disturbed, unnerved) व्याकुल, घबराई हुई। आकल बिकल भई = अपनी चतुराई समझदारी गवा बैठी हूँ। लोट पोट = काबू से बाहर, अपने मन के काबू से बाहर।1। रहाउ।

निरखत फिरउ = (फिरूँ) मैं तलाशती फिरती हूँ। सभि = सारे। दिसंतर = देश+अंतर, देशान्तर। को = का। मनि = (मेरे) मन में। चईआ = चाव। काटि = काट के। देउ = देऊँ। जिनि = जिस (गुरू) ने। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। दिखईआ = दिखा दिया है।2।

अर्थ: हे (मेरे) राम! प्यारे गुरू ने (मेरा) मन अपने वश में कर लिया है। गुरू के दर्शन करके (अब) मैं अपनी चतुराई समझदारी गवा बैठी हूँ, मेरा अपना आप मेरे वश में नहीं रहा (मेरा मन और मेरी ज्ञान इन्द्रियां गुरू के वश में हो गई हैं)।1। रहाउ।

हे भाई! गुरू के बचन सुन के (ऐसे हुआ है जैसे मेरे) मन में (बिरह के) तीर लग गए हैं, मेरे अंदर प्रभू के दर्शन की तमन्ना पैदा हो गई है। हे भाई! (मेरे) मन की (इस वक्त की) पीड़ा को (मेरा अपना) मन ही जानता है। कोई और पराई पीड़ा को क्या जान सकता है?।1।

हे भाई! (मेरे) मन में प्रभू के दर्शन करने की तीव्र इच्छा पैदा हो चुकी है, मैं सारे देशों-देशांतरों में (उसको) तलाशती फिरती हूँ (थी)। जिस (गुरू) ने (मुझे) प्रभू (के मिलाप) का रास्ता दिखा दिया है, उस गुरू के आगे मैंअपना तन काट के भेट कर रही हूँ (अपना आप गुरू के हवाले कर रही हूँ)।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh