श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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लोभि मोहि बाधी देह ॥ बिनु भजन होवत खेह ॥ जमदूत महा भइआन ॥ चित गुपत करमहि जान ॥ दिनु रैनि साखि सुनाइ ॥ नानका हरि सरनाइ ॥३॥ भै भंजना मुरारि ॥ करि दइआ पतित उधारि ॥ मेरे दोख गने न जाहि ॥ हरि बिना कतहि समाहि ॥ गहि ओट चितवी नाथ ॥ नानका दे रखु हाथ ॥४॥ हरि गुण निधे गोपाल ॥ सरब घट प्रतिपाल ॥ मनि प्रीति दरसन पिआस ॥ गोबिंद पूरन आस ॥ इक निमख रहनु न जाइ ॥ वड भागि नानक पाइ ॥५॥ {पन्ना 838}

पद्अर्थ: लोभि = लोभ से, लोभ में। मोहि = मोह में। देह = शरीर। खेह = मिट्टी, राख। भइआन = भयानक, डरावने। चित गुपत = चित्रगुप्त। करमहि = (मेरे) कर्मों को। रैनि = रात। साखि = गवाही। सुनाइ = सुना के। हरि = हे हरी!।3।

भै = ('भउ' का बहुवचन) सारे डर। मुरारि = हे प्रभू! भै भंजना = हे सारे डर नाश करने वाले! करि = कर के। पतित = विकारी। उधारि = बचा ले। दोख = ऐब, पाप। कतहि = और कहाँ? समाहि = समा सकते हैं, माफ हो सकते हैं। गहि = पकड़ ले (मेरी बाँह)। ओट = आसरा। चितवी = (मैंने) सोची है। नाथ = हे नाथ! दे हाथ = हाथ दे के।4।

गुण निधे = हे गुणों के खजाने! गोपाल = हे सृष्टि के पालनहार! घट = शरीर। प्रतिपाल = हे पालने वाले! मनि = (मेरे) मन में। पिआस = तमन्ना। पूरन आस = आशा पूरी कर। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। वड भागि = बड़ी किस्मत से। पाइ = (तेरा मिलाप) हासिल कर सकता हूँ।5।

अर्थ: हे नानक! (कह-) हे हरी! मैं तेरी शरण आया हूँ। मेरा शरीर लोभ में मोह में फंसा हुआ है, (तेरा) भजन किए बिना मिट्टी हुआ जा रहा है। (मुझे) जमदूत बड़े ही डरावने (लग रहे हैं)। चित्रगुप्त (मेरे) कर्मों को जानते हैं। दिन और रात (ये भी मेरे कर्मों की) गवाही दे के (यही कह रहे हैं कि मैं कुकर्मी हूँ)।3।

हे नानक! (कह-) हे सारे डरों को नाश करने वाले प्रभू! मेहर करके (मुझ) विकारी को (विकारों से) बचा ले। मेरे विकार गिने नहीं जा सकते (अनगिनत हैं)। हे हरी! तेरे बिना किसी और के दर पर भी ये बख्शे नहीं जा सकते। हे नाथ! मैंने तेरा ही आसरा सोचा है, (मेरी बाँह) पकड़ ले, (अपना) हाथ दे के मेरी रक्षा कर।4।

हे नानक! (कह-) हे हरी! हे गुणों के खजाने! हे धरती के रक्षक! हे सब शरीरों के पालनहार! हे गोबिंद! (मेरे मन की) आस पूरी कर, (मेरे) मन में (तेरी) प्रीति (बनी रहे, तेरे) दर्शनों की चाहत (बनी रहे, तेरे दर्शन के बिना मुझसे) एक पल भर के लिए भी रहा नहीं जा सकता। बहुत भाग्यों से ही कोई तेरा मिलाप प्राप्त करता है।5।

प्रभ तुझ बिना नही होर ॥ मनि प्रीति चंद चकोर ॥ जिउ मीन जल सिउ हेतु ॥ अलि कमल भिंनु न भेतु ॥ जिउ चकवी सूरज आस ॥ नानक चरन पिआस ॥६॥ {पन्ना 838}

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! मनि = (मेरे) मन में। मीन = मछली। सिउ = से। हेतु = प्यार। अलि = भौरा। कमल = कमल का फूल। भिंनु = अलग। भेतु = दूरी। पिआस = चाहत, तमन्ना। भिंनु भेतु = भिन्न भेद, फर्क।6।

अर्थ: हे नानक! (कह-) हे प्रभू! तेरे बिना (मेरा कोई) और (आसरा) नहीं है। (मेरे) मन में (तेरे चरणों की) प्रीति है (जैसे) चकोर को चाँद से प्यार है, जैसे मछली को पानी से प्यार है, (जैसे) भौंरे का कमल पुष्प् से कोई फर्क नहीं रह जाता, जैसे चकवी को सूर्य (उदय) की उम्मीद लगी रहती है (इसी तरह, हे प्रभू! मुझे तेरे) चरणों की चाहत है।6।

जिउ तरुनि भरत परान ॥ जिउ लोभीऐ धनु दानु ॥ जिउ दूध जलहि संजोगु ॥ जिउ महा खुधिआरथ भोगु ॥ जिउ मात पूतहि हेतु ॥ हरि सिमरि नानक नेत ॥७॥ जिउ दीप पतन पतंग ॥ जिउ चोरु हिरत निसंग ॥ मैगलहि कामै बंधु ॥ जिउ ग्रसत बिखई धंधु ॥ जिउ जूआर बिसनु न जाइ ॥ हरि नानक इहु मनु लाइ ॥८॥ {पन्ना 838}

पद्अर्थ: तरुनि = जवान स्त्री। भरत = पति। परान = प्राण, जिंद, बहुत प्यारा। लोभीअै = लोभी को, लालची मनुष्य को। दानु = दिया जाना, प्राप्ति। जलहि = पानी से। संजोगु = मिलाप। खुधियारथ = छुद्धार्थ, भुखे को। भोगु = भोजन। पूतहि = पुत्र से। हेतु = प्यार। नेत = नित्य, सदा।7।

दीप = दीया। पतन = गिरना (पत् = जव सिंस)। पतंग = पतंगा। हिरत = चुराता है। निसंग = शर्म उतार के। मैगल = हाथी। कामै बंदु = काम वासना का मेल। बंधु = सम्बंध, मेल। ग्रसत = ग्रसता है, काबू किए रखता है। धंधु = (विषियों का) धंधा। बिखई = विषयी (मनुष्य) को। बिसनु = (व्यसन) बुरी आदत। लाइ = जोड़े रख।8।

अर्थ: हे नानक! (कह- हे भाई!) जैसे जवान स्त्री को (अपना) पति बहुत प्यारा होता है, जैसे लालची मनुष्य को धन-प्राप्ति (से खुशी मिलती है), जैसे दूध का पानी से मिलाप हो जाता है, जैसे बहुत भूखे को भोजन (तृप्त कर देता है), जैसे माँ का पुत्र से प्यार होता है, वैसे ही सदा परमात्मा को (प्यार से, स्नेह से) सिमरा कर।7।

हे नानक! (कह- हे भाई!) जैसे (प्रेम में बँधे हुए) पतंगे दीए पर गिरते हैं, जैसे चोर शर्म त्याग के चोरी करता है, जैसे हाथी का काम-वासना के साथ मेल है, जैसे (विषियों का) धंधा विषयी मनुष्य को ग्रसे रखता है, जैसे जुआरी की (जूआ खेलने की) बुरी आदत दूर नहीं होती, वैसे ही (अपने) इस मन को (प्रभू-चरणों में प्यार से, स्नेह से) जोड़े रख।8।

कुरंक नादै नेहु ॥ चात्रिकु चाहत मेहु ॥ जन जीवना सतसंगि ॥ गोबिदु भजना रंगि ॥ रसना बखानै नामु ॥ नानक दरसन दानु ॥९॥ गुन गाइ सुनि लिखि देइ ॥ सो सरब फल हरि लेइ ॥ कुल समूह करत उधारु ॥ संसारु उतरसि पारि ॥ हरि चरन बोहिथ ताहि ॥ मिलि साधसंगि जसु गाहि ॥ हरि पैज रखै मुरारि ॥ हरि नानक सरनि दुआरि ॥१०॥२॥ {पन्ना 838}

पद्अर्थ: कुरंक = हिरन। नादै नेहु = नाद का प्यार। नाद = खाल से मढ़े हुए घड़े की आवाज। चात्रिकु = पपीहा। मेहु = वर्षा। सतसंगि = सत्संग में। रंगि = प्यार में। बखानै = उचारता है। दरसन दानु = दर्शन की दाति।9।

गाइ = गा के। सुनि = सुन के। लिखि = लिख के। देइ = देता है। सरब फल हरि = सारे फल देने वाला हरी। लेइ = (मिलाप) हासल करता है। कुल समूह = सारी कुलों को। उधारु = पार उतारा। उतरसि = पार लांघ जाता है। बोहिथ = जहाज़। ताहि = उनके वास्ते। मिलि = मिल के। साध संगि = गुरू की संगति में। जसु = सिफत सालाह। गाहि = गाते हैं (बहुवचन)। पैज = लाज इज्जत। दुआरि = दर पे।10।

अर्थ: जैसे हिरन का घंडेखेड़े की आवाज़ से प्यार होता है, जैसे पपीहा (हर वक्त) वर्षा माँगता है, वैसे ही, हे नानक! (परमात्मा के) सेवक का (सुखी) जीवन साध-संगति में (ही होता) है, सेवक प्यार से परमात्मा (के नाम) को जपता है, (अपनी) जीभ से (परमात्मा का) नाम उचारता रहता है और (परमात्मा के) दर्शनों की दाति (माँगता रहता है)।9।

जो मनुष्य (परमात्मा के) गुण गा गा के, सुन के, लिख के (यह दाति औरों को भी) देता है, वह मनुष्य सारे फल देने वाले प्रभू का मिलाप प्राप्त कर लेता है। वह मनुष्य (अपनी) सारी कुलों का (ही) पार-उतारा करवा लेता है, वह मनुष्य संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।

हे नानक! जो मनुष्य गुरू की संगति में मिल के परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गाते रहते हैं, (संसार-समुंद्र से पार लांघने के लिए) परमात्मा के चरण उनके लिए जहाज़ (का काम देते) हैं। मुरारी प्रभू उनकी लाज रखता है, वे हरी की शरण पड़े रहते हैं, वे हरी के दर पर टिके रहते हैं।10।2।

बिलावलु महला १ थिती घरु १० जति    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ एकम एकंकारु निराला ॥ अमरु अजोनी जाति न जाला ॥ अगम अगोचरु रूपु न रेखिआ ॥ खोजत खोजत घटि घटि देखिआ ॥ जो देखि दिखावै तिस कउ बलि जाई ॥ गुर परसादि परम पदु पाई ॥१॥ {पन्ना 838-839}

थिती = तिथिएं ('थिति' का बहुवचन 'थिती')। थिति = a lunar day, चाँद के कम होने बढ़ने के हिसाब से दिन ।

(नोट: पूरनमासी को चाँद वाला महीना पूरा हो जाता है। आगे नया महीना चढ़ता है-वदी, ऐकम, दूज, तीज आदि...)।

जति = जोड़ी (तबला) बजाने की एक गति।

पद्अर्थ: ऐकम = चाँद के महीने की पहली तारीख। निराला = (निर+आलय) जिसका कोई खास घर नहीं। जाला = जाल, बंधन। अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं। रूपु = शकल। रेखिआ = निशान। घटि घटि = हरेक शरीर में। जो = जो (गुरू)। बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पाई = मैं प्राप्त कर सकता हूँ। परसादि = कृपा से।1।

तिस कउ: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'कउ' के कारण हट गई है।

अर्थ: परमात्मा एक है (उसके बराबर का और कोई नहीं)। उसका कोई खास घर नहीं, वह कभी मरता नहीं, वह जूनियों में नहीं आता, उसकी कोई खास जाति नहीं, उसको (माया आदि का) कोई बंधन नहीं (व्यापता)। वह एक परमात्मा अपहुँच है, (मनुष्य के) ज्ञान-इन्द्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती, (क्योंकि) उसकी कोई खास शक्ल नहीं, कोई खास निशान (चिन्ह) नहीं। पर तलारश करते-करते उसे हरेक शरीर में देखा जा सकता है।

मैं उस (गुरू) से सदके जाता हूँ जो (हरेक शरीर में प्रभू को) देख के (औरों को भी) दिखा देता है। गुरू की कृपा से (ही उसके हरेक शरीर में दर्शन करने की) ऊँची से ऊँची पदवी मैं प्राप्त कर सकता हूँ।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh