श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सेज एक एको प्रभु ठाकुरु महलु न पावै मनमुख भरमईआ ॥ गुरु गुरु करत सरणि जे आवै प्रभु आइ मिलै खिनु ढील न पईआ ॥५॥ करि करि किरिआचार वधाए मनि पाखंड करमु कपट लोभईआ ॥ बेसुआ कै घरि बेटा जनमिआ पिता ताहि किआ नामु सदईआ ॥६॥ {पन्ना 837}

पद्अर्थ: सेज = हृदय की सेज। महलु = ठिकाना। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव स्त्री। भरमईआ = भटकती है। करत = करते हुए। आइ = आ के। ढील = देर।5।

करि = कर के। करि करि = बार बार करके। किरिआचार = क्रिया+आचार, कर्म काण्ड। मनि = मन में। पाखण्ड = दिखावा। कपट = धोखा, छल। बेसुआ = बाज़ारी औरत। कै घरि = के घर में। ताहि पिता नामु = उसके पिता का नाम। किआ सदईआ = क्या कहा जा सकता है?।6।

अर्थ: हे सखिए! (जीव-स्त्री की) एक हृदय ही सेज है जिस पर ठाकुरु-प्रभू खुद ही बसता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री (प्रभू-पति का) ठिकाना नहीं पा सकती, वह भटकती ही फिरती है। अगर वह 'गुरू गुरू' करती गुरू की शरण आ पड़े, तो प्रभू आ के उस को मिल पड़ता है, थोड़ा सा भी वक्त नहीं लगता।5।

पर यदि कोई मनुष्य (गुरू का आसरा छोड़ के हरी नाम का सिमरन भुला के) बार-बार (तीर्थ-यात्रा आदि के मिथे हुए धार्मिक कर्म) करके इन कर्म-काण्डी कर्मों को ही बढ़ाता जाए, तो उसके मन में लोभ छल-कपट दिखावे आदि का कर्म ही टिका रहेगा (पति-प्रभू का मिलाप नहीं होगा)। बाजारी औरत (वैश्या) के घर अगर पुत्र पैदा हो जाए तो उस पुत्र के पिता का कोई नाम नहीं बताया जा सकता।6।

पूरब जनमि भगति करि आए गुरि हरि हरि हरि हरि भगति जमईआ ॥ भगति भगति करते हरि पाइआ जा हरि हरि हरि हरि नामि समईआ ॥७॥ प्रभि आणि आणि महिंदी पीसाई आपे घोलि घोलि अंगि लईआ ॥ जिन कउ ठाकुरि किरपा धारी बाह पकरि नानक कढि लईआ ॥८॥६॥२॥१॥६॥९॥ {पन्ना 837}

पद्अर्थ: पूरब जनमि = पिछले जनम में। करि = कर के। आऐ = (मनुष्य जनम में) आ गए। गुरि = गुरू ने। भगति जमईआ = (परमात्मा की) भगती (का बीज उनके अंदर) बो दिया। करते = करते हुए। भगति भगति करते = हर समय भक्ति करते हुए। नामि = नाम में।7।

प्रभि = प्रभू ने। आणि = ला के। आपे = स्वयं ही। घोलि = घोल के। अंगि = शरीर पर। ठाकुरि = ठाकुर ने। पकरि = पकड़ के।8।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) पिछले जनम में (परमात्मा की) भक्ति करके (अब मानस जन्म में) आए हैं, गुरू ने (उनके अंदर) हर वक्त भक्ति करने का बीज बो दिया है। जब वे हर समय हरी-नाम सिमरते-सिमरते हरी-नाम में लीन हो गए, तब हर वक्त भक्ति करते हुए उनका परमात्मा से मिलाप हो गया।7।

(पर, हे भाई! परमात्मा की भक्ति करना जीव के अपने इख़ि्तयार की बात नहीं है। ये मेहनत, ये कमाई, प्रभू की मेहर से ही हो सकती है। प्रभू की भक्ति करनी, मानो, महिंदी को पीसने के समान है। स्त्री मेहंदी को खुद ही पीसती है, खुद ही घिसती है, और खुद ही उसको अपने हाथों पैरों पर लगाती है। वह स्वयं ही मेहंदी को इस काबिल बनाती है कि वह उस स्त्री के अंगों पर लग सके)। प्रभू ने खुद ही (जीव के मन को अपने चरणों में) लगा-लगा के (भक्ति करने की) मेहंदी (जीव से) पिसवाई है, फिर स्वयं ही उसकी भक्ति-रूपी मेहंदी को घोल-घोल के (रंगीली प्यार-भरी बना-बना के) अपने चरणों में उसे जोड़ा है। हे नानक! (कह- हे भाई!) जिन पर मालिक-प्रभू ने मेहर की, उनकी बाँह पकड़ के (उनको संसार-समुंद्र में से बाहर) निकाल लिया।8।6।9।

गिनती का वेरवा:
असटपदीयां महला १--------------- 2
असटपदीयां महला ३--------------- 1
असटपदीयां महला ४--------------- 6 कुल जोड़ 9


रागु बिलावलु महला ५ असटपदी घरु १२    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ उपमा जात न कही मेरे प्रभ की उपमा जात न कही ॥ तजि आन सरणि गही ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभ चरन कमल अपार ॥ हउ जाउ सद बलिहार ॥ मनि प्रीति लागी ताहि ॥ तजि आन कतहि न जाहि ॥१॥ हरि नाम रसना कहन ॥ मल पाप कलमल दहन ॥ चड़ि नाव संत उधारि ॥ भै तरे सागर पारि ॥२॥ मनि डोरि प्रेम परीति ॥ इह संत निरमल रीति ॥ तजि गए पाप बिकार ॥ हरि मिले प्रभ निरंकार ॥३॥ प्रभ पेखीऐ बिसमाद ॥ चखि अनद पूरन साद ॥ नह डोलीऐ इत ऊत ॥ प्रभ बसे हरि हरि चीत ॥४॥ {पन्ना 837}

पद्अर्थ: उपमा = वडिआई। जात न कही = बयान नहीं की जा सकती। तजि = त्याग के। आन = अन्य, और (आसरे)। गही = (मैंने) पकड़ी है।1। रहाउ।

प्रभ अपार = बेअंत प्रभू के। हउ = मैं। जाउ = मैं जाता हूँ। सद = सदा। मनि = (जिनके) मन में। ताहि = उस (प्रभू) की। आन कतहि = किसी भी और जगह। जाहि = जाते (बहुवचन)।

रसना = जीभ (से)। कहन = उचारना। कलमल = पाप। दहन = जलना। नाव = बेड़ी। ('हरि नाम कहन' वाली) बेड़ी। चढ़ि = चढ़ के। उधारि = (डूबने से) बचा लिए गए। भै सागर पारि = भयानक (संसार-) समुंद्र से पार। तरे = पार लांघ गए।2।

मनि = मन में। डोरि = डोरी, तार, लगन। निरमल रीति = पवित्र करने वाली मर्यादा। निरंकार = आकार रहित प्रभू (को)।3।

पेखीअै = देखा जा सकता है, दर्शन कर सकते हैं। प्रभू बिसमाद = आश्चर्य रूप प्रभू को। चखि = चख के। सादु = स्वाद। आनद पूरन साद = पूर्ण आनंद स्वरूप प्रभू (के नाम रस का) स्वाद। नह डोलिअै = नहीं डोलता। इत = इस लोक में। ऊत = परलोक में। चीत = चिक्त में।4।

अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभू की महिमा बयान नहीं की जा सकती, (किसी हालत में भी) बयान नहीं की जा सकती। हे भाई! (मैंने तो) और आसरे त्याग के प्रभू का ही आसरा लिया है।1। रहाउ।

हे भाई! मैं (तो) सदा बेअंत प्रभू के सुंदर चरणों से सदके जाता हूँ। हे भाई! (जिन मनुष्यों के) मन में उस (प्रभू के) प्रति प्यार पैदा हो जाता है, (वे मनुष्य प्रभू का दर) छोड़ के किसी और जगह नहीं जाते।1।

हे भाई! जीभ से परमात्मा का नाम उचारना अनेकों पापों-विकारों की मैल को जलाना है। (अनेकों मनुष्य 'हरि नाम कहन' वाली) संत जनों की (इस) बेड़ी में चढ़ के (विकारों में डूबने से) बचा लिए जाते हैं (हरी-नाम सिमरन की बेड़ी में चढ़ के) भयानक संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।2।

हे भाई! (अपने) मन में (प्रभू चरणों के लिए) प्यार भरी लगन पैदा करनी- संत जनों द्वारा बताई हुई इस (जीवन को) पवित्र करने वाली मर्यादा है। (जो मनुष्य ये लगन पैदा करते हैं, वे) सारे पापों-विकारों का साथ छोड़ जाते हैं, वे मनुष्य हरी-प्रभू निरंकार को जा मिलते हैं।3।

हे भाई! पूर्ण आनंद स्वरूप प्रभू (के नाम-रस) का स्वाद चख के आश्चर्य-रूप् प्रभू के दर्शन कर सकते हैं। हे भाई! अगर हरी-प्रभू जी हृदय में बसे रहें, तो इस लोक में और परलोक में (विकारों के हमलों के सामने) घबराहट नहीं होती।4।

तिन्ह नाहि नरक निवासु ॥ नित सिमरि प्रभ गुणतासु ॥ ते जमु न पेखहि नैन ॥ सुनि मोहे अनहत बैन ॥५॥ हरि सरणि सूर गुपाल ॥ प्रभ भगत वसि दइआल ॥ हरि निगम लहहि न भेव ॥ नित करहि मुनि जन सेव ॥६॥ दुख दीन दरद निवार ॥ जा की महा बिखड़ी कार ॥ ता की मिति न जानै कोइ ॥ जलि थलि महीअलि सोइ ॥७॥ करि बंदना लख बार ॥ थकि परिओ प्रभ दरबार ॥ प्रभ करहु साधू धूरि ॥ नानक मनसा पूरि ॥८॥१॥ {पन्ना 837}

पद्अर्थ: सिमरि = सिमर के। गुण तासु = सारे गुणों का खजाना। ते = वह बंदे (बहुवचन)। न पेखहि = नहीं देखते। नैन = आँखों से। सुनि = सुन के। अनहत = एक रस (बज रही)। बैन = बेन, बँसरी।5।

सूर = सूरमा। भगत वसि = भक्तों के वश में। हरि भेव = हरी का भेद। निगम = वेद। करहि = करते हैं। सेव = सेवा भक्ति।6।

निवार = दूर करने वाला। जा की = जिस (परमात्मा) की। बिखड़ी = मुश्किल। ता की = उस (परमात्मा) की। मिति = माप, पैमायश, हद बंदी। कोइ = कोई भी जीव। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, पाताल में, आकाश में अंतरिक्ष में।7।

करि = मैं करता हूँ। बंदना = नमस्कार। थकि = थक के, हार के। प्रभ = हे प्रभू! साधू धूरि = संत जनों की धूल। मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। पूरि = पूरी कर।8।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) गुणों के खजाने प्रभू का सिमरन करके उसको सदा (हृदय में बसाए रखते हैं) उनको नर्कों में निवास नहीं मिलता। जो मनुष्य एक रस (बज रही सिफत सालाह की) बँसरी सुन के (उसी में) मस्त रहते हैं, वे (अपनी) आँखों से जमराज को नहीं देखते (जमों से उनका वास्ता नहीं पड़ता)।5।

हे भाई! दया का श्रोत परमात्मा (अपने) भक्तों के वश में रहता है, भक्त उस सूरमें गोपाल-हरी की शरण में पड़े रहते हैं। हे भाई! वेद (भी) उस हरी का भेद नहीं पा सकते, सारे ऋषी-मुनि उस (प्रभू) की सेवा-भक्ति सदा करते रहते हैं।6।

हे भाई! जिस (परमात्मा) की (सेवा-भक्ति) करनी बहुत मुशिकल है वह (परमात्मा) गरीबों के दुख-दर्द दूर करने वाला है। कोई मनुष्य उस (की हस्ती) की हदबंदी नहीं जानता। वह प्रभू जल में, थल में, धरती में, आकाश में स्वयं ही मौजूद है।7।

हे नानक! (कह-) हे प्रभू! (अन्य सभी आसरों से) हार के मैं तेरे दर पे आया हूँ, (तेरे ही दर पर) मैं अनेकों बार सिर निवाता हूँ। मुझे (अपने) संत जनों के चरणों की धूड़़ बनाए रख, मेरी ये तमन्ना पूरी कर।8।1।

बिलावलु महला ५ ॥ प्रभ जनम मरन निवारि ॥ हारि परिओ दुआरि ॥ गहि चरन साधू संग ॥ मन मिसट हरि हरि रंग ॥ करि दइआ लेहु लड़ि लाइ ॥ नानका नामु धिआइ ॥१॥ दीना नाथ दइआल मेरे सुआमी दीना नाथ दइआल ॥ जाचउ संत रवाल ॥१॥ रहाउ ॥ संसारु बिखिआ कूप ॥ तम अगिआन मोहत घूप ॥ गहि भुजा प्रभ जी लेहु ॥ हरि नामु अपुना देहु ॥ प्रभ तुझ बिना नही ठाउ ॥ नानका बलि बलि जाउ ॥२॥ {पन्ना 837-838}

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! निवारि = दूर कर। दुआरि = (तेरे) दर पर। हारि = हार के, थके के (और तरफ से) आस त्याग के। गहि = पकड़ के। मिसट = मीठा। करि = करके। लड़ि = पल्ले से। नानका = हे नानक!।1।

दीना नाथ = हे गरीबों के पति! दइआल = हे दया के श्रोत! जाचउ = मैं माँगता हूँ। रवाल = चरण धूड़।1। रहाउ।

बिखिआ = माया। कूप = कूँआ। तम = अंधेरा। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। तम घूप = घोर अंधेरा। मोहत = मोह रहा है। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। ठाउ = जगह, आसरा। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।2।

अर्थ: हे गरीबों के पति! हे दया के श्रोत! हे मेरे स्वामी! हे दीनों के नाथ! हे दयालु! मैं तेरे संत जनों के चरणों की धूड़ माँगता हूँ।1। रहाउ।

हे नानक! प्रभू का नाम सिमरा कर (और विनती किया कर-) हे प्रभू! (मेरे) जनम-मरण (के चक्कर) समाप्त कर दे, मैं (औरों की) आस त्याग के तेरे दर पर आ गिरा हूँ। (मेहर कर) तेरे संत-जनों के चरण पकड़ के (तेरे संतजनों का) पल्ला पकड़ के, मेरे मन को, हे हरी! तेरा प्यार मीठा लगता रहे। मेहर करके मुझे अपने लड़ लगा ले।1।

हे नानक! (प्रभू के दर पर आस कर, और, कह-) हे प्रभू! मैं (तेरे नाम से) सदके जाता हूं, कुर्बान जाता हूँ। तेरे बिना मेरा और कोई आसरा नहीं है। हे प्रभू! मुझे अपना नाम बख्श। यह जगत माया (के मोह) का कूँआ है, आत्मिक जीवन के प्रति अज्ञानता का घोर-अंधकार (मुझे) मोह रहा है। (मेरी) बाँह पकड़ के (मुझे) बचा ले।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh