श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 840 दसमी नामु दानु इसनानु ॥ अनदिनु मजनु सचा गुण गिआनु ॥ सचि मैलु न लागै भ्रमु भउ भागै ॥ बिलमु न तूटसि काचै तागै ॥ जिउ तागा जगु एवै जाणहु ॥ असथिरु चीतु साचि रंगु माणहु ॥१२॥ {पन्ना 840} पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, सदा। मजनु = स्नान। सचा = सदा स्थिर। गुण गिआनु = परमात्मा के गुणो से जान पहचान। सचि = सदा स्थिर प्रभू नाम में (जुड़ने से)। भ्रमु = भटकना। बिलमु = देर, ढील। असथिरु = स्थिर। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। अर्थ: परमात्मा का नाम जपना ही दसवीं तिथि पर दान करना और स्नान करना है। प्रभू के गुणों से गहरी सांझ ही सदा स्थिर रहने वाला नित्य का तीर्थ-स्नान है। सदा-स्थिर प्रभू के नाम में जुड़ने से (मन को विकारों की) मैल नहीं लगती, मन की भटकना दूर हो जाती है, मन का सहम समाप्त हो जाता है (ऐसे तुरंत खत्म होता है, जैसे) कच्चे धागे को टूटते हुए विलम्ब नहीं लगता। (हे भाई!) जगत (के संबंध) को ऐसे ही समझो जैसे कच्चा धागा है; अपने मन को हमेशा सदा-स्थिर प्रभू-नाम में टिका के रखो, और आत्मिक आनंद लो।12। एकादसी इकु रिदै वसावै ॥ हिंसा ममता मोहु चुकावै ॥ फलु पावै ब्रतु आतम चीनै ॥ पाखंडि राचि ततु नही बीनै ॥ निरमलु निराहारु निहकेवलु ॥ सूचै साचे ना लागै मलु ॥१३॥ {पन्ना 840} पद्अर्थ: इक = एक (परमात्मा) को। रिदै = हृदय में। वसावै = बसाता है। हिंसा = निदर्यता। ममता = मल्कियत की लालसा। चुकावै = दूर करता है। आतम चीनै = अपने आप को पहचानता है। अपने जीवन को परखता रहता है। पाखंडि = दिखावे में। राइ = रच के, व्यस्त हो के। ततु = अस्लियत। बीनै = देखता, देख सकता। निराहारु = (निर+आहार) जिसे किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं। निहकेवलु = (निष्कैवल्य) शुद्ध स्वरूप। सूचै = पवित्र प्रभू में। साचे = सदा स्थिर प्रभू का रूप। ऐकादसी = चाँद के हिसाब से पूरनमासी व अमावस (मसया) का ग्यारहवां दिन। कर्मकाण्डी लोग उस दिन व्रत रखते हैं, निराहार रहते हैं।13। अर्थ: जो मनुष्य एक (परमात्मा) को (अपने) हृदय में बसाता है, (वह मनुष्य अपने अंदर से) निदर्यता, माया का अपनत्व और माया का मोह दूर कर लेता है। (जो मनुष्य हिंसा-मोह आदि से बचे रहने वाला यह) व्रत (रखता है, वह इस वर्त का ये) फल प्राप्त करता है कि (हमेशा) अपने आत्मिक जीवन को परखता रहता है। पर दिखावे (के व्रत) में पतीज के मनुष्य (सारे जगत के) मूल (परमात्मा को) नहीं देख सकता। हे भाई! परमात्मा को विकारों की मैल नहीं लगती, परमात्मा को किसी भोजन की जरूरत नहीं (वह हर वक्त व्रतमय है), परमात्मा शुद्ध-स्वरूप है, (जो मनुष्य उस) पवित्र प्रभू में (जुड़ के) उस सदा-स्थिर प्रभू का रूप हो जाते हैं, उनको (भी विकारों की) मैल नहीं लगती।13। जह देखउ तह एको एका ॥ होरि जीअ उपाए वेको वेका ॥ फलोहार कीए फलु जाइ ॥ रस कस खाए सादु गवाइ ॥ कूड़ै लालचि लपटै लपटाइ ॥ छूटै गुरमुखि साचु कमाइ ॥१४॥ {पन्ना 840} पद्अर्थ: जह = जहाँ भी। देखउ = देखता हूँ। तह = वह। ऐको ऐका = एक परमात्मा ही। होरि = ('होर' का बहुवचन) और बहुत सारे। होरि जीअ = बाकी सारे जीव। वेको वेका = भांति भांति के। फलोहार = फलों का आहार (ऐकादशी के व्रत पर अन्न छोड़ कर कर्मकाण्डी सिर्फ फल खाते हैं, और सिर्फ इतने प्रयास से ही वर्त का फल मिलता समझ लेते हैं। असल व्रत है 'विकारों से परहेज़', उसका फल है 'उच्च आत्मिक जीवन)। रस कस = कई स्वादों वाले फल आदि पदार्थ। सादु = स्वाद, मजा। लालचि = लालच में। कूड़ै लालच = झूठे लालच में। लपटै = चिपका रहता है। छूटै = (लालच से) मुक्त होता है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। साच = सदा-स्थिर हरी-नाम का सिमरन।14। अर्थ: मैं जिधर देखता हूँ, उधर एक परमात्मा ही परमात्मा दिखता है। (उसने) भांति-भांति के ये सारे जीव पैदा किए हुए हैं (जो व्रत आदि कई भ्रमों में पड़े रहते हैं)। हे भाई! (एकादशी वाले दिन अन्न छोड़ के) सिर्फ फल खाने से (व्रत का असल) फल नहीं मिलता ( असल व्रत है 'विकारों से परहेज़', उसका फल है 'उच्च आत्मिक जीवन)। (अन्न की जगह) कई स्वादिष्ट फल आदि पदार्थ (जो मनुष्य) खाता है, (वह तो वैसे ही व्रत का) मज़ा गवा लेता है। (व्रत रखने वाला मनुष्य व्रत के फल की आस धार के) माया की लालच में ही फसा रहता है। (इस लालच से वह मनुष्य) खलासी हासिल करता है जो गुरू की शरण पड़ कर सदा-स्थिर प्रभू का नाम सिमरन की कमाई करता है।14। दुआदसि मुद्रा मनु अउधूता ॥ अहिनिसि जागहि कबहि न सूता ॥ जागतु जागि रहै लिव लाइ ॥ गुर परचै तिसु कालु न खाइ ॥ अतीत भए मारे बैराई ॥ प्रणवति नानक तह लिव लाई ॥१५॥ {पन्ना 840} पद्अर्थ: दुआदसि = बारहवीं तिथि, पूरनमासी व अमावस का बारहवां दिन। मुद्रा = मोहर, छाप, भेष का चिन्ह। दुआदसि मुद्रा = भेषों के बारह चिन्ह {(ब्रहमचारी के पाँच चिन्ह: जनेऊ, मृगछाला, मूंझ की तड़ागी, कमण्डल, शिखा। वैश्नव के तीन चिन्ह: तिलक, कंठी, तुलसी माला। शैव (शिव उपासक) के दो चिन्ह: रुद्राक्ष की माला, त्रिपुंड्र (गाय के गोबर की राख से माथे पर डाली हुई तीन लकीरें) जोगी का एक चिन्ह: मुंदरें (कानों में डाली जाने वाली)। सन्यासी का एक चिन्ह: त्रिदंड। (5+3+2+1+1 = कुल 12)}। दुआदसि मुद्रा मनु = जिसका मन बारह छापों को का धारणी है। अउधूता = त्यागी। अहि = दिन। निसि = रात। जागहि = जागते रहते हैं, सचेत रहते हैं। जागि = जाग के। लिव = सुरति। लाइ रहै = जोड़े रखता है। गुर परचै = गुरू के उपदेश में। कालु = आत्मिक मौत। अतीत = विरक्त। बैराई = (कामादिक) वैरी। तह = वहाँ, उस ठिकाने पर।15। अर्थ: हे भाई! (गुरू के उपदेश में जुड़ के जो मनुष्य) दिन रात (माया के हमलों से) सचेत रहते हैं (माया के मोह की नींद में) कभी नहीं सोते, (वही हैं असल) त्यागी, (उनका) मन (मानो, भेषों के) बारह के बारह चिन्हों का धरणी होता है। हे भाई! गुरू के उपदेश में (टिक के जो मनुष्य माया के हमलों की ओर से) जागता रहता है, और सचेत रह के (प्रभू चरणों में) सुरति जोड़े रखता है, उस (के आत्मिक जीवन) को (आत्मिक) मौत खा नहीं सकती। नानक विनती करता है- (जिन मनुष्यों ने) वहाँ (प्रभू चरणों में) सुरति जोड़ी हुई है, उन्होंने (कामादिक) सारे वैरी खत्म कर लिए, वे (असल) त्यागी बन गए।15। दुआदसी दइआ दानु करि जाणै ॥ बाहरि जातो भीतरि आणै ॥ बरती बरत रहै निहकाम ॥ अजपा जापु जपै मुखि नाम ॥ तीनि भवण महि एको जाणै ॥ सभि सुचि संजम साचु पछाणै ॥१६॥ {पन्ना 840} पद्अर्थ: दुआदसि = बारहवीं तिथि। करि जाणै = करना जानता है। दानु करि जानै = दान करना जानता है। दइआ = प्यार। जातो = जाता, भटकता। आणै = लाता है। बरती बरत = व्रतों में श्रेष्ठ व्रत। निहकामु = वासना से रहित। अजपा जापु = जपे बिना किआ हुआ (किसी मंत्र का) जाप। मुखि = मुँह से। जपै = जपता है। तीनि भवण = तीनों भवनों में, सारे जगत में। ऐको = एक (परमात्मा) को ही। सभि = सारे। संजम = ज्ञान इन्द्रियों को वश में करने के यत्न। सुचि = शारीरिक पवित्रता के उद्यम। साचु = सदा स्थिर प्रभू। पछाणे = सांझ डालता है।16। अर्थ: हे भाई! (कर्म-काण्डी मनुष्य किसी व्रत आदि के समय माया का दान करता है, और किसी मंत्र का अजपा जाप करता है, पर जो मनुष्य जाति में) प्यार बाँटना जानता है, बाहर भटकते मन को (हरी-नाम की सहायता से अपने) अंदर ही ले आता है, जो मनुष्य वासना-रहित जीवन जीता है, और मुँह से परमात्मा का नाम जपता है, वह मनुष्य (मानो) अजपा जाप कर रहा है। हे भाई! जो मनुष्य सारे संसार में एक परमात्मा को ही बसता समझता है, और उस सदा स्थिर प्रभू के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, वह (मानो) शारीरिक पवित्रता के सारे उद्यम कर रहा है, ज्ञान-इन्द्रियों को वश में करने के सारे यत्न कर रहा है।16। तेरसि तरवर समुद कनारै ॥ अम्रितु मूलु सिखरि लिव तारै ॥ डर डरि मरै न बूडै कोइ ॥ निडरु बूडि मरै पति खोइ ॥ डर महि घरु घर महि डरु जाणै ॥ तखति निवासु सचु मनि भाणै ॥१७॥ {पन्ना 840} पद्अर्थ: तेरसि = तेरहवीं तिथि। कनारै = किनारे पर। तरवर = वृक्ष। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मूलु = जड़, मूल। सिखरि = शिखर पर। लिव तारै = लिव की तार में। डर = (सांसारिक) डरों से। डरि मरै न = डर के नहीं मरता। न बूडै = नहीं डूबता। निडरु = (परमात्मा का) डर अदब ना रखने वाला। बूडि = (विकारों में) डूब के। मरै = आत्मिक मौत सहेड़ता है। पति = इज्जत। खोइ = गवा के। घरु = ठिकाना। घर महि = हृदय घर में। जाणै = (जो मनुष्य) जानता है। तखति = तख़्त पर। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। मनि = मन में। भावै = प्यारा लगता है।17। अर्थ: हे भाई! (जैसे) समुंद्र के किनारे पर उगे हुए पेड़ की (पायां है अर्थात जड़ें कमजोर होती हैं, वैसे ही यह शरीर है। पर जो मनुष्य) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल को (अपने जीवन की) जड़ बनाता है, (वह सिर्फ) सुरति की डोर की बरकति से वह शिखर पर (प्रभू-चरणों में जा पहुँचता है)। (जो भी मनुष्य यह उद्यम करता है, वह सांसारिक) डरों के साथ डर-डर के आत्मिक मौत नहीं मरता, वह (विकारों में) नहीं डूबता। (पर, परमात्मा का) डर-अदब ना रखने वाला मनुष्य (लोक-परलोक की) इज्जत गवा के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। हे भाई! (जो मनुष्य परमात्मा के) डर-अदब में (अपना) ठिकाना बनाए रखता है, जो मनुष्य अपने हृदय-घर में (प्रभू का) डर-अदब बनाए रखना जानता है, जिस मनुष्य को अपने मन में सदा-स्थिर प्रभू प्यारा लगने लग जाता है, उसको (ऊँचे आत्मिक जीवन के ईश्वरीय) तख़्त पर निवास मिलता है।17। चउदसि चउथे थावहि लहि पावै ॥ राजस तामस सत काल समावै ॥ ससीअर कै घरि सूरु समावै ॥ जोग जुगति की कीमति पावै ॥ चउदसि भवन पाताल समाए ॥ खंड ब्रहमंड रहिआ लिव लाए ॥१८॥ {पन्ना 480} पद्अर्थ: चउदसि = पूरनमासी का चौदहवां दिन। चउथे थावहि = चौथी जगह को, उस आत्मिक अवस्था जहाँ माया के तीन गुण अपना प्रभाव नहीं डाल सकते, तुरियावस्था। लहि पावै = ढूँढ लेता है, हासिल कर लेता है। राजस तामस सत = रजो गुण, तमो गुण, सतो गुण। काल = समय। समावै = लीन हो जाता है। ससीअर = चंद्रमा। कै घरि = के घर में। सीसअर कै घरि = शांति के घर में। सूरु = सूरज, तपश, मन की तपश। जोग जुगति = प्रभू मिलाप का तरीका। कीमति = कद्र, सार। चउदसि भवन = चौदह भवनों में। लिव लाऐ = सुरति जोड़ता है।18। अर्थ: (जब मनुष्य गुरू की कृपा से) तुरियावस्था को पा लेता है, तब रजो गुण, तमो गुण और सतो गुण (माया का ये हरेक गुण चौथे पद में) लीन हो जाता है। शांति के घर में (मनुष्य के मन की) तपश समा जाती है, (उस वक्त मनुष्य परमात्मा से) मिलाप की जुगति की कद्र समझता है। तब मनुष्य उस परमात्मा में सुरति जोड़े रखता है जो खण्डों-ब्रहमण्डों में, चौदह भवनों में पातालों में हर जगह समाया हुआ है।18। अमावसिआ चंदु गुपतु गैणारि ॥ बूझहु गिआनी सबदु बीचारि ॥ ससीअरु गगनि जोति तिहु लोई ॥ करि करि वेखै करता सोई ॥ गुर ते दीसै सो तिस ही माहि ॥ मनमुखि भूले आवहि जाहि ॥१९॥ {पन्ना 840} पद्अर्थ: गुपतु = छुपा हुआ। गैणारि = आकाश में। बीचारि = विचार के, मन में बसा के। गिआनी = हे आत्मिक जीवन की सूझ के खोजी मनुष्य! ससीअरु = चँद्रमा। गगनि = आकाश में। तिहु लोई = तीन लोकों में, तीनों भवनों में, सारे संसार में। करि = पैदा करके। वेखै = संभाल करता है। करता सोई = वह करतार ही। ते = से। दीसै = दिखाई देता है। सो = वह (मनुष्य)। तिस ही = ('तिसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। तिस ही माहि = उस (परमात्मा) में हीं। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। आवहि = पैदा होते हैं। जाहि = मरते हैं।19। अर्थ: हे भाई! (जैसे) अमावस को चाँद आकाश में गुप्त रहता है (वैसे ही परमात्मा हरेक के हृदय में गुप्त बस रहा है)। हे आत्मिक जीवन की सूझ के खोजी मनुष्य! गुरू के शबद को मन में बसा के (ही इस भेद को) समझ सकोगे। (जैसे) चंद्रमा आकाश में (हर तरफ रौशनी दे रहा है, वैसे ही परमात्मा की) ज्योति सारे संसार में (जीवन-सक्ता दे रही है)। वह करतार स्वयं ही (सब जीवों को) पैदा करके (सबकी) संभाल कर रहा है। जिस मनुष्य को गुरू से यह सूझ मिल जाती है, वह मनुष्य उस परमात्मा में सदा के लिए लीन रहता है। पर, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ कर जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।19। घरु दरु थापि थिरु थानि सुहावै ॥ आपु पछाणै जा सतिगुरु पावै ॥ जह आसा तह बिनसि बिनासा ॥ फूटै खपरु दुबिधा मनसा ॥ ममता जाल ते रहै उदासा ॥ प्रणवति नानक हम ता के दासा ॥२०॥१॥ {पन्ना 840} पद्अर्थ: थापि = स्थापित करके, पक्का ठिकाना बना के। घरु दरु = प्रभू चरणों को, प्रभू के दर को। थिरु = टिक के। थानि = (उस) जगह में, प्रभू चरणों में। सुहावै = सोहाना बन जाता है, सोहाने जीवन वाला बन जाता है। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। पछाणै = परखता है। जा = जब। पावै = मिलाप हासिल करता है। जह = जहाँ, जिस हृदय में। तह = उस दिल में। बिनसि = नाश हो के, आशाओं का नाश हो के। बिनासा = आशाओं का अभाव। फूटै = टूट जाता है। खपरु = बर्तन। दुबिधा = मेर तेर। मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। ते = से। ममता = अपनत्व, मल्कियत की चाहत। ता के = उस (मनुष्य) के।20। अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य गुरू (का मिलाप) हासिल कर लेता है, तब अपने आत्मिक जीवन को पड़तालना शुरू कर देता है, और प्रभू-चरणों को प्रभू के दर को (अपना) पक्का आसरा बना के उस जगह में (प्रभू-चरणों में) टिक के सोहाने जीवन वाला बन जाता है। जिस हृदय में (पहले दुनियावी) आशाएं (ही आशाएं टिकी रहती थीं) वहाँ आशाओं का पूर्ण अभाव हो जाता है, (उसके अंदर से) मेरे-तेर और मन के फुरनों का बर्तन ही फूट जाता है। वह मनुष्य (माया के) ममता जाल से अलग रहता है। नानक विनती करता है- मैं ऐसे मनुष्य का (सदा) दास हूँ।20।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |