श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 841 बिलावलु महला ३ वार सत घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आदित वारि आदि पुरखु है सोई ॥ आपे वरतै अवरु न कोई ॥ ओति पोति जगु रहिआ परोई ॥ आपे करता करै सु होई ॥ नामि रते सदा सुखु होई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥१॥ हिरदै जपनी जपउ गुणतासा ॥ हरि अगम अगोचरु अपर्मपर सुआमी जन पगि लगि धिआवउ होइ दासनि दासा ॥१॥ रहाउ ॥ {पन्ना 841} पद्अर्थ: आदित = (आदित्य) सूर्यं। वारि = वार में, वार से। आदित वारि = ऐतवार के द्वारा। आदि = सभ का मूल। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू! सोई = वह स्वयं ही। आपे = खुद ही। वरतै = (हर जगह) मौजूद है। ओति = उने हुए में। पोति = परोए हुए में (ओत प्रोत)। रहिआ परोई = परो रहा है। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए को। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।1। हिरदै = हृदय में। जपनी = माला। जपउ = मैं जपता हूँ। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभू। अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चरु = पहुँच) जो ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे है। अपरंपर = परे से परे। जन पगि = संत जनों के पैरों में। लगि = लग के। होइ = बना के। धिआवउ = मैं सिमरता हूँ।1। रहाउ। नोट: महला १ की बाणी 'थिती' की 'रहाउ' की तुक को ध्यान से पढ़ें- "किआ जपु जापउु बिनु जगदीसै"। इसी तरह, 'वार सत' की भी 'रहाउ' के तुक देखें- "हिरदै जपनी जपउ गुण तासा"। शब्दों की समानता बताती है कि जब गुरू अमरदास जी ने 'वार सत' बाणी लिखी, तब उनके पास बाणी 'थिती' मौजूद थी। दोनों का ही 'घरु १०' है। अर्थ: हे भाई! (सारे जगत का) मूल वह अकाल-पुरख स्वयं ही (सब जगह) मौजूद है (उसके बिना) और कोई नहीं है। वह परमात्मा सारे जगत को ताने-पेटे की तरह (अपनी रज़ा में) परो रहा है। (जगत में) वही कुछ होता है जो करतार स्वयं ही करता है। उसके नाम में रंगे हुए मनुष्य को सदा आत्मिक आनंद मिलता है। पर कोई दुलर्भ (विरला) मनुष्य (इस बात को) समझता है।1। हे भाई! मैं (अपने) हृदय में गुणों के खजाने (परमात्मा के नाम) को जपता हूँ (यही है मेरी) माला। परमात्मा अपहुँच है, परे से परे है, सबका मालिक है, उस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। मैं तो संत जनों के चरणों में लग के संत जनों का दासों का दास बन के उसको सिमरता हूँ।1। रहाउ। सोमवारि सचि रहिआ समाइ ॥ तिस की कीमति कही न जाइ ॥ आखि आखि रहे सभि लिव लाइ ॥ जिसु देवै तिसु पलै पाइ ॥ अगम अगोचरु लखिआ न जाइ ॥ गुर कै सबदि हरि रहिआ समाइ ॥२॥ {पन्ना 841} पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। आखि आखि = कह कह के। रहे = थक गए। सभि = सारे। लिव लाइ = सुरति जोड़ के। देवै = (सिफत सालाह की दाति प्रभू स्वयं) देता है। तिसु पलै पाइ = उसके पल्ले में पड़ती है, उसको मिलती है। लखिआ न जाइ = (सही स्वरूप) बयान नहीं किया जा सकता। गुर कै सबदि = गुरू के शबद से। रहिआ समाइ = लीन हुआ रहता है।2। तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा) सदा-थिर परमात्मा (की याद) में लीन हुआ रहता है (उसका आत्मिक जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि) उसका मूल्य नहीं आँका जा सकता। (पर यह सिमरन और याद की दाति) जिस (मनुष्य) को (परमात्मा स्वयं) देता है, उसको (ही) मिलती है।, (अपने उद्यम से सुरति जोड़ने वाले और सिफत-सालाह करने वाले मनुष्य) सिफतें कह कह के और सुरति जोड़-जोड़ के ही थक जाते हैं। हे भाई! परमात्मा अपहुँच है, ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। गुरू के शबद द्वारा (ही मनुष्य) परमात्मा में लीन रह सकता है।2। मंगलि माइआ मोहु उपाइआ ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाइआ ॥ आपि बुझाए सोई बूझै ॥ गुर कै सबदि दरु घरु सूझै ॥ प्रेम भगति करे लिव लाइ ॥ हउमै ममता सबदि जलाइ ॥३॥ {पन्ना 841} पद्अर्थ: मंगलि = मंगल वार के द्वारा। आपे = स्वयं ही। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक (जीव के) सिर पर। धंधै = (माया के) धंधे में। बुझाऐ = समझ बख्शता है। बूझै = समझता है। कै सबदि = के शबद से। दरु घरु = परमात्मा का दरवाजा, परमात्मा का ठिकाना। सूझै = दिखता है। लिव लाइ = सुरति जोड़ के। सबदि = शबद से। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा ने) माया का मोह (स्वयं ही) पैदा किया है, खुद ही (इस मोह को) हरेक (जीव के) सिर पर (स्थापित करके हरेक को माया के) धंधे में लगाया हुआ है। जिस मनुष्य को (परमात्मा) स्वयं समझ बख्शता है, वही (इस मोह की खेल को) समझता है। गुरू के शबद की बरकति से उसको (परमात्मा का) दर-घर दिख जाता है। वह मनुष्य सुरति जोड़ के प्रेम से परमात्मा की भक्ति करता है, (और, इस तरह) शबद की बरकति से (अपने अंदर से) अहंकार और (माया की) ममता को जला देता है।3। बुधवारि आपे बुधि सारु ॥ गुरमुखि करणी सबदु वीचारु ॥ नामि रते मनु निरमलु होइ ॥ हरि गुण गावै हउमै मलु खोइ ॥ दरि सचै सद सोभा पाए ॥ नामि रते गुर सबदि सुहाए ॥४॥ लाहा नामु पाए गुर दुआरि ॥ आपे देवै देवणहारु ॥ जो देवै तिस कउ बलि जाईऐ ॥ गुर परसादी आपु गवाईऐ ॥ नानक नामु रखहु उर धारि ॥ देवणहारे कउ जैकारु ॥५॥ {पन्ना 481} पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही (देता है)। बुधि सारु = बुद्धि का सार, श्रेष्ठ बुद्धि। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रह के, गुरू के द्वारा। करणी = अच्छा आचरण। वीचारु = (गुणों को) मन में बसाना। नामि रते मनु = नाम में रंगे हुए (मनुष्य का) मन। खोइ = दूर करके। दरि = दर पर। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पे। सद = सदा। नामि रते = नाम में रंगे हुए मनुष्य। सबदि = शबद के द्वारा। सुआऐ = सोहाने जीवन वाले बन जाते हैं।4। लाहा = लाभ। गुर दुआरि = गुरू के दर पर। देवणहारु = दे सकने वाला प्रभू। जो = जो प्रभू। तिस कउ: संबंधक 'कउ' के कारण 'तिसु' की 'ु' की मात्रा हट गई है। बलि जाईअै = कुर्बान जाना चाहिए। परसादी = कृपा से। आपु = स्वै भाव, अहंकार। गवाईअै = दूर करना चाहिए। उर = हृदय। उर धारि = हृदय में टिका के। कउ = को। जैकारु = सिफत सालाह, वडिआई, महिमा।5। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) स्वयं ही (मनुष्य को) गुरू की शरण में रख के श्रेष्ठ बुद्धि, ऊँचा आचरण, सिफत सालाह और (अपने गुणों की) विचार (बख्शता है, इस तरह उसके) नाम में रंगे हुए मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है, (मनुष्य अपने अंदर से) अहंकार की मैल दूर करके परमात्मा के गुण गाता रहता है, और सदा-स्थिर प्रभू के दर पर सदा शोभा कमाता है। हे भाई! गुरू के शबद के द्वारा परमात्मा के नाम में रंगे हुए मनुष्य सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं।4। हे भाई! गुरू के दर पे (रह के मनुष्य परमात्मा का) नाम-लाभ कमा लेता है, (पर ये दाति है, और यह दाति) देने की समर्था वाला प्रभू स्वयं ही देता है। सो, जो प्रभू (यह दाति) देता है उससे (सदा) सदके जाना चाहिए, गुरू की कृपा से (अपने अंदर से) स्वै भाव (अहंकार) दूर करना चाहिए। हे नानक! (कह- हे भाई!) परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखो, और, उस सब कुछ दे सकने वाले प्रभू की सिफत सालाह हमेशा करते रहो।5। वीरवारि वीर भरमि भुलाए ॥ प्रेत भूत सभि दूजै लाए ॥ आपि उपाए करि वेखै वेका ॥ सभना करते तेरी टेका ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ सो मिलै जिसु लैहि मिलाई ॥६॥ सुक्रवारि प्रभु रहिआ समाई ॥ आपि उपाइ सभ कीमति पाई ॥ गुरमुखि होवै सु करै बीचारु ॥ सचु संजमु करणी है कार ॥ वरतु नेमु निताप्रति पूजा ॥ बिनु बूझे सभु भाउ है दूजा ॥७॥ छनिछरवारि सउण सासत बीचारु ॥ हउमै मेरा भरमै संसारु ॥ मनमुखु अंधा दूजै भाइ ॥ जम दरि बाधा चोटा खाइ ॥ गुर परसादी सदा सुखु पाए ॥ सचु करणी साचि लिव लाए ॥८॥ {पन्ना 841} पद्अर्थ: वीरवारि = बृहस्पतिवार से। वीर = बावन वीर (हनुमान आदि)। भरमि = भटकना में (डाल के)। भुलाऐ = गलत रास्ते पर डाले रखे। सभि = सारे। दूजै = माया के मोह में। लाऐ = लगा दिए। उपाऐ = पैदा किए। करि = करके, बना के। वेका = अलग अलग किस्म के। वेखै = देखता है, संभाल करता है। करते = हे करतार! टेक = आसरा। मिलै = (तुझे) मिलता है। लैहि मिलाइ = तू (खुद) मिला लेता है।6। उपाइ = पैदा करके। सभ = सारी सृष्टि। कीमति = कद्र। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। सु = वह मनुष्य। सचु = सदा स्थिर हरी नाम का सिमरन। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से बचाए रखने का उद्यम। करणी = कर्तव्य। कार = रोजाना काम। निताप्रति = सदा ही, रोजाना। पूजा = देव पूजा। सभु = सारा। भाउ = प्यार। दूजा भाउ = (प्रभू के बिना किसी) और के साथ प्यार।7। सउण = शोनक ऋषी। सउण सासत = शोनक का लिखा ज्योतिष शास्त्र। मेरा = ममता। भरमै = भटकता है। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै भाइ = माया के प्यार में। (भाउ = प्यार। भाइ = प्यार में)। दरि = दर पर। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। लिव लाऐ = सुरति जोड़ता है।8। अर्थ: हे भाई! (बावन) वीरों को (भी परमात्मा ने) भटकना में डाल के (माया के मोह में) भुलाए रखा, सारे भूत-प्रेत भी माया के मोह में लगाए हुए हैं। परमात्मा ने खुद (ही ये सारे) पैदा किए, (इनको) अलग-अलग किस्मों के बना के (सबकी) संभाल (भी) करता है। हे करतार! सब जीवों को तेरा ही आसरा है। सारे जीव-जंतु तेरी ही शरण में हैं। वह मनुष्य (ही तुझे) मिलता है जिसको तू खुद (अपने साथ) मिलाता है।6। हे भाई! (सारी सृष्टि में) परमात्मा व्यापक है, (सृष्टि को) खुद (ही) पैदा करके सारी सृष्टि की कद्र भी खुद ही जानता है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है, वह मनुष्य (परमात्मा के गुणों को) अपने मन में बसाता है। सदा-स्थिर हरी-नाम का सिमरन, और इन्द्रियों को विकारों से बचाए रखने का उद्यम- यह उस मनुष्य का नित्य का कर्तव्य, नित्य की कार हो जाती है। पर, व्रत रखना, कर्म-काण्ड के हरेक नियम निबाहने, रोजाना देव-पूजा- आत्मिक जीवन की सूझ के बिना ये सारा उद्यम माया का प्यार (ही पैदा करने वाला) है।7। हे भाई! (परमात्मा का सिमरन छोड़ के) शोनक का ज्योतिष शास्त्र (आदि) विचारते रहना- (इसके कारण) जगत ममता और अहंकार में भटकता रहता है। आत्मिक जीवन से अंधा, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के मोह में फंसा रहता है, (ऐसा मनुष्य) जमराज के दर में बँधा हुआ (विकारों की) चोटें खाता रहता है। जो मनुष्य गुरू की कृपा से सदा-स्थिर हरी-नाम-सिमरन को (अपना रोजाना) का कर्तव्य बनाता है और सदा-स्थिर प्रभू में सुरति जोड़े रखता है, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है।8। सतिगुरु सेवहि से वडभागी ॥ हउमै मारि सचि लिव लागी ॥ तेरै रंगि राते सहजि सुभाइ ॥ तू सुखदाता लैहि मिलाइ ॥ एकस ते दूजा नाही कोइ ॥ गुरमुखि बूझै सोझी होइ ॥९॥ पंद्रह थितीं तै सत वार ॥ माहा रुती आवहि वार वार ॥ दिनसु रैणि तिवै संसारु ॥ आवा गउणु कीआ करतारि ॥ निहचलु साचु रहिआ कल धारि ॥ नानक गुरमुखि बूझै को सबदु वीचारि ॥१०॥१॥ {पन्ना 841-842} पद्अर्थ: सेवहि = सेवते हैं, सेवा भक्ति करते हैं, शरण पड़ते हैं (बहुवचन)। से = वह (बहुवचन)। मारि = मार के। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। लिव = सुरति। तेरै संगि = तेरे (प्रेम) रंग में। राते = रंगे हुए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्यार में। लैहि मिलाइ = तू मिला लेता है। ते = के (बिना)। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बूझै = समझ लेता है।9। तै = और। वार = दिन (सूरज के हिसाब)। थिती = चाँद के हिसाब से दिन। माहा = महीने। रुती = रुतें। आवहि = आते हैं। वार वार = अपनी-अपनी बारी, बार बार। रैणि = रात। तिवै = उसी तरह। आवागउण = जनम मरन का चक्कर। करतारि = करतार ने। निहचलु = अटल। साचु = सदा स्थिर प्रभू। कल = सक्ता, ताकत। रहिआ धारि = टिका रहा है। को = कोई विरला।10। नोट: गुरू अमरदास जी की इस वाणी का शीर्षक 'वार सत' है। आखिरी पौड़ी नंबर 10 में आप 'थितीं' का भी ज़िक्र कर रहे हैं। इसका कारण स्पष्ट ये हैकि गुरू अमरदास जी के पास गुरू नानक देव जी की यह बाणी मौजूद थी। अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य बहुत भाग्यशाली होते हैं जो गुरू की शरण पड़ते हैं, (अपने अंदर से) अहंकार को समाप्त करके (उनकी) सुरति सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लग जाती है। हे प्रभू! (गुरू की शरण आने वाले मनुष्य) तेरे प्यार-रंग में टिके रहते हैं। सारे सुख देने वाला तू (खुद ही उनको अपने चरणों में) मिला लेता है। हे भाई! एक परमात्मा के बिना (उस जैसा) और कोई नहीं। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह इस बात को समझ लेता है, (उसको आत्मिक जीवन की सूझ आ जाती है)।9। हे भाई! (जैसे) पंद्रह तिथियाँ और सात वार, महीने, ऋतुएं, रात-दिन, बार बार आते रहते हैं। करतार ने (खुद ही जीवों के वास्ते) जनम-मरण का चक्कर बना दिया है। अटल रहने वाला सदा-स्थिर प्रभू ही है जो (सारी सृष्टि में अपनी) सक्ता टिका रहा है। हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाला कोई (भाग्यशाली) मनुष्य (गुरू के) शबद को (अपने) मन में बसा के (इस बात को) समझ लेता है।10।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |