श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ३ ॥ आदि पुरखु आपे स्रिसटि साजे ॥ जीअ जंत माइआ मोहि पाजे ॥ दूजै भाइ परपंचि लागे ॥ आवहि जावहि मरहि अभागे ॥ सतिगुरि भेटिऐ सोझी पाइ ॥ परपंचु चूकै सचि समाइ ॥१॥ जा कै मसतकि लिखिआ लेखु ॥ ता कै मनि वसिआ प्रभु एकु ॥१॥ रहाउ ॥ स्रिसटि उपाइ आपे सभु वेखै ॥ कोइ न मेटै तेरै लेखै ॥ सिध साधिक जे को कहै कहाए ॥ भरमे भूला आवै जाए ॥ सतिगुरु सेवै सो जनु बूझै ॥ हउमै मारे ता दरु सूझै ॥२॥ {पन्ना 842}

पद्अर्थ: आदि पुरखु = जगत का मूल अकाल-पुरख। आपे = खुद ही। स्रिसटि = जगत। मोहि = मोह में। पाजे = डाले हुए हैं, जोड़े हुए हैं। दूजै भाइ = (प्रभू को छोड़ के) और प्यार में। परपंचि = परपंच में, दिखते नाशवंत जगत (के मोह) में (प्रपंच)। मरहि = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। अभागे = भाग हीन जीव। सतिगुरि भेटीअै = अगर गुरू मिल जाए। सोझी = (आत्मिक जीवन की) समझ। परपंचु = जगत का मोह। चूकै = समाप्त हो जाता है। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।1।

मसतकि = माथे पर। कै मसतकि = के माथे पर। ता कै मनि = उसके मन में।1। रहाउ।

उपाइ = पैदा करके। वेखै = संभाल करता है। तेरै लेखै = (हे भाई!) तेरे (लिखे) लेख को। सिध = योग साधनों में सिद्ध हुए जोगी। साधिक = योग साधना करने वाले। को = कोई (मनुष्य)। कहै = (अपने आप को) कहे। कहाऐ = (अपने आप को) कहलवाए। भरमे = भटकना में। भूला = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। आवै जाऐ = जनम मरण के चक्कर में पड़ जाता है। सेवै = शरण पड़ता है। बूझै = (जीवन का सही रास्ता) समझता है। ता = तब। दरु = प्रभू का दरवाजा। सूझै = दिखता है।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर (मनुष्य के किए कर्मों के अनुसार परमात्मा की ओर से) लेख लिखा होता है, उस (मनुष्य) के मन में एक परमात्मा (ही) टिका रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! सारे जगत का मूल अकाल पुरख स्वयं ही जगत को पैदा करता है, (किए कर्मों के अनुसार) जीवों को (उसने) माया के मोह में जोड़ा हुआ है। (जीव परमात्मा को भुला के) और प्यार में दिखाई देते जगत के मोह में फंसे रहते हैं, (ऐसे) भाग्यहीन जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं, आत्मिक मौत सहेड़े रखते हैं।

अगर (किसी भाग्यशाली को) गुरू मिल जाए, तो वह (आत्मिक जीवन की) समझ हासिल कर लेता है, (उसके अंदर से) जगत का मोह समाप्त हो जाता है, (वह मनुष्य) सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की) याद में लीन रहता है।1।

हे भाई! जगत पैदा करके (परमात्मा) स्वयं ही हरेक की संभाल करता है। (हे प्रभू! जीव के किए कर्मों के अनुसार उसके माथे पर जो लेख तू लिखता है) तेरे (उस लिखे) लेख को कोई जीव (अपने उद्यम से) मिटा नहीं सकता।

हे भाई! (अपने अहंकार के आसरे) अगर कोई मनुष्य (अपने आप को) सिद्ध कहलवाता है, साधक कहता कहलवाता है, वह मनुष्य (अहंकार की) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा रहता है।

हे भाई! जो मनुष्य (अपने अहंकार का आसरा छोड़ के) गुरू की शरण पड़ता है, वह मनुष्य (जीवन का) सही रास्ता समझ लेता है। जब मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार को मिटाता है, तब (उसको परमात्मा का) दर दिखाई दे जाता है।2।

एकसु ते सभु दूजा हूआ ॥ एको वरतै अवरु न बीआ ॥ दूजे ते जे एको जाणै ॥ गुर कै सबदि हरि दरि नीसाणै ॥ सतिगुरु भेटे ता एको पाए ॥ विचहु दूजा ठाकि रहाए ॥३॥ {पन्ना 842}

पद्अर्थ: ऐकसु ते = एक (परमात्मा) से ही। सभ दूजा = सारा अलग (दिखाई दे रहा जगत)। ऐको = एक (परमात्मा) ही। बीआ = दूसरा। वरतै = व्यापक है, मौजूद है। ते = से। दूजे ते = इस अलग दिखाई दे रहे जगत से (ऊँचा हो के)। जाणै = सांझ डाल ली। कै सबदि = के शबद द्वारा। दरि = दर से। नीसाणै = परवाने समेत, राहदारी सहित। भेटे = मिल जाए। दूजा = माया का मोह। ठाकि = रोक के।3।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा से) अलग दिख रहा ये सारा जगत एक परमात्मा से ही बना है। (सारे जगत में) एक प्रभू ही मौजूद है, (उसके बिना) कोई और दूसरा नहीं है।

अगर (मनुष्य) इस अलग दिखाई दे रहे जगत (के मोह) से (ऊँचा हो के) एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखें, तो गुरू के शबद की बरकति से राहदारी समेत (बिना रोक-टोक के) प्रभू के दर पर (पहुँच जाता है)।

अगर (मनुष्य को) गुरू मिल जाए, तो वह उस परमात्मा का मिलाप प्राप्त कर लेता है, और (अपने) अंदर से अलग दिख रहे जगत का मोह रोके रखता है।3।

जिस दा साहिबु डाढा होइ ॥ तिस नो मारि न साकै कोइ ॥ साहिब की सेवकु रहै सरणाई ॥ आपे बखसे दे वडिआई ॥ तिस ते ऊपरि नाही कोइ ॥ कउणु डरै डरु किस का होइ ॥४॥ गुरमती सांति वसै सरीर ॥ सबदु चीन्हि फिरि लगै न पीर ॥ आवै न जाइ ना दुखु पाए ॥ नामे राते सहजि समाए ॥ नानक गुरमुखि वेखै हदूरि ॥ मेरा प्रभु सद रहिआ भरपूरि ॥५॥ {पन्ना 842}

पद्अर्थ: डाढा = तगड़ा, बलवान। होइ = होता है। तिस नो = उस (मनुष्य) को (संबंधक 'नो' के कारण शब्द 'तिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है)। रहै = टिका रहता है। आपे = (साहिब) खुद ही। दे = देता है। ऊपरि = बड़ा, ऊँचा। डरु...होइ = किस का डर हो सकता है? किसी से डर नहीं लगता।4।

जिस दा: संबंधक 'का' के कारण शब्द 'जिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है। किस का: संबंधक 'का' के कारण शब्द 'किसु' की 'ु' मात्रा हट गई है। तिस ते: संबंधक 'ते' के कारण शब्द 'तिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है।

गुरमती = गुरू की मति पर चलने से। चीनि् = पहचान के, सांझ डाल के। पीर = (विकारों से) कलेश। आवै न जाइ = ना पैदा होता है ना मरता है, जनम मरण के चक्कर में नहीं पड़ता। नामे = नाम में ही। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। हदूरि = अंग संग, हाज़र नाज़र।5।

अर्थ: हे भाई! (माया के कामादिक सूरमे हैं तो बड़े बली, पर) जिस मनुष्य के सिर पर रक्षक सबसे बलशाली मालिक-प्रभू स्वयं हो, उसको कोई (कामादिक वैरी) परास्त नहीं सकता। (क्योंकि) सेवक (अपने) मालिक प्रभू की शरण पड़ा रहता है, वह स्वयं ही (उस पर) बख्शिश करता है, (और, उसको) आदर देता है।

हे भाई! उस (परमात्मा) से बड़ा और कोई नहीं है (सेवक को ये यकीन बन जाता है, इस वास्ते) किसी से नहीं डरता, उसको किसी (कामादिक वैरी) का डर-दबाव नहीं रहतां4।

हे भाई! गुरू की मति पर चल के (भाग्यशाली मनुष्य के) हृदय में शांति पैदा हो जाती है, गुरू के शबद के साथ सांझ डाल के उसको (कामादिक वैरी से कोई) कलेश नहीं छू सकता। वह मनुष्य जनम मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, वह (इस चक्कर के) दुख नहीं सहता। हे भाई! परमात्मा के नाम में रंगे हुए मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।

हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (परमात्मा को अपने) अंग-संग बसता देखता है (और कहता है कि) मेरा परमात्मा सदा हर जगह मौजूद है।5।

इकि सेवक इकि भरमि भुलाए ॥ आपे करे हरि आपि कराए ॥ एको वरतै अवरु न कोइ ॥ मनि रोसु कीजै जे दूजा होइ ॥ सतिगुरु सेवे करणी सारी ॥ दरि साचै साचे वीचारी ॥६॥ {पन्ना 842}

पद्अर्थ: इकि = ('इक' का बहुवचन) कई। भरमि = भटकना में। भुलाऐ = गलत रास्ते पर डाल रखे हैं। आपे = आप ही। ऐको = एक खुद ही। वरतै = (हर जगह) मौजूद है। मनि = मन में। रोसु = गिला। कीजै = किया जाय। सेवे = शरण पड़े। सारी = श्रेष्ठ। करणी = कर्तव्य। दरि साचे = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। साचे = सुर्खरू। वीचारी = विचारवान।6।

अर्थ: हे भाई! (सब जीवों में व्यापक हो के) परमात्मा खुद ही (सब कुछ) करता है, स्वयं ही (जीवों से) करवाता है, कई (जीवों को उसने अपने) सेवक बनाया हुआ है, और कई जीवों को भटकना में (डाल के) गलत राह पर डाला हुआ है। (हर जगह) परमात्मा खुद ही मौजूद है, (उसके बिना) और कोई नहीं है। (किसी को गुरमुख और किसी को मनमुख देख के) मन में गिला तो ही किया जाए अगर (परमात्मा के बिना कहीं) कोई और हो।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़े रहते हैं, वे मनुष्य सदा स्थिर प्रभू के दर पर सुर्ख-रू होते हैं, विचारवान (माने जाते) हैं (गुरू की शरण पड़े रहना ही) सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य है।6।

थिती वार सभि सबदि सुहाए ॥ सतिगुरु सेवे ता फलु पाए ॥ थिती वार सभि आवहि जाहि ॥ गुर सबदु निहचलु सदा सचि समाहि ॥ थिती वार ता जा सचि राते ॥ बिनु नावै सभि भरमहि काचे ॥७॥ मनमुख मरहि मरि बिगती जाहि ॥ एकु न चेतहि दूजै लोभाहि ॥ अचेत पिंडी अगिआन अंधारु ॥ बिनु सबदै किउ पाए पारु ॥ आपि उपाए उपावणहारु ॥ आपे कीतोनु गुर वीचारु ॥८॥ {पन्ना 842}

पद्अर्थ: थिती = तिथिएं, चाँद के बढ़ने घटने से निहित किए हुए दिन। सभि = सारे। सबदि = शबद के द्वारा। सुहाऐ = सोहाने हैं। सेवे = शरण पड़े। आवहि जाहि = बार बार आते हैं और गुजर जाते हैं। निहचलु = अटल। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। जा = जब। भरमहि = भटकते हैं। काचे = कमजोर आत्मिक जीवन वाले मनुष्य।7।

मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मरहि = आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं। मरि = मर के, आत्मिक मौत मर के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। बिगति = बुरी आत्मिक अवस्था वाले। चेतहि = सिमरते (बहुवचन)। दूजै = माया में। लोभाहि = फसे रहते हैं। अचेत = गाफिल। अचेत पिंडी = मूर्ख मति वाला। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझ। अंधारु = (माया के मोह में फस के सही जीवन से) अंधा। पारु = (संसार समुंद्र से) उसपार का किनारा। उपाऐ = पैदा करता है। आपे = खुद ही। कीतोनु = उसने किया है।8।

अर्थ: हे भाई! (लोग खास-खास तिथियों और वारों को पवित्र मान के खास-खास धार्मिक कर्म करते हैं और खास-खास फल मिलने की आशा रखते हैं, पर) सारी तिथियाँ और सारे वार (तब ही) सुंदर हैं (उक्तम हैं) (अगर मनुष्य गुरू के) शबद में (जुड़े रहें)। (मनुष्य) गुरू की शरण पड़े, तब ही (मानस जीवन का श्रेष्ठ फल) हासिल करता है। यह तिथियाँ ये वार सारे आते हैं और गुज़र जाते हैं। गुरू का शबद (ही) अटल रहने वाला है (शबद की बरकत से मनुष्य) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में सदा लीन रह सकते हैं, (यह) तिथियाँ और वार तब ही (मानवता के भले के लिए होते हैं) जब मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के प्रेम-रंग में रंगे जाते हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम से टूटे हुए सारे जीव कमजोर आत्मिक जीवन वाले (होने के कारण) भटकते रहते हैं।7।

हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, आत्मिक मौत मर के (जगत से) खराब आत्मिक हालत में ही जाते हैं (क्योंकि) वह (कभी) परमातमा का सिमरन नहीं करते; और माया के मोह में ही फसे रहते हैं।

हे भाई! मूर्ख मति वाला मनुष्य, आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझ मनुष्य, माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य (विकारों भरे संसार-समुंद्र का) उस पार का किनारा नहीं पा सकता (वह सदा विकारों में ही डूबा रहता है)। (पर, जीव के वश की बात नहीं), (जीवों को) पैदा करने की समर्था वाले परमात्मा ने खुद (ही जीवों को) पैदा किया है, (उसने) स्वयं ही (सही जीवन के बारे में) गुरू का (बताया) विचार बनाया हुआ है (गुरू के बताए रास्ते पर वह खुद ही जीवों को चलाता है)।8।

बहुते भेख करहि भेखधारी ॥ भवि भवि भरमहि काची सारी ॥ ऐथै सुखु न आगै होइ ॥ मनमुख मुए अपणा जनमु खोइ ॥ सतिगुरु सेवे भरमु चुकाए ॥ घर ही अंदरि सचु महलु पाए ॥९॥ आपे पूरा करे सु होइ ॥ एहि थिती वार दूजा दोइ ॥ सतिगुर बाझहु अंधु गुबारु ॥ थिती वार सेवहि मुगध गवार ॥ नानक गुरमुखि बूझै सोझी पाइ ॥ इकतु नामि सदा रहिआ समाइ ॥१०॥२॥ {पन्ना 842-843}

पद्अर्थ: भेखधारी = निरे धार्मिक पहरावे का आसरा लेने वाले मनुष्य। भवि भवि = (तीर्थ आदि जगह) भटक भटक के। भरमहि = भटकते फिरते हैं। सारी = नरद। काची सारी = कच्ची नरद।

(नोट: चौपड़ की खेल में एक खिलाड़ी की नरद अपने घर से चल के बयालिस घरों तक कच्ची ही रहती है। दूसरे की नरद पीछे से आ के उसको मार सकती है। अगर इतने घरों (42) को पार कर जाए तो वह विरोधी की मार से बच जाती है)।

अैथै = इस लोक में। आगै = परलोक में। मुऐ = आत्मिक मौत मर गए। खोइ = व्यर्थ गवा के। सेवे = शरण पड़ता है। भरमु = भटकना। चुकाऐ = दूर कर लेता है। सचु महलु = प्रभू का सदा स्थिर ठिकाना।9।

आपे = स्वयं ही। ऐहि = ('ऐह' का बहुवचन)। दूजा = माया का मोह। दोइ = मेर तेर, द्वैत। अंधु गुबारु = पूरी तौर पर अंधा। सेवहि = मनाते हैं। बूझै = समझता है। सोझी = समझ। इकतु = सिर्फ एक में। इकतु नामि = सिर्फ हरी के नाम में। रहिआ समाइ = लीन रहता है।10।

अर्थ: हे भाई! सिर्फ धार्मिक पहरावे का आसरा लेने वाले मनुष्य अनेकों भेष करते रहते हैं, (तीर्थों आदि कई जगहों पर) भटक-भटक के चलते-फिरते हैं, (ऐसे मनुष्य) कच्ची नरदों (की तरह विकारों से मार खाते ही रहते हैं) उनको आत्मिक आनंद ना तो इस लोक में मिलता है ना ही परलोक में मिलता है। अपने मन के पीछे चलने वाले (ऐसे मनुष्य) अपना मानस जनम व्यर्थ गवा के आत्मिक मौत मरे रहते हैं।

जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह (अपने अंदर से) भटकना खत्म कर लेता है, वह अपने हृदय-घर में ही सदा-स्थिर-प्रभू का ठिकाना ढूँढ लेता है (उसे तिथियों आदि का आसरा ले के तीर्थों आदि पर भटकने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती)।9।

हे भाई! पूरन-प्रभू खुद ही (जो कुछ) करता है वही होता है (विषोश तिथियों को बढ़िया उक्तम जान के भटकते ना फिरो, बल्कि) बल्कि ये तिथियाँ ये वार मननाने तो माया का मोह पैदा करने का कारण बनते हैं, मेर-तेर पैदा करते हैं।

गुरू की शरण आए बिना मनुष्य (आत्मिक जीवन की ओर से) पूरी तौर पर अंधा हुआ रहता है, (गुरू का आसरा छोड़ के) मूर्ख मनुष्य ही तिथियों और वार मनाते फिरते हैं।

हे नानक! गुरू की शरण पड़ कर (जो मनुष्य) समझता है, उसको (आत्मिक जीवन की) सूझ आ जाती है, वह मनुष्य सदा सिर्फ परमात्मा के नाम नही लीन रहता है।10।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh