श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला १ छंत दखणी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मुंध नवेलड़ीआ गोइलि आई राम ॥ मटुकी डारि धरी हरि लिव लाई राम ॥ लिव लाइ हरि सिउ रही गोइलि सहजि सबदि सीगारीआ ॥ कर जोड़ि गुर पहि करि बिनंती मिलहु साचि पिआरीआ ॥ धन भाइ भगती देखि प्रीतम काम क्रोधु निवारिआ ॥ नानक मुंध नवेल सुंदरि देखि पिरु साधारिआ ॥१॥ {पन्ना 843}

पद्अर्थ: मुंध = (मुग्धा = a young girl attractive by her youthful simplicity) जवान लड़की जिसको अभी अपनी जवानी का अहिसास नहीं है, भले स्वभाव वाली जीव स्त्री। नवेलड़ीआ = नई, विकारों से बची हुई। गोइलि = गोइल में (आम तौर पर नदियों के किनारे की वह हरी भरी जगहें जहाँ पर लोग जरूरत के समय अपना पशु-मवेशी चराने के लिए अस्थाई रूप से आ बसते हैं), चार दिन के बसेरे वाले जगत में। मटुकी = चाटी ('मट' से 'मटकी' अल्पार्थक संज्ञा है)। मटुकी डारि धरी = मटकी सिर पर से उतार के किनारेपर रख दी है, शरीर का मोह त्याग दिया है, देह-अध्यास छोड़ दिया है। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। सबदि = गुरू के शबद से। सीगारीआ = श्रृंगार किया है, अपना जीवन सुंदर बनाया है। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। (देखें सूही महला १, छंत नंबर ५, अंक नंबर ६)। करि = करे, करती है। साचि = सदा स्थिर प्रभू के नाम में (जुड़ के)। पिआरीआ = मैं प्रभू को प्यार कर सकूँ। धन = स्त्री, जीव स्त्री। भाइ = भाव से, प्रेम में जुड़ के। भाउ = प्रेम। नवेल = नई, विकारों से बची हुई। सुंदरी = सुंदरी, सुंदर जीवन वाली। देखि पिरु = प्रभू पति को देख के। साधारिआ = आधार सहित हो जाती है प्रभू का आसरा हृदय में बनाती है।1।

अर्थ: थोड़े दिनों के बसेरे वाले इस जगत में आ के जो जीव-स्त्री विकारों से बची रहती है, जिसने परमात्मा (के चरणों) में सुरति जोड़ी हुई है और शरीर का मोह त्याग दिया है, जो प्रभू चरणों में प्रीति जोड़ के इस जगत में जीवन बिताती है, वह आत्मिक अडोलता में टिक के सतिगुरू के शबद की बरकति से अपना जीवन सुंदर बना लेती है। वह (सदा दोनों) हाथ जोड़ के गुरू के पास विनती करती रहती है (कि, हे गुरू! मुझे) मिल (ताकि मैं तेरी कृपा से) सदा-स्थिर प्रभू के नाम में जुड़ के उसको प्यार कर सकूँ।

ऐसी जीव-स्त्री प्रीतम-प्रभू की भक्ति के द्वारा प्रीतम प्रभू के प्रेम में टिक के उसका दर्शन करके काम-क्रोध (आदि विकारों को अपने अंदर से) दूर कर लेती है। हे नानक! पवित्र और सुंदर जीवन वाली वह जीव-स्त्री प्रभू-पति के दीदार करके (उसकी याद को) अपने हृदय का आसरा बना लेती है।1।

सचि नवेलड़ीए जोबनि बाली राम ॥ आउ न जाउ कही अपने सह नाली राम ॥ नाह अपने संगि दासी मै भगति हरि की भावए ॥ अगाधि बोधि अकथु कथीऐ सहजि प्रभ गुण गावए ॥ राम नाम रसाल रसीआ रवै साचि पिआरीआ ॥ गुरि सबदु दीआ दानु कीआ नानका वीचारीआ ॥२॥ {पन्ना 843}

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभू में जुड़ के। नवेइड़ीऐ = हे विकारों से बची हुई जीव स्त्री! जोबनि = जोबन में, जवानी में। बाली = बाल स्वभाव वाली, भोले स्वभाव वाली। कही = कहीं, किसी और जगह। आउ न जाउ = न आ न जा। नाली = साथ। सह नाली = पति प्रभू के साथ (जुड़ी रह)। नाह संगि = पति के साथ। मै = मुझे। भावऐ = भाव, प्यारी लगती है। अगाधि = अगाध (प्रभू) में। अगाध = (नदिंजीवदंइइसम) अथाह। बोधि = बुद्धि से, (गुरू के बख्शे) ज्ञान की बरकति से। अकथु = वह प्रभू जिसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते। कथीअै = कहना चाहिए, गुणानुवाद करना चाहिए। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। गावऐ = (जो) गाती है। रसाल = (रस+आलय) रसों का घर, रसों का श्रोत। रसीआ = रसों के मालिक। साचि = सदा स्थिर प्रभू के नाम में। पिआरिआ = प्यार करने वालों को। गुरि = गुरू ने। वीचारीआ = विचारवान।2।

अर्थ: हे सदा-स्थिर प्रभू में जुड़ के विकारों से बची हुई जीव स्त्री! जवानी में भी भोले स्वभाव वाली (बनी रह; अहंकार छोड़ के) अपने पति-प्रभू (के चरणों) में टिकी रह (देखना, उसका पल्ला छोड़ के) किसी और जजगह ना भटकती फिरना।

वही दासी (सौभाग्य है जो) अपने पति की संगति में रहती है। (हे सखिए!) मुझे भी प्रभू-पति की भक्ति प्यारी लगती है, (जो जीव-स्त्री) आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभू के गुण गाती है (वह दासी अपने पति-प्रभू की संगति में शोभा पाती है)। (सो, सहेली! गुरू के बख्शे) ज्ञान से (गुणों के) अथाह (समुद्र-) प्रभू में (डुबकी लगा के) उस प्रभू के गुणगान करने चाहिए। वह प्रभू ऐसे स्वरूप वाला है जिसका बयान नहीं हो सकता।

रसों के श्रोत, रसों के मालिक प्रभू उस जीव-स्त्री को अपने चरणों में जोड़ता है जो उसके सदा-स्थिर नाम में प्यार डालती है। हे नानक! जिस सौभाग्यवती जीव-स्त्री को गुरू ने परमात्मा की सिफतसालाह का शबद दिया, जिसको यह ऊँची दाति बख्शी, वह उच्च विचार के मालिक बन जाती है।2।

स्रीधर मोहिअड़ी पिर संगि सूती राम ॥ गुर कै भाइ चलो साचि संगूती राम ॥ धन साचि संगूती हरि संगि सूती संगि सखी सहेलीआ ॥ इक भाइ इक मनि नामु वसिआ सतिगुरू हम मेलीआ ॥ दिनु रैणि घड़ी न चसा विसरै सासि सासि निरंजनो ॥ सबदि जोति जगाइ दीपकु नानका भउ भंजनो ॥३॥ {पन्ना 843}

पद्अर्थ: स्री = श्री, लक्ष्मी, माया। स्रीधर = लक्ष्मी का आसरा, परमात्मा। मोहिअड़ी = मोही हुई, प्यार वश हो चुकी। संगि = साथ। सूती = सोई हुई, चरनों में जुड़ी हुई। भाइ = प्यार में, अनुसार। चलो = चाल, जीवन। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। संगती = संगति में, लीन। धन = जीव स्त्री। संगि सखी सहेलीआ = सत्संगियों की संगति में। इक भाइ = एक के प्रेम में, सिर्फ परमात्मा के प्रेम में। इक मनि = एकाग्र मन से। हम = हमें। रैणि = रात। चसा = पल का बीसवां हिस्सा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। निरंजनो = (निर+अंजन) जिस पर माया के मोह की कालिख का प्रभाव नहीं पड़ सकता। सबदि = गुरू के शबद से। जगाइ = जगा के। दीपकु = दीया। भउ = (हरेक) डर, सहम। भंजनो = नाश कर लिया है।3।

अर्थ: (हे भाई! जिस जीव-स्त्री की) जीवन-चाल गुरू के अनुसार रहती है जो जीव-स्त्री सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहती है, (वह जीव-स्त्री) माया के पति प्रभू के प्यार-वश में हो जाती है वह जीव-स्त्री पति-प्रभू के चरणों में जुड़ी रहती है। हे भाई! सत्संगी सहेलियों के साथ मिल के जो जीव-स्त्री सदा-स्थिर प्रभू (की याद) में लीन होती है, प्रभू-पति के चरणों में जुड़ती है, परमात्मा के प्यार में एकाग्र-मन टिकने के कारण (उसके अंदर परमात्मा का) नाम आ बसता है (उसके अंदर ये श्रद्धा बन जाती है कि) गुरू ने (मुझे) प्रभू के चरणों में मिलाया है। (उस जीव-स्त्री को) दिन-रात घड़ी-पल (किसी वक्त भी परमात्मा की याद) नहीं भूलती, (वह जीव-स्त्री) हरेक सांस के साथ निरंजन-प्रभू (को याद रखती है)। हे नानक! (कह- हे भाई!) गुरू के शबद के द्वारा (अपने अंदर ईश्वरीय) ज्योति जगा के दीया जला के (वह जीव-स्त्री अपने अंदर से हरेक) डर-सहम नाश कर लेती है।3।

जोति सबाइड़ीए त्रिभवण सारे राम ॥ घटि घटि रवि रहिआ अलख अपारे राम ॥ अलख अपार अपारु साचा आपु मारि मिलाईऐ ॥ हउमै ममता लोभु जालहु सबदि मैलु चुकाईऐ ॥ दरि जाइ दरसनु करी भाणै तारि तारणहारिआ ॥ हरि नामु अम्रितु चाखि त्रिपती नानका उर धारिआ ॥४॥१॥ {पन्ना 843}

पद्अर्थ: सबाइड़ीऐ = सबाइ अड़ीऐ! सबाइ = सब जगह। अड़ीऐ = हे सहेली! त्रिभवण = तीन भवन, सारा जगत। सारे = संभाल करता है। घटि घटि = हरेक शरीर में। रवि रहिआ = व्यापक है। अलख = अद्रिष्ट। अपार = बेअंत। साचा = सदा कायम रहने वाला। आपु = स्वै भाव। मारि = मार के। जालहु = जला दो। ममता = (मम = मेरी) अपनत्व, माया जोड़ने की खींच। सबदि = गुरू के शबद से। चुकाईअै = दूर कर सकती है। दरि = (गुरू के) दर पर। करी = कर लेना, हे सहेली! भाणै = रजा में। तारणहारिआ = हे तारनहार! तैराने की समर्थता रखने वाले हे प्रभू! अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। चाखि = चख के। त्रिपती = (माया की तृष्णा से) तृपत हो गई। उर = हृदय।4।

अर्थ: हे सहेलीए! (परमात्मा की) ज्योति हर जगह (पसरी हुई) है, वह प्रभू सारे जगत की संभाल करता है। वह अदृष्य और बेअंत प्रभू हरेक शरीर में मौजूद है।

हे सहेली! वह परमात्मा अदृष्य है बेअंत है, बेअंत है, वह सदा कायम रहने वाला है। स्वै भाव मार के (ही उसको) मिला जा सकता है। हे सहेली! (अपने अंदर से) अहंकार, माया जोड़ने की कसक और लालच जला दे (सहेलिए! अहंकार ममता लोभ आदि की) मैल गुरू के शबद से ही समाप्त की जा सकती है।

(सो, हे सहेलिए! गुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा की) रजा में (चल के जीवन व्यतीत कर, और अरदास किया कर-) हे तारणहार प्रभू! (मुझे विकारों के समुंद्र से) पार लंघा ले (इस तरह, हे सहेलिए! गुरू के) दर पर जा के (परमात्मा के) दर्शन कर लेगी।

हे नानक! (कह- हे सहेली! जो जीव-स्त्री प्रभू का नाम अपने) हृदय में बसाती है वह आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम जल चख के (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाती है।4।1।

बिलावलु महला १ ॥ मै मनि चाउ घणा साचि विगासी राम ॥ मोही प्रेम पिरे प्रभि अबिनासी राम ॥ अविगतो हरि नाथु नाथह तिसै भावै सो थीऐ ॥ किरपालु सदा दइआलु दाता जीआ अंदरि तूं जीऐ ॥ मै अवरु गिआनु न धिआनु पूजा हरि नामु अंतरि वसि रहे ॥ भेखु भवनी हठु न जाना नानका सचु गहि रहे ॥१॥ {पन्ना 843-844}

पद्अर्थ: मै मनि = मेरे मन में। घणा = बहुत। साचि = सदा स्थिर हरी नाम में (टिक के)। विगासी = मैं खिल रही हूँ, मेरा मन खिला रहता है। पिरे = पिर ने। प्रभि = प्रभू ने। अविगतो = (अव्यतत्र) अद्रिष्ट। नाथु नाथह = नाथों का नाथ। तिसै = उस (प्रभू) को ही। थीअै = होता है। जीअै = जिंद देने वाला। अवरु = और। गिआनु = धर्म चर्चा। धिआनु = समाधि आदि का उद्यम। भवनी = तीर्थ यात्रा। हठु = हठ (के आसरे किए) योग आसन। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।1।

अर्थ: हे सहेली! अविनाशी प्यारे प्रभू ने (मेरे मन को अपने) प्रेम (की खींच से) मस्त कर रखा है, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा (के नाम) में (टिक के) मेरा मन खिला रहता है, मेरे मन में बहुत चाव बना रहता है। हे सहेली! वह परमात्मा इन आँखों से नहीं दिखता, पर वह परमात्मा (बड़े-बड़े) नाथों का (भी) नाथ है, (जगत में) वह ही होता है, जो उस परमात्मा को ही अच्छा लगता है।

हे प्रभू! तू मेहर का समुंद्र है, तू सदा ही दया का श्रोत है, तू ही सब दातें देने वाला है, तू ही सब जीवों के अंदर का प्राण है।

हे सहेली! (मेरे) मन में परमात्मा का नाम बस रहा है (इस हरी-नाम के बराबर की) मुझे कोई धर्म-चर्चा, कोई समाधि, कोई देव-पूजा नहीं सूझती। हे नानक! (कह-हे सहेलिए!) मैंने सदा कायम रहने वाले हरी-नाम को (अपने हृदय में) पक्की तरह टिका लिया है (इसके बराबर का) मैं कोई भेष, कोई तीर्थ-रटन, कोई हठ योग नहीं समझती।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh