श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 846 साहा अटलु गणिआ पूरन संजोगो राम ॥ सुखह समूह भइआ गइआ विजोगो राम ॥ मिलि संत आए प्रभ धिआए बणे अचरज जाञीआं ॥ मिलि इकत्र होए सहजि ढोए मनि प्रीति उपजी माञीआ ॥ मिलि जोति जोती ओति पोती हरि नामु सभि रस भोगो ॥ बिनवंति नानक सभ संति मेली प्रभु करण कारण जोगो ॥३॥ {पन्ना 846} पद्अर्थ: साहा = विवाह का महूरत। अटलु = कभी ना टलने वाला। पूरन संजोगो = पूर्ण प्रभू का मिलाप। सुखह समूह = सुखों का समूह, सारे सुखों का मेल। विजोगो = विछोड़ा। मिलि = मिल के। जाञीआं = जांजियां। जांञी = जांजी, दूल्हे के साथी, बाराती। इकत्र = (सत्संग में) एकत्र। सहजि = आत्मिक अडोलता में। ढोऐ = पहुँचे, बारात बन के लड़की वालों के घर पहुँचे। मनि = मन में। माञीआ = मांजियां, मांजी, लड़की वालों की तरफ के बाराती। माञीआ मनि = लड़की के संबंधियों के मन में, ज्ञान इन्द्रियों के अंदर। जोति = जीव के प्राण। जोती = प्रभू की ज्योति। ओति पोती = ताने पेटे की तरह। सभि रस = सारे स्वादिष्ट पदार्थ। संति = गुर संत ने। सभ = (शरण पड़ी) सारी दुनिया। करण कारण = सारे जगत का मूल। जोगो = सब ताकतों के मालिक।3। अर्थ: (लडकी-लड़के के विवाह का महूरत निहित किया जाता है। दूल्हे के साथ बाराती आते हैं, लड़की वालों के घर पहुँचते हैं, उस वक्त लड़की वालों सगे-संबन्धियों के मन में खुशी होती है। बारातियों को कई प्रकार के स्वादिष्ट भोजन खिलाते हैं। पंडित लावें पढ़ के लड़की-लड़के का मेल करा देता है)। (इसी तरह साध-संगति की बरकति से जीव-स्त्री और प्रभू-पति के मिलाप का) कभी ना टलने वाला महूरत बन जाता है। (साध-संगति की कृपा से जीव-स्त्री का) पूरन-परमात्मा से मिलाप (विवाह) हो जाता है, (जीव-स्त्री के हृदय में) सारे सुख आ बसते हैं (प्रभू-पति से उसका) विछोड़ा (वियोग) मिट जाता है। संतजन मिल के (साध-संगति में) आते हैं, प्रभू की सिफत-सालाह करते हैं (जीव-स्त्री को प्रभू-पति को मिलाने के लिए ये सत्संगी) आश्चर्यजनक बाराती (जांजी) बन जाते हैं। (संतजन) मिल के (साध-संगति में) इकट्ठे होते हैं, आत्मिक अडोलता में (टिकते हैं, जैसे लड़की वालों के घर बाराती) पहुँच रहे होते हैं, (जैसे) लड़की वाले सगे-संबन्धियों के मन में उत्साह-खुशी पैदा होती है (वैसे ही प्राणों के साथियों के मन में, सारी ज्ञानेन्द्रियों के अंदर चाव पैदा होता है । (साध-संगति के प्रताप से जीव-स्त्री के) प्राण प्रभू की ज्यरेति में मिल के ओत-प्रोत एक-मेक हो जाते हैं (जैसे दोनों तरफ के बारातियों- जांजियों मांजियों - को) सारे स्वादिष्ट पदार्थ खिलाए जाते हैं, (वैसे ही जीव-स्त्री को) परमात्मा का नाम-भोजन प्राप्त होता है। नानक बिनती करता है- (यह सारी गुरू की ही मेहर है) गुरू संत ने (शरण पड़ी) सारी लुकाई को सारे जगत का मूल सब ताकतों का मालिक मिलाया है।3। भवनु सुहावड़ा धरति सभागी राम ॥ प्रभु घरि आइअड़ा गुर चरणी लागी राम ॥ गुर चरण लागी सहजि जागी सगल इछा पुंनीआ ॥ मेरी आस पूरी संत धूरी हरि मिले कंत विछुंनिआ ॥ आनंद अनदिनु वजहि वाजे अहं मति मन की तिआगी ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी संतसंगि लिव लागी ॥४॥१॥ {पन्ना 846} पद्अर्थ: भवनु = घर, शरीर। सुहावड़ा = सुंदर। धरति = हृदय। सभागी = भाग्यशाली (हृदय = धरती)। घरि = (हृदय) घर में। आइअड़ा = आ गया, प्रगट हुआ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जागी = (विकारों के हमलों की ओर से) सचेत हो गई। मेरी आस = ममता बढ़ाने वाली आस। विछुंनिआ = छेदित हुआ। अनदिनु = हर रोज। वजहि = बजते हैं। आनंद वाजे = आनंद रूपी बाजे। (नोट: जब कहीं बाजे बज रहे हों तो पास खड़े लोग एक-दूसरे की बात सुन नहीं सकते, क्योंकि बजते बाजों का शोर बहुत प्रबल होता है। इसी प्रकार जिस हृदय में आत्मिक आनंद बहुत प्रबल हो जाए वहाँ 'अहंकार' आदि की प्रेरणा कोई नहीं सुनता)। संत संगि = गुरू की संगति में।4। अर्थ: (जो जीव-स्त्री) गुरू के चरणों में लगती है, उसके (हृदय-) घर में प्रभू-पति आ बैठता है, उसका (शरीर-) भवन सुंदर हो जाता है, उसकी (हृदय-) धरती भाग्यशाली हो जाती है। (जो जीव-स्त्री) गुरू के चरणों में लगती है, वह आत्मिक अडोलता में (टिक के विकारों के हमलों से) सचेत रहती है, उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। साध-संगति की चरण-धूल के प्रताप से (उसके अंदर से) ममता बढ़ाने वाली आस खत्म हो जाती है, उसको चिरों से विछड़े हुए प्रभू-कंत मिल जाते हैं। नानक विनती करता है- (गुरू के चरणों में लगी हुई जीव-स्त्री के अंदर) हर वक्त आत्मिक आनंद के बाजे बजते रहते हैं (जिसके सदका वह अपने) मन के अहंकार की मति त्याग देती है साध-संगति में रह के उसकी सुरति मालिक-प्रभू में लगी रहती है, वह जीव-स्त्री मालिक प्रभू की शरण पड़ी रहती है।4।1। बिलावलु महला ५ ॥ भाग सुलखणा हरि कंतु हमारा राम ॥ अनहद बाजित्रा तिसु धुनि दरबारा राम ॥ आनंद अनदिनु वजहि वाजे दिनसु रैणि उमाहा ॥ तह रोग सोग न दूखु बिआपै जनम मरणु न ताहा ॥ रिधि सिधि सुधा रसु अम्रितु भगति भरे भंडारा ॥ बिनवंति नानक बलिहारि वंञा पारब्रहम प्रान अधारा ॥१॥ {पन्ना 846} पद्अर्थ: सुलखणा = (सु+लक्षणा) सुंदर लक्षणों वाले। भाग सुलखणा = सुंदर लक्षणों वाले भाग्य। बाजित्रा = वादित्रं (a musical intrument) बाजा। तिसु दरबारा = उस (केत प्रभू) के दरबार में। अनाहद = (अनाहत, not produced by beating, बिना बजाए बज रहे) एक रस। अनदिनु = हर रोज। वजहि = बजते हैं। रैण = रात। उमाहा = उत्साह, चाव। तह = 'तिसु दरबार', वहाँ, उस प्रभू के दरबार में। बिआपै = जोर डाल सकता। ताहा = उसको। रिधि सिधि = रिद्धियां सिद्धियां, करामाती ताकतें। सुधा अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। वंञा = वंजां, जाऊँ। बलिहार वंञा = मैं सदके जाता हूँ। प्राण अधारा = जिंद का आसरा।1। अर्थ: हे सहेलिए! हमारा कंत-प्रभू सुंदर लक्षणों वाले भाग्यों वाला है, उस (कंत) के दरबार में एक-रस (बस रहे) बाजों की धुनि उठ रही है। हे सहेलिए! (उस कंत के दरबार में सदा) आनंद के बाजे बजते रहते हैं, दिन-रात (वहाँ) चाव (बना रहता है)। वहाँ रोग नहीं है, वहाँ चिंता-फिक्र नहीं हैं, वहाँ (कोई) दुख अपना जोर नहीं डाल सकता, उस (कंत) को पैदा होने-मरने का चक्कर नहीं हैं। हे सहेलिए! (उस कंत-प्रभू के दरबार में) रिद्धियां हैं सिद्धियां हैं, आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस है, भक्ति के खजाने भरे हुए हैं। नानक विनती करता है- (सब जीवों की) जिंदगी के आसरे उस पारब्रहम से सदके जाता हूँ।1। सुणि सखीअ सहेलड़ीहो मिलि मंगलु गावह राम ॥ मनि तनि प्रेमु करे तिसु प्रभ कउ रावह राम ॥ करि प्रेमु रावह तिसै भावह इक निमख पलक न तिआगीऐ ॥ गहि कंठि लाईऐ नह लजाईऐ चरन रज मनु पागीऐ ॥ भगति ठगउरी पाइ मोहह अनत कतहू न धावह ॥ बिनवंति नानक मिलि संगि साजन अमर पदवी पावह ॥२॥ {पन्ना 846} पद्अर्थ: सखीअ = हे सखीओ! मिलि = मिल के। मंगलु = सिफत सालाह का गीत। गावह = आओ हम गाएं। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। करे = करके। कउ = को। रावह = आओ सिमरें। तिसै भावह = उस (कंत प्रभू को) अच्छी लगें। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। न तिआगीअै = त्यागना नहीं चाहिए। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। लाईअै = लगा लेना चाहिए। नह लजाईअै = शर्म नहीं करनी चाहिए। रज = धूल। पागीअै = लेप लेनी चाहिए। ठगउरी = ठग बूटी। मोहह = आओ हम मोह लें। अनत = (अन्यत्र) किसी और जगह। न धावह = हम ना दौड़ें। अमर पदवी = वह आत्मिक दर्जा जिसको कभी मौत नहीं आती। पावह = हम हासिल करें।2। अर्थ: हे सखियो! हे सहेलियो! सुनो, आओ मिल के परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाएं। हे सहेलियो! मन में हृदय में प्यार पैदा करके उस प्रभू को सिमरें। (हृदय में) पे्रम पैदा करके (उसको) सिमरें, और उसे प्यारी लगें। हे सहेलियो! (उस कंत-प्रभू को) आँख झपकने जितने समय के लिए भी भुलाना नहीं चाहिए, उसको पकड़ के गले से लगा लेना चाहिए (उसका नाम सुरति जोड़ के गले में परो लेना चाहिए, इस काम से) शर्म नहीं करनी चाहिए, (उसके) चरणों की धूल से (अपना यह) मन रंग लेना चाहिए। नानक विनती करता है- हे सहेलियो! भगती की ठॅग बूटी का प्रयोग करके, आओ, उस कंत-प्रभू को वश में कर लें, व, किसी और तरफ़ ना भटकती फिरें। उस सज्जन प्रभू को मिल के वह दर्जा हासिल कर लें, जहाँ आत्मिक मौत कभी छू नहीं सकती।2। बिसमन बिसम भई पेखि गुण अबिनासी राम ॥ करु गहि भुजा गही कटि जम की फासी राम ॥ गहि भुजा लीन्ही दासि कीन्ही अंकुरि उदोतु जणाइआ ॥ मलन मोह बिकार नाठे दिवस निरमल आइआ ॥ द्रिसटि धारी मनि पिआरी महा दुरमति नासी ॥ बिनवंति नानक भई निरमल प्रभ मिले अबिनासी ॥३॥ {पन्ना 846} पद्अर्थ: बिसम = हैरान। बिसमन बिसम = बहुत ही हैरान। पेखि = देख के। अबिनासी = नाश रहित। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। भुजा = बांह। कटि = काट के। गहि लीनी = पकड़ ली है। दासि = दासी। अंकुरि = अंकुर के कारण, (भाग्य के फूट रहे) अंकुर के कारण। उदोतु = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। जणाइआ = बता दिया है, दिखा दिया है। मलन = मैले, बुरे। नाठे = भाग गए हैं। निरमल = पवित्र। द्रिसटि = मेहर की निगाह। मनि = मन में। दुरमति = खोटी मति।3। अर्थ: हे सहेलियो! अविनाशी कंत-प्रभू के गुण (उपकार) देख-देख के मैं तो हैरान ही हो गई हूँ। (उसने मेरा) हाथ पकड़ के, (मेरी) जमों वाले बंधन काट के, मेरी बाँह पकड़ ली है। उसने मेरी बाँह कस के पकड़ ली है, मुझे (अपनी) दासी बना लिया है, (मेरे सौभाग्य के फूट रहे) अंकुर के कारण, (उसने मेरे अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश कर दिया है। मोह आदि बुरे विकार (मेरे अंदर से) भाग गए हैं, (मेरी जिंदगी के) पवित्र दिन आ गए हैं। नानक विनती करता है- (हे सहेलियो! उस कंत-प्रभू ने मेरे ऊपर प्यार भरी) निगाह की (जो मेरे) मन को भा गई है, (उसके प्रताप से मेरे अंदर से) दुमर्ति नाश हो चुकी है, अविनाशी प्रभू जी (मुझे मिल गए हैं, मैं पवित्र जीवन वाली हो गई हूँ)।3। सूरज किरणि मिले जल का जलु हूआ राम ॥ जोती जोति रली स्मपूरनु थीआ राम ॥ ब्रहमु दीसै ब्रहमु सुणीऐ एकु एकु वखाणीऐ ॥ आतम पसारा करणहारा प्रभ बिना नही जाणीऐ ॥ आपि करता आपि भुगता आपि कारणु कीआ ॥ बिनवंति नानक सेई जाणहि जिन्ही हरि रसु पीआ ॥४॥२॥ {पन्ना 846} पद्अर्थ: मिले = मिल के। सूरज किरणि मिले = सूरज की किरण के साथ मिल के। संपूरनु थीआ = सारे गुणों के मालिक प्रभू का रूप हो जाता है। दीसै = दिखता है (हर तरफ)। सुणीअै = (हरेक में बोलता) उसको सुना जाता हैं। वखाणीअै = ज़िक्र होता है। पसारा = खिलारा, प्रकाश। कारणु कीआ = (जगत का) आरम्भ हुआ। सेई = वह लोग। जाणहि = जानते हैं।4। अर्थ: हे भाई! (जैसे) सूरज की किरण से मिल के (बर्फ से) पानी का पानी बन जाता है (सूरज की गर्मी बर्फ बने पानी पानी की कठोरता खत्म हो जाती है), (वैसे सिफत सालाह की बरकति से जीव के अंदर का रूखा-पन खत्म हो के जीव की) जीवात्मा परमात्मा की ज्योति के साथ एक-मेक हो जाती है, जीव सारे गुणों के मालिक परमात्मा का रूप हो जाता है। (तब उसको हर जगह) परमात्मा ही (बसता) नजर आता है, (हरेक में) परमात्मा ही (बोलता उसको) सुनाई देता है (उसको ऐसा प्रतीत होता है कि हर जगह) परमात्मा खुद (ही सबको) पैदा करने वाला है, (जीवों में व्यापक हो के) खुद (ही सारे रंग) माण रहा है, वह खुद हरेक काम की प्रेरणा कर रहा है। (पर) नानक विनती करता है (कि इस अवस्था को) वही मनुष्य समझते हैं, जिन्होंने परमात्मा के नाम का स्वाद चखा है।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |