श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 845

बिलावलु महला ४ सलोकु ॥ हरि प्रभु सजणु लोड़ि लहु मनि वसै वडभागु ॥ गुरि पूरै वेखालिआ नानक हरि लिव लागु ॥१॥ छंत ॥ मेरा हरि प्रभु रावणि आईआ हउमै बिखु झागे राम ॥ गुरमति आपु मिटाइआ हरि हरि लिव लागे राम ॥ अंतरि कमलु परगासिआ गुर गिआनी जागे राम ॥ जन नानक हरि प्रभु पाइआ पूरै वडभागे राम ॥१॥ {पन्ना 845}

पद्अर्थ: लोड़ि लहु = ढूँढ लो। मनि = मन में। वसै = आ बसता है। वडभागु = बड़े भाग्यों वाला। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। लिव = सुरति लगन।1।

छंत। रावणि = (मिलाप का आनंद) लेने के लिए। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाले (अहंकार का) ज़हर। झागे = झाग, (अहंकार के समुंद्र) मुश्किल में से गुजर के। आपु = स्वै भाव। कमलु = हृदय का कमल फूल। परगासिआ = खिल उठता है। गुर गिआनी = गुरू के दी हुई आत्मिक जीवन की सूझ के द्वारा। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। जागे = (माया के हमलों की ओर से) सचेत रहता है।1।

अर्थ: सलोक। हे भाई! (असल) मित्र परमात्मा को ढूँढ लो। (जिसके) मन में वह आ बसता है, वह मनुष्य भाग्यशाली हो जाता है। हे नानक! (जिस मनुष्य को) पूरे गुरू ने परमात्मा के दर्शन करवा दिए उसकी सुरति परमात्मा में जुड़ गई।1।

हे सहेलिए! (जो जीव-स्त्री) आत्मिक मौत लाने वाले अहंकार के जहर (से भरे हुए समुंद्र) को मुश्किल से पार करके प्रभू-पति को मिलने के लिए (गुरू की शरण) आती है, गुरू की मति पर चल क रवह (अपने अंदर से) स्वै भाव मिटाती है, (और, फिर) उसकी लगन परमात्मा में लग जाती है। गुरू से मिली आत्मिक जीवन की सूझ से वह (विकारों के हमलों की ओर से सदा) सचेत रहती हैं, उसके अंदर हृदय-कमल-पुष्प् खिल उठता है।

हे दास नानक! पूर्ण सौभाग्य से ही परमात्मा मिलता है।1।

हरि प्रभु हरि मनि भाइआ हरि नामि वधाई राम ॥ गुरि पूरै प्रभु पाइआ हरि हरि लिव लाई राम ॥ अगिआनु अंधेरा कटिआ जोति परगटिआई राम ॥ जन नानक नामु अधारु है हरि नामि समाई राम ॥२॥ {पन्ना 845}

पद्अर्थ: मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगा। नामि = नाम से। वधाई = उत्साह, चढ़दीकला। गुरि पूरै = पूरे गुरू से। लिव = लगन, सुरति। अगिआनु = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी। परगटिआई = प्रकट हो गई, रौशन हो पड़ी। अधारु = आसरा। नामि = नाम में। समाई = लीन हो गई।2।

अर्थ: हे भाई! (पूरे गुरू के द्वारा जिस मनुष्य के) मन में हरी-प्रभू प्यारा लगने लग जाता है, हरी-नाम की बरकति से (उसके अंदर) चढ़दीकला (उत्साह भरी आत्मिक अवस्था) बनी रहती है। पूरे गुरू के माध्यम से जिसे प्रभू मिल गया, वह हर वक्त परमात्मा में सुरति जोड़े रखता है। (उसके अंदर से) आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी (का) अंधकार मिट जाता है, (उसके अंदर) ईश्वरीय ज्योति जाग पड़ती है। हे दास नानक! (कह-) उस मनुष्य के लिए परमात्मा का नाम (जिंदगी का) आसरा बन जाता है, परमात्मा के नाम में उसकी लीनता बनी रहती है।2।

धन हरि प्रभि पिआरै रावीआ जां हरि प्रभ भाई राम ॥ अखी प्रेम कसाईआ जिउ बिलक मसाई राम ॥ गुरि पूरै हरि मेलिआ हरि रसि आघाई राम ॥ जन नानक नामि विगसिआ हरि हरि लिव लाई राम ॥३॥ {पन्ना 845}

पद्अर्थ: धन = जीव स्त्री। प्रभि = प्रभू ने। प्रभि पिआरै = प्यारे प्रभू ने। रावीआ = रावी, भोगी, अपने साथ मिला ली। जां = जब। प्रभ भाई = प्रभू को प्यारी लगी। अखी = आखें, (उसकी) आँखें। कसाईआ = कसी गई, आकर्षित हुई। बिलक = बिल्ली। मसाई = मूसा, चूहा। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। हरि रसि = हरी नाम के स्वाद से। आघाई = (माया की तृष्णा की ओर से) अघा गई, तृप्त हो गई। नामि = नाम की बरकति से। विगसिआ = खिल उठा। लिव लाई = सुरति जोड़ ली।3।

अर्थ: हे भाई! जब कोई (जीव-स्त्री) प्रभू का अच्छी लगी, (तब) प्यारे प्रभू ने (उस) जीव-स्त्री को अपने साथ मिला लिया, (उस जीव-स्त्री की) आँखें प्यार में ऐसे आकर्षित हुई, जैसे बिल्ली (की आँखे) चूहे की और (खिच जाती हैं)।

हे दास नानक! पूरे गुरू ने (जिस जीव-स्त्री को) परमात्मा के साथ मिला दिया, (वह जीव-स्त्री) हरी-नाम-रस के स्वाद की बरकति से (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो गई, हरी-नाम के कारण उसका हृदय-कमल खिल उठता है, वह सदा परमात्मा में सुरति जोड़े रखता है।3।

हम मूरख मुगध मिलाइआ हरि किरपा धारी राम ॥ धनु धंनु गुरू साबासि है जिनि हउमै मारी राम ॥ जिन्ह वडभागीआ वडभागु है हरि हरि उर धारी राम ॥ जन नानक नामु सलाहि तू नामे बलिहारी राम ॥४॥२॥४॥ {पन्ना 845}

पद्अर्थ: हम = हम जीव। मुगध = मूर्ख, बेसमझ। धनु धंनु = धन्य धन्य, सराहनीय। जिनि = जिस (गुरू) ने। उर = हृदय। सलाहि = सिफत करा कर। बलिहारी = सदके।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने (मेरे पर) मेहर की है, और मुझ मूर्ख को अंजान को (गुरू के द्वारा अपने चरणों में) जोड़ लिया है। (मेरा) गुरू सराहनीय है, गुरू को साबाश है, जिसने (मेरे अंदर से) अहंकार को दूर कर दिया है।

हे भाई! जिन बहुत भाग्यशालियों की किस्मत जागती है, वह परमात्मा को अपने हृदय में बसाती हैं। हे दास नानक! (तू भी) परमात्मा का नाम सराहा कर, नाम से सदके हुआ कर।4।2।4।

बिलावलु महला ५ छंत    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मंगल साजु भइआ प्रभु अपना गाइआ राम ॥ अबिनासी वरु सुणिआ मनि उपजिआ चाइआ राम ॥ मनि प्रीति लागै वडै भागै कब मिलीऐ पूरन पते ॥ सहजे समाईऐ गोविंदु पाईऐ देहु सखीए मोहि मते ॥ दिनु रैणि ठाढी करउ सेवा प्रभु कवन जुगती पाइआ ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा लैहु मोहि लड़ि लाइआ ॥१॥ {पन्ना 845}

पद्अर्थ: मंगल साजु = खुशी का सामान, खुशी का रंग ढंग। अबिनासी = नाश ना होने वाला। वरु = (प्रभू) पति। मनि = मन में। चाइआ = चाव। वडै भागै = बड़ी किस्मत से। पते = पति को। सहजे = आत्मिक अडोलता में। पाईअै = मिल जाता है। सखीऐ = हे सहेलिए! मोहि = मुझे। मते = मति, उपदेश। रैणि = रात। ठाढी = खड़ी। करउ = मैं करूँ। कवन जुगती = किस तरीके से? लैहु लाइआ = लगा लो। लड़ि = पल्ले से।1।

अर्थ: हे सहेलिए! प्यारे प्रभू की सिफत सालाह का गीत गाने से (मन में) खुशी का रंग-ढंग बन जाता है। उस कभी ना मरने वाले पति-प्रभू (का नाम) सुनने से मन में चाव पैदा हो जाता है।

(जब) बहुत किस्मत से (किसी जीव-स्त्री के) मन में परमात्मा-पति का प्यार पैदा होता है, (तब वह उतावली हो-हो पड़ती है उस) सारे गुणों के मालिक प्रभू-पति को कब मिला जा सकेगा। (उसके आगे यह उक्तर मिलता है- अगर) आत्मिक अडोलता में लीन रहें तो परमात्मा पति मिल जाता है। (वह भाग्यशाली जीव-स्त्री बार-बार पूछती है-) हे सहेलिए! मुझे बुद्धि दे कि किस तरीके से प्रभू-पति मिल सकता है (हे सहेलिए! बता) मैं दिन-रात खड़ी हुई तेरी सेवा करूँगी।

नानक (भी) विनती करता है- (हे प्रभू! मेरे ऊपर) मेहर कर, (मुझे अपने) पल्ले से लगाए रख।1।

भइआ समाहड़ा हरि रतनु विसाहा राम ॥ खोजी खोजि लधा हरि संतन पाहा राम ॥ मिले संत पिआरे दइआ धारे कथहि अकथ बीचारो ॥ इक चिति इक मनि धिआइ सुआमी लाइ प्रीति पिआरो ॥ कर जोड़ि प्रभ पहि करि बिनंती मिलै हरि जसु लाहा ॥ बिनवंति नानक दासु तेरा मेरा प्रभु अगम अथाहा ॥२॥ {पन्ना 845}

पद्अर्थ: समाहड़ा = (समाह = समाश्वास:) हौसला, धीरज। विसाहा = खरीदा। खोजि = खोज के, तलाश करके। पाहा = पास से। धारे = धार के। कथहि = कथते हैं, सुनाते हैं। अकथ बीचारो = अकथ प्रभू के गुणों का विचार। अकथ = अ+कथ, जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। इक चिति = एक चिक्त से, सुरति जोड़ के। इक मनि = एक मन से, मन लगा के। धिआइ = ध्यान धर। लाइ = लगा के। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। पहि = पास। मिलै = मिलता है। जसु = सिफत सालाह। लाहा = लाभं। अगम = अपहुँच। अथाहा = जिसकी गहारई ना पता चल सके।2।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का नाम किमती रत्न है, जो मनुष्य यह) हरी-नाम का व्यापर करता है (उसके अंदर) धीरज पैदा हो जाता है। पर, ये नाम-रत्न (कोई दुर्लभ) खोज करने वाला मनुष्य तलाश करके संत-जनों से ही हासिल करता है। जिस भाग्यशाली मनुष्य को प्यारे संत-जन मिल जाते हैं, (वही) मेहर करके (उसको) अकथ प्रभू की सिफत सालाह की बातें सुनाते हैं।

हे भाई! (संत-जनों की संगति में रह के) सुरति जोड़ के, मन लगा के प्रभू-चरणों से प्यार डाल के (परमात्मा का) नाम सिमरा कर। प्रभू के दर पर (दोनों) हाथ जोड़ के अरदास किया कर। (जो मनुष्य नित्य अरदास करता रहता है, उसको मानस जीवन की) कमाई (के तौर पर) परमात्मा की सिफत-सालाह (की दाति) मिलती है।

हे अपहुँच और अथाह प्रभू! नानक (तेरे दर पर) विनती करता है- मैं तेरा दास हूँ, तू मेरा मालिक है (मुझे अपनी सिफत-सालाह की दाति बख्श)।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh