श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 849 बिलावल की वार महला ४ {पन्ना 849} पउड़ी-वार भाव: 1. सारा जगत परमात्मा ने स्वयं पैदा किया है, और स्वयं ही हर जगह सब जीवों में मौजूद है। जो मनुष्य सर्व-व्यापक प्रभू का सिमरन करता है वह उसके नाम में लीन रह के आत्मिक आनंद पाता है। 2. वह सर्व-व्यापक परमात्मा अपने भक्तों से प्यार करता है, हर जगह हर वक्त भक्तों का साथी बना रहता है। भगत उसको अपने हृदय में बसा के आनंद लेते हैं। 3. पर उस परमात्मा का सिमरन गुरू के द्वारा ही किया जा सकता है। जो मनुष्य अपना दिल गुरू के आगे खोल के रखता है वह हर किस्म का आनंद प्राप्त करता है, उसकी माया की तृष्णा मिट जाती है। अच्छे भाग्यों से ही नाम-सिमरन की दाति मिलती है। 4. परमात्मा का नाम जपाने का गुण गुरू में परमात्मा ने स्वयं ही टिका रखा है। गुरू की शोभा दिन-ब-दिन बढ़ती है। निंदक गुरू की शोभा बर्दाश्त नहीं कर सकते। पर वे गुरू का कुछ बिगाड़ नहीं सकते। 5. इस लोक में परलोक में हर जगह परमात्मा स्वयं मौजूद है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर उसका नाम सिमरते हैं उनको लोक-परलोक में आदर मिलता है, सुख मिलता है। माया के मोह में फंसे जीवों को हर जगह फिटकार ही पड़ती है। 6. दुनिया के राजे बादशाह भी परमात्मा के पैदा किए हुए हैं, और परमात्मा के दर के ही मंगते हैं। इतनी समर्थता वाला प्रभू हमेशा गुरू का पक्ष करता है। बड़े-बड़े राजे-महाराजे भी परमात्मा ने गुरू के दर के नौकर बनाए हुए हैं। जो मनुष्य उस प्रभू का सिमरन करता है उसके अंदर से कामादिक सारे वैरी वह खत्म कर देता है। 7. वह मनुष्य बड़ा शाहूकार है जिसको परमात्मा ने अपना नाम-धन दिया है। सारा जगत उस भक्त के दर पर मंगता होता है। जिनके पल्ले नाम-धन है वे किसी के मुथाज नहीं रहते। 8. यह नाम-धन गुरू के पास से मिलता है। जो मनुष्य इस धन से वंचित रहते हैं वे हारे हुए जुआरियों की तरह अपना जीवन व्यर्थ गवा जाते हैं। 9. इस नाम-धन पर किसी का कोई जद्दी हक नहीं होता, किसी के भी पास इसकी मल्कियत का पट्टा नहीं होती। सिर्फ सतिगुरू ही ये हरी-धन परमात्मा से दिला सकता है। 10. परमात्मा ने गुरू से ही सारे संसार को अपने नाम की बख्शिश की है। गुरू ही नाम की दाति देने के समर्थ है। जो मनुष्य गुरू पर श्रद्धा रखते हैं, उसका जीवन सफल हो जाता है। आत्मिक खुराक गुरू के दर से ही मिलती है। 11. गुरू ने जिस मनुष्य के मन में से भटकना दूर की, उसके अंदर से सारे कामादिक वैरी खत्म हो गए, उसने हरी-नाम मन में बसा लिया, और, उसने साध-संगति में टिक के अपना जीवन सफल कर लिया। 12. गुरू का उपदेश सारे जगत में प्रभाव डालता है। गुरू ही परमात्मा के बेअंत गुणों की सूझ बख्शता है। परमात्मा का नाम, आत्मिक अडोलता, आत्मिक आनंद- ये गुरू के द्वारा ही मिलते हैं। 13. गुरू बड़ा ही उदार-चिक्त है। शरण पड़े निंदक के भी अवगुण बख्श के (माफ करके) उसको साध-संगति में जोड़ देता है। सो, जो भी मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह हर जगह आदर-मान प्राप्त करता है। मुख्य भाव: सब ताकतों के मालिक और सर्व-व्यापक परमात्मा के नाम की दाति गुरू से ही मिलती है। बड़े-बड़े दुनियादार सब गुरू के दर पर मंगते हैं। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, उसको नाम-धन मिलता है आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसके अंदर से सारे विकार दूर हो जाते हैं, सारे जगत में उसको आदर-मान हासिल होता है, उसकी जिंदगी सफल हो जाती है। वार की संरचना: यह वार चौथे गुरू, गुरू रामदास जी की उचारी हुई है, इस में 13 पौड़ियां हैं और 27 शलोक हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो दो शलोक हैं, सिर्फ पउड़ी नंबर 7 के साथ 3 शलोक हैं। शलोकों का वेरवा इस प्रकार है; गुरू रामदास जी----------------1 जिस सतिगुरू जी की उचारी हुई ये वार है, उनका अपना शलोक सिर्फ एक ही है, जो पहली ही पौड़ी के साथ दर्ज है, गुरू नानक देव जी के दोनों शलोक पउड़ी नं:11 के साथ दर्ज हैं। हरेक पउड़ी में पांच-पांच तुकें हैं, सिर्फ पउड़ी नंबर 10 में 6 तुके हैं; पर तुकों की लंबाई एक जैसी नहीं है, कई पौड़ियों में कई तुकें बहुत ही लंबी हैं; देखें पउड़ी नं:6,9 और 13। श्री गुरू ग्रंथ साहिब के आखिर में जो शलोक दर्ज हैं, उनका शीर्षक है "सलोक वारां ते वधीक"। यह 'शीर्षक" गुरू ग्रंथ साहिब जी की बीड़ तैयार करने के वक्त श्री गुरू अरजन देव जी लिखाया; इस शीर्षक से यह साफ जाहिर है कि 'वारें' के साथ सलोक दर्ज हैं, यह गुरू अरजन साहिब ने दर्ज किए। सो, बिलावल राग की यह 'वार' भी गुरू रामदास जी ने सिर्फ 'पउड़ियों' की शकल में ही उचारी थी, साथ के 27 सलोक बीड़ तैयार करने के वक् गुरू अरजन साहिब ने दर्ज किए। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक मः ४ ॥ हरि उतमु हरि प्रभु गाविआ करि नादु बिलावलु रागु ॥ उपदेसु गुरू सुणि मंनिआ धुरि मसतकि पूरा भागु ॥ सभ दिनसु रैणि गुण उचरै हरि हरि हरि उरि लिव लागु ॥ सभु तनु मनु हरिआ होइआ मनु खिड़िआ हरिआ बागु ॥ अगिआनु अंधेरा मिटि गइआ गुर चानणु गिआनु चरागु ॥ जनु नानकु जीवै देखि हरि इक निमख घड़ी मुखि लागु ॥१॥ {पन्ना 849} पद्अर्थ: नादु = गुरू का शबद। नादु बिलावलु रागु = गुरू का शबद-रूप् बिलावलु राग। करि = कर के, उचार के। सुणि = सुन के। धुरि = धर से, आदि से। मसतकि = माथे पर। रैणि = रात। उरि = हृदय में। देखि = देख के। निमख = आँख झपकने जितना समय। मुखि लागु = मुंह लगे, दर्शन दे।1। अर्थ: हे भाई! (पिछले किए कर्मों के मुताबिक) जिस मनुष्य के माथे पर धुर से ही पूर्ण भाग्य हैं, (जिसके हृदय में पूर्ण भले संस्कारों का लेख उघड़ता है) उसने गुरू का शबद रूपी बिलावल राग उचार के सबसे श्रेष्ठ परमात्मा के गुण गाए हैं, उसने सतिगुरू का उपदेश सुन के हृदय में बसाया है। वह मनुष्य सारा दिन और सारी रात (आठों पहर) परमात्मा के गुण गाता है (क्योंकि उसके) हृदय में परमात्मा की याद की लगन लगी रहती है। उसका सारा तन सारा मन हरा-भरा हो जाता है (आत्मिक जीवन के रस से भर जाता है), उसका मन (ऐसे) खिल जाता है (जैसे) हरा-भरा बाग़ होता है। गुरू की दी हुई आत्मिक जीवन की सूझ (उसके अंदर, मानो) दीया रौशन कर देती है (जिसकी बरकति से उसके अंदर से) आत्मिक जीवन की बे-समझी (का) अंधेरा मिट जाता है। हे हरी! (तेरा) दास नानक (ऐसे गुरमुख मनुष्य को) देख के आत्मिक जीवन हासिल करता है (और, चाहता है कि) चाहे एक पल भर ही उसके दर्शन हों।1। मः ३ ॥ बिलावलु तब ही कीजीऐ जब मुखि होवै नामु ॥ राग नाद सबदि सोहणे जा लागै सहजि धिआनु ॥ राग नाद छोडि हरि सेवीऐ ता दरगह पाईऐ मानु ॥ नानक गुरमुखि ब्रहमु बीचारीऐ चूकै मनि अभिमानु ॥२॥ {पन्ना 849} पद्अर्थ: बिलावलु = पूर्ण खिलाव (आनंद में), आत्मिक आनंद। कीजीअै = किया जा सकता है, पाया जा सकता है। मुखि = मुँह में। सबदि = गुरू के शबद द्वारा। जा = जब। सहजि = आत्मिक अडोलता में। धिआनु = सुरति। सेवीअै = सिमरन करें। पाईअै = पाते हैं। मनि = मन में (टिका हुआ)। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। बीचारीअै = मन में टिकाएं।2। अर्थ: हे भाई! पूर्ण आत्मिक आनंद तब ही पाया जा सकता है, जब परमात्मा का नाम (मनुष्य के) मुँह में टिकता है। हे भाई! राग और नाद (भी) गुरू के शबद द्वारा तब ही सुंदर लगते हैं जब (शबद की बरकति से मनुष्य की) सुरति आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है। हे भाई! (सांसारिक) राग-रंग (का रस) छोड़ के परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए, तब ही परमात्मा की हजूरी में आदर मिलता है। हे नानक! (कह-) अगर गुरू के सन्मुख हो के परमात्मा की याद मन में टिकाएं, तो मन में (ठहरा हुआ) अहंकार दूर हो जाता है।2। पउड़ी ॥ तू हरि प्रभु आपि अगमु है सभि तुधु उपाइआ ॥ तू आपे आपि वरतदा सभु जगतु सबाइआ ॥ तुधु आपे ताड़ी लाईऐ आपे गुण गाइआ ॥ हरि धिआवहु भगतहु दिनसु राति अंति लए छडाइआ ॥ जिनि सेविआ तिनि सुखु पाइआ हरि नामि समाइआ ॥१॥ {पन्ना 849} पद्अर्थ: हरि = हे हरी! प्रभु = (सब जीवों का) मालिक। अगंमु = अगम, अपहुँच, जीवों की पहुँच से परे। सभि = सारे (जीव)। तुधु = तू ही। वरतदा = मौजूद है। सभु = सारा। सबाइआ = सारा। ताड़ी = समाधि। भगतहु = हे संत जनो! अंति = आखिर में। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। सेविआ = सिमरा। तिनि = उस (मनुष्य) ने। नामि = नाम में।1। अर्थ: हे हरी! तू खुद ही (सब जीवों का) मालिक है, सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं, पर तू जीवों की पहुँच से परे है। (यह जो) सारा जगत (दिखाई दे रहा) है (इस में हर जगह) तू खुद ही खुद व्यापक है! (सारे जीवों में व्यापक हो के) समाधि भी तू खुद ही लगा रहा है, और (अपने) गुण भी तू खुद ही गा रहा है। हे संत जनो! दिन-रात (हर समय) परमात्मा का ध्यान धरा करो, वह परमात्मा ही अंत में बचाता है। जिस (भी) मनुष्य ने उसकी सेवा-भक्ति की, उसने ही सुख प्राप्त किया, (क्योंकि वह सदा) परमात्मा के नाम में लीन रहता है।1। सलोक मः ३ ॥ दूजै भाइ बिलावलु न होवई मनमुखि थाइ न पाइ ॥ पाखंडि भगति न होवई पारब्रहमु न पाइआ जाइ ॥ मनहठि करम कमावणे थाइ न कोई पाइ ॥ नानक गुरमुखि आपु बीचारीऐ विचहु आपु गवाइ ॥ आपे आपि पारब्रहमु है पारब्रहमु वसिआ मनि आइ ॥ जमणु मरणा कटिआ जोती जोति मिलाइ ॥१॥ {पन्ना 849} पद्अर्थ: भाउ = प्यार। भाइ = प्यार में। दूजै भाइ = (परमात्मा को भुला के) किसी और के प्यार में, माया के मोह में (टिके रहने से)। बिलावलु = आत्मिक आनंद। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। थाइ न पाइ = परवान नहीं होता। पाखंडि = पाखण्ड से। मन हठि = मन के हठ से। कोई = कोई मनुष्य। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। बीचारीअै = पड़तालना चाहिए। आपु = स्वै भाव। गवाइ = दूर करके। मनि = मन में। मिलाइ = जोड़ के। जोती = परमात्मा की जोति में। जोति = सुरति।1। अर्थ: हे भाई! माया के मोह में (टिके रहने से) आत्मिक आनंद नहीं मिलता, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (परमात्मा की निगाहों में) कबूल नहीं होता (क्योंकि) अंदर से और व बाहर से और रहने से परमात्मा की भगती नहीं हो सकती, इस तरह परमात्मा नहीं मिल सकता। (अंदर प्रभू से प्यार ना हो तो निरे) मन के हठ से किए कर्म से कोई मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) परवान नहीं होता। हे नानक! (कह- हे भाई!) अंदर से स्वै-भाव दूर करके गुरू की शरण पड़ के अपना आत्मिक जीवन पड़तालना (आत्म-चिंतन, आत्मावलोचन करना) चाहिए, (इस तरह वह) परमात्मा (जो हर जगह) स्वयं ही स्वयं है मन में आ बसता है। परमात्मा की ज्योति में (अपनी) सुरति जोड़ने से जनम-मरण के चक्कर खत्म हो जाते हैं।1। मः ३ ॥ बिलावलु करिहु तुम्ह पिआरिहो एकसु सिउ लिव लाइ ॥ जनम मरण दुखु कटीऐ सचे रहै समाइ ॥ सदा बिलावलु अनंदु है जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ सतसंगती बहि भाउ करि सदा हरि के गुण गाइ ॥ नानक से जन सोहणे जि गुरमुखि मेलि मिलाइ ॥२॥ {पन्ना 849} पद्अर्थ: ऐकसु सिउ = एक (परमात्मा) के साथ। लिव लाइ = (प्रेम की) लगन लगा ले। कटीअै = काटा जाता है। सचे = सदा स्थिर प्रभू में। रहै समाइ = लीन रहता है। जनम मरण दुखु = सारी उम्र का दुख। चलहि = चलते हैं, चलते रहें। सतिगुर भाइ = गुरू के अनुसार, गुरू की रजा में। सतसंगती बहि = सत्संगति में बैठ के। भाउ = प्यार। जि = जो (शब्द 'जे' का अर्थ है = अगर, 'जि' है = जो)। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के! मेलि = मिलाप में।2। अर्थ: हे प्यारे सज्जनो! एक (परमात्मा) से सुरति जोड़ के तुम आत्मिक आनंद भोगते रहो। (जो मनुष्य एक परमात्मा में सुरति जोड़ता है, उसका) सारी उम्र का दुख काटा जाता है, (क्योंकि) वह सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू में (सदा) लीन रहता है। अगर (मनुष्य) सत्संगति में बैठ के प्यार से सदा परमात्मा की सिफत-सालाह कर के गुरू के हुकम अनुसार जीवन व्यतीत करते रहें (तो उनके अंदर) सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। हे नानक! (कह- हे भाई!) जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहके प्रभू की याद में टिके रहते हैं, वह सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं।1। पउड़ी ॥ सभना जीआ विचि हरि आपि सो भगता का मितु हरि ॥ सभु कोई हरि कै वसि भगता कै अनंदु घरि ॥ हरि भगता का मेली सरबत सउ निसुल जन टंग धरि ॥ हरि सभना का है खसमु सो भगत जन चिति करि ॥ तुधु अपड़ि कोइ न सकै सभ झखि झखि पवै झड़ि ॥२॥ {पन्ना 849} पद्अर्थ: सो हरि = वह परमात्मा। सभु कोई = हरेक जीव। कै वसि = के वश में है। घरि = हृदय घर में। सरब = सर्वत्र, हर जगह। मेली = साथी। सउ = सो, (भाव) सोते हैं। निसुल = टांग पसार के, बेफिक्र हो के। टंग धरि = लात पर लात धर के, बेपरवाह हो के। चिति = चिक्त में। चिति करि = चिक्त में करते हैं, सिमरते हैं। सभ = सारी दुनिया। झखि झखि = खप खप के, दुखी हो हो के। पवै झड़ि = थक जाती है।2। अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा खुद सब जीवों में मौजूद है वह ही भक्तों का मित्र है। भक्तों के हृदय-घर में सदा आनंद बना रहता है (क्योंकि वह जानते हैं कि) हरेक जीव परमात्मा के वश में है (और वह परमात्मा उनका मित्र है)। परमात्मा हर जगह अपने भक्तों का साथी-मददगार है (इस वास्ते उसके) भक्त लात पर लात रख के बेफिक्र हो के सोते हैं (निष्चिंत जीवन व्यतीत करते हैं)। जो परमात्मा सब जीवों का पति है, उसको भक्त-जन (सदा अपने) हृदय में बसाए रखते हैं। हे प्रभू! सारी दुनिया खप-खप के थक जाती है, कोई तेरे गुणों का अंत नहीं पा सकता।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |