श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदहि ते ब्राहमणा जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ जिन कै हिरदै हरि वसै हउमै रोगु गवाइ ॥ गुण रवहि गुण संग्रहहि जोती जोति मिलाइ ॥ इसु जुग महि विरले ब्राहमण ब्रहमु बिंदहि चितु लाइ ॥ नानक जिन्ह कउ नदरि करे हरि सचा से नामि रहे लिव लाइ ॥१॥ {पन्ना 850}

पद्अर्थ: बिंदहि = पहचानते हैं, गहरी सांझ डालते हैं। ब्रहमु = परमात्मा। भाइ = प्यार में। चलहि = (जीवन सफर में) चलते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं। कै हिरदै = के हृदय में। गवाइ = दूर कर के। रवहि = याद करते हैं। संग्रहहि = इकट्ठे करते हैं। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति मिलाइ = (अपनी) सुरति जोड़ के। जुग महि = मनुष्य जीवन में। लाइ = लगा के। नदरि = मेहर की निगाह। सचा = सदा कायम रहने वाला। नामि = नाम में। लिव = सुरति।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखते हैं, सतिगुरू की रज़ा में जीवन व्यतीत करते हैं (अपने अंदर से) अहंकार (का) रोग दूर करके जिनके हृदय में सदा परमात्मा बसता है वह मनुष्य हैं (असल) ब्राहमण। (वह ब्राहमण) परमात्मा की ज्योति में (अपनी) सुरति जोड़ के परमात्मा के गुण याद करते रहते हैं और परमात्मा के गुण (अपने अंदर) इकट्ठे करते रहते हैं। पर, हे भाई! इस मनुष्य जीवन में (ऐसे) ब्राहमण दुर्लभ (विरले) ही होते हैं जो मन लगा के ब्रह्म के साथ गहरी सांझ डाले रखते हैं।

हे नानक! जिन (इस प्रकार के ब्राहमणों) पर सदा कायम रहने वाला परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है वह सदा परमात्मा के नाम में सुरति जोड़े रखता है।1।

मः ३ ॥ सतिगुर की सेव न कीतीआ सबदि न लगो भाउ ॥ हउमै रोगु कमावणा अति दीरघु बहु सुआउ ॥ मनहठि करम कमावणे फिरि फिरि जोनी पाइ ॥ गुरमुखि जनमु सफलु है जिस नो आपे लए मिलाइ ॥ नानक नदरी नदरि करे ता नाम धनु पलै पाइ ॥२॥ {पन्ना 850}

पद्अर्थ: सेव = सेवा। सबदि = गुरू के शबद में। भाउ = प्यार। दीरघु = दीर्घ, लंबा। बहु सुआउ = बहुत सारे स्वादों की ओर प्रेरने वाला। हठि = हठ से। पाइ = पड़ता है। सफलु = कामयाब। आपे = (प्रभू) खुद ही। नदरी = मेहर की निगाह करने वाला प्रभू। पलै पाइ = हासिल कर लेता है।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू की बताई हुई सेवा-कमाई नहीं की, जिसका प्यार (गुरू के) शबद से ना बना (अपने ही मन का मुरीद रह के उसने) अनेकों चस्कों की ओर प्रेरने वाला बहुत लंबा अहंकार का रोग ही कमाया; अपने मन के हठ के आसरे (और ही और) काम करते रहने के कारण वह मनुष्य बार-बार जूनियों (के चक्कर) में पड़ता है।

हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का जीवन कामयाब हो जाता है (पर, वही मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है) जिसको (परमात्मा) स्वयं ही (गुरू के चरणों में) जोड़ता है। हे नानक! जब मेहर की निगाह करने वाला प्रभू (किसी मनुष्य पर मेहर की) निगाह करता है तब वह परमात्मा का नाम-धन प्राप्त कर लेता है।2।

पउड़ी ॥ सभ वडिआईआ हरि नाम विचि हरि गुरमुखि धिआईऐ ॥ जि वसतु मंगीऐ साई पाईऐ जे नामि चितु लाईऐ ॥ गुहज गल जीअ की कीचै सतिगुरू पासि ता सरब सुखु पाईऐ ॥ गुरु पूरा हरि उपदेसु देइ सभ भुख लहि जाईऐ ॥ जिसु पूरबि होवै लिखिआ सो हरि गुण गाईऐ ॥३॥ {पन्ना 850}

पद्अर्थ: सभ वडिआईआ = सारे गुण। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर, गुरू के बताए हुए राह पर चल के। धिआईअै = सिमरा जा सकता है। जि वसतु = जो चीज़। नामि = नाम में। गुहज गल = अंदरूनी बात, दिल की घुंडी। जीअ की = दिल की। पूरबि = पहले से, आदि से। लिखिआ = (सिफत सालाह के संस्कारों का) लिखा हुआ लेख।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरने में सारे गुण हैं (अगर मनुष्य नाम सिमरे तो उसके अंदर सारे आत्मिक गुण पैदा हो जाते हैं, पर) परमात्मा (का नाम) गुरू की शरण पड़ने से ही सिमरा जा सकता है। हे भाई! अगर परमात्मा के नाम में चिक्त जोड़े रखें तो (उसके दर से) जो भी चीज मांगी जाती है वही मिल जाती है। हे भाई! जब दिल की घुण्डी सतिगुरू के आगे खोली जाती है तो हरेक किस्म का सुख मिल जाता है। पूरा सतिगुरू परमात्मा (के सिमरन) का उपदेश देता है (और सिमरन की बरकति से) सारी तृष्णा मिट जाती है।

पर, हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर आदि से (सिफत-सालाह के संस्कारों के) लेख लिखे होते हैं वह ही परमात्मा के गुण गाता है (बाकी सारी लुकाई तो माया के जाल में ही फसी रहती है)।3।

सलोक मः ३ ॥ सतिगुर ते खाली को नही मेरै प्रभि मेलि मिलाए ॥ सतिगुर का दरसनु सफलु है जेहा को इछे तेहा फलु पाए ॥ गुर का सबदु अम्रितु है सभ त्रिसना भुख गवाए ॥ हरि रसु पी संतोखु होआ सचु वसिआ मनि आए ॥ सचु धिआइ अमरा पदु पाइआ अनहद सबद वजाए ॥ सचो दह दिसि पसरिआ गुर कै सहजि सुभाए ॥ नानक जिन अंदरि सचु है से जन छपहि न किसै दे छपाए ॥१॥ {पन्ना 850}

पद्अर्थ: मेरै प्रभि = प्यारे प्रभू में। मेलि मिलाऐ = मेल के मिला देता है, पूरी तौर पर मिला देता है। सफलु = स+फल, फल देने वाला। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। त्रिसना = प्यास, लालच। पी = पी के। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। मनि = मन में। अमरापदु = वह दर्जा जो कभी नाश नहीं होता।

अनहद = एक रस, लगातार। अनहद सबद = एक रस बाजे। दहदिसि = दसों तरफ़। गुर कै = गुरू के द्वारा (मिली हुई)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्यार में।

अर्थ: हे भाई! गुरू के दर से (कभी) कोई ख़ाली (निराश) नहीं गया, (दर पर आए सभी को) प्यारे प्रभू में (गुरू) पूरी तौर पर मिला देता है। गुरू का दीदार भी फलदायक है, जैसी किसी की भावना होती है वैसा ही उसको फल मिल जाता है। हे भाई! गुरू का शबद आत्मिक जीवन देने वाला (मानो) जल है (जैसे जल पी के प्यास मिटा ली जाती है, वैसे ही शबद-जल की बरकति से मनुष्य के अंदर से माया की) प्यास (तृष्णा) भूख सब मिट जाती है। (गुरू के शबद से) परमात्मा का नाम-रस पी के (मनुष्य के अंदर) संतोष पैदा होता है, और सदा कायम रहने वाला प्रभू उसके मन में आ बसता है। हे भाई! जो गुरू के द्वारा अडोल अवस्था में प्यार अवस्था में पहुँचता है उसे दसों ही दिशाओं में सदा कायम रहने वाला परमात्मा व्यापक दिखता है। सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू को सिमर के उसको ऐसा आत्मिक दर्जा मिल जाता है जो कभी नाश नहीं होता, वह (अपने अंदर सिफत-सालाह के) एक-रस बाजे बजाता है (आत्मिक जीवन देने वाली अवस्था उसके अंदर सदा प्रबल रहती है)।

हे नानक! जिन मनुष्यों के हृदय में सदा-स्थिर प्रभू टिका रहता है वह मनुष्य किसी के छुपाए नहीं छुपते (कोई मनुष्य उनकी शोभा को मिटा नहीं सकता)।1।

मः ३ ॥ गुर सेवा ते हरि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥ मानस ते देवते भए सची भगति जिसु देइ ॥ हउमै मारि मिलाइअनु गुर कै सबदि सुचेइ ॥ नानक सहजे मिलि रहे नामु वडिआई देइ ॥२॥ {पन्ना 850}

पद्अर्थ: गुर सेवा ते = गुरू की बताई हुई कार करने से। जा कउ = जिस को। ते = से। सची भगति = सदा कायम रहने वाली भक्ति। देइ = देता है। मारि = मार के। मिलाइअनु = मिला लिए हैं उस (प्रभू) ने। कै सबदि = के शबद से। सुचेइ = सुच्चेय, पवित्र जीवन वाले। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में (टिक के)। वडिआई = गुण, महानता।3।

अर्थ: हे भाई! गुरू के बताए हुए काम करने से परमात्मा मिल जाता है (पर मिलता उसको है) जिस पर (परमात्मा स्वयं) मेहर करता है। (गुरू के द्वारा बताया हुआ काम करने से मनुष्य), मनुष्य से देवते बन जाते हैं। (पर, वही मनुष्य देवता बनता है) जिसको प्रभू सदा कायम रहने वाली भक्ति (की दाति) देता है। गुरू के शबद के द्वारा जो मनुष्य पवित्र जीवन वाले बन गए, परमात्मा ने (उनके अंदर से) अहंकार मिटा के (उनको अपने साथ) मिला लिया। हे नानक! (कह- हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा) नाम (जपने का) गुण बख्शता है, (वह मनुष्य) आत्मिक अडोलता में टिक के (प्रभू चरणों में) जुड़ा रहता है।2।

पउड़ी ॥ गुर सतिगुर विचि नावै की वडी वडिआई हरि करतै आपि वधाई ॥ सेवक सिख सभि वेखि वेखि जीवन्हि ओन्हा अंदरि हिरदै भाई ॥ निंदक दुसट वडिआई वेखि न सकनि ओन्हा पराइआ भला न सुखाई ॥ किआ होवै किस ही की झख मारी जा सचे सिउ बणि आई ॥ जि गल करते भावै सा नित नित चड़ै सवाई सभ झखि झखि मरै लोकाई ॥४॥ {पन्ना 850}

पद्अर्थ: नावै की वडिआई = नाम (जपने जपाने के) गुण। करतै = करतार ने। सभि = सारे। जीवनि् = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। भाई = अच्छी लगती है। वेखि न सकनि = देख के जर नहीं सकते, देख के बर्दाश्त नहीं कर सकते। न सुखाई = अच्छा नहीं लगता। सचे सिउ = सदा स्थिर प्रभू से। बणि आई = प्रीत बनी हुई है। किआ होवै = क्या होगा? कुछ बिगाड़ नहीं सकता। जि गल = जो बात। सा = वह बात। चढ़ै सवाई = बढ़ती है लोकाई = ख़लकत, दुनिया के लोग। खपि खपि मरै = झख मार मार के आत्मिक मौत सहेड़ते हैं।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू के अंदर (परमात्मा का) नाम (जपने-जपाने) का बड़ा गुण है, परमात्मा ने स्वयं (यह गुण गुरू में) बढ़ाया है। (सतिगुरू के) सारे सिख सेवक (गुरू के) इस गुण को देख के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं, उनको (गुरू का ये गुण अपने) हृदय में प्यारा लगता है। (गुरू की) निंदा करने वाले और बुरे लोग (सतिगुरू की) महिमा देख के बर्दाश्त नहीं कर पाते, उन्हें किसी और की भलाई अच्छी नहीं लगती।

पर जब गुरू का प्यार सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ बना हुआ है, तो किसी (निंदक दुष्ट) के झख मारने से गुरू का कुछ नहीं बिगड़ सकता। जो बात ईश्वर को अच्छी लगती है वह दिन-ब-दिन बढ़ती है (और निंदा करने वाली) सारी लुकाई खिझ-खिझ के आत्मिक मौत सहेड़ती रहती है।4।

सलोक मः ३ ॥ ध्रिगु एह आसा दूजे भाव की जो मोहि माइआ चितु लाए ॥ हरि सुखु पल्हरि तिआगिआ नामु विसारि दुखु पाए ॥ मनमुख अगिआनी अंधुले जनमि मरहि फिरि आवै जाए ॥ कारज सिधि न होवनी अंति गइआ पछुताए ॥ जिसु करमु होवै तिसु सतिगुरु मिलै सो हरि हरि नामु धिआए ॥ नामि रते जन सदा सुखु पाइन्हि जन नानक तिन बलि जाए ॥१॥ {पन्ना 850-851}

पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार योग्य। दूजे भाव की = (परमात्मा के बिना) किसी और से प्यार डालने वाली। मोहि = मोह में। पल्रि = पराली के बदले (पराली = फूस। तुच्छ वस्तु के बदले में)। विसारि = भुला के। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अगिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित। अंधुले = जिनको जीवन का सही रास्ता नहीं दिखता। जनमि मरहि = पैदा हो के मरते हैं। सिधि = कामयाबियाँ। न होनी = नहीं होतीं। अंति = आखिर को। करमु = बख्शिश। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। पाइनि! = डालते हैं। बलि जाऐ = सदके जाता है।1।

अर्थ: जो मनुष्य माया के मोह में (अपने) चिक्त को जोड़ता है उसकी ये माया से प्यार बढ़ाने वाली आस ( और आदत) (उसके लिए) धिक्कार ही कमाने वाली (साबित) होती है (क्योंकि वह मनुष्य) परमात्मा के नाम के आनंद को पराली के बदले में त्याग देता है, परमात्मा का नाम भुला के वह दुख (ही) पाता है।

अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक जीवन की समझ से वंचित रहते हैं, जीवन का सही रास्ता उन्हें नहीं दिखाई देता (इसलिए वे) जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। मनमुख बंदा बारंबार पैदा होता मरता रहता है। (प्रभू को बिसार के मनमुख ने और ही कई तरह के धंधे बुने होते हैं, उन) कामों में (उसको) सफलताएं नहीं मिलतीं, आखिर यहाँ से आहें भरता ही जाता है।

जिस मनुष्य पर प्रभू की मेहर होती है उसको गुरू मिलता है, वह सदा प्रभू का नाम सिमरता है। नाम में रंगे हुए मनुष्य सदा आत्मिक आनंद का सुख पाते हैं। हे दास नानक! (कह-) मैं उनसे सदके जाता हूँ।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh