श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ३ ॥ आसा मनसा जगि मोहणी जिनि मोहिआ संसारु ॥ सभु को जम के चीरे विचि है जेता सभु आकारु ॥ हुकमी ही जमु लगदा सो उबरै जिसु बखसै करतारु ॥ नानक गुर परसादी एहु मनु तां तरै जा छोडै अहंकारु ॥ आसा मनसा मारे निरासु होइ गुर सबदी वीचारु ॥२॥ {पन्ना 851}

पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना, (हर वक्त) माया की चितवनी। जगि = जगत में। जिनि = जिस ने। सभु को = हरेक जीव। जम = मौत, आत्मिक मौत। चीरा = पल्ला, हल्का, घेरा। जेता = जितना भी। आकारु = दिखता जगत। लगदा = जोर डालता। उबरे = बचता है। परसादि = कृपा से। जा = जब। निरासु = (माया की) आशाओं से निर्लिप।2।

अर्थ: हे भाई! (हर वक्त माया की) आशा (हर समय माया की ही) चितवनी जगत में (जीवों को) मोह रही है, इसने सारे जगत को अपने वश में किया हुआ है। जितना भी जगत दिखाई दे रहा है (इस आशा-मनसा के कारण जगत का) हरेक जीव आत्मिक मौत के पंजे में है। (पर) ये आत्मिक मौत (परमात्मा के) हुकम में ही व्यापती है (इस वास्ते इससे) वही बचता है जिस पर करतार मेहर करता है (और, परमात्मा कृपा करता है गुरू के माध्यम से)।

हे नानक! जब गुरू की कृपा से मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार दूर करता है, जब गुरू के शबद में सुरति जोड़ता है तब मनुष्य आसा-मनसा को खत्म कर लेता है (दुनिया की किरत-कार करता हुआ ही) आशाओं से ऊपर रहता है, तब मनुष्य का मन (आसा-मनसा के चक्र-व्यूह में से, बवंडर में से) पार लांघ जाता है।2।

पउड़ी ॥ जिथै जाईऐ जगत महि तिथै हरि साई ॥ अगै सभु आपे वरतदा हरि सचा निआई ॥ कूड़िआरा के मुह फिटकीअहि सचु भगति वडिआई ॥ सचु साहिबु सचा निआउ है सिरि निंदक छाई ॥ जन नानक सचु अराधिआ गुरमुखि सुखु पाई ॥५॥ {पन्ना 851}

पद्अर्थ: महि = में। तिथै = वहीं। साई = पति। अगै = परलोक में। सभु = हर जगह। आपे = आप ही। वरतदा = मौजूद है। सचा = सदा कायम रहने वाला। निआई = न्याय करने वाला। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी, माया ग्रसित जीव। फिटकीअहि = फिटकारे जाते हैं। सचु = सदा स्थिर रहने वाला हरि नाम। वडिआई = आदर। सिरि = सिर पर। छाई = राख। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।5।

अर्थ: हे भाई! संसार में जिस जगह भी जाएं, वहीं मालिक प्रभू हाजिर है। परलोक में भी हर जगह सच्चा न्याय करने वाला परमात्मा स्वयं ही काम-काज चला रहा है। (उसकी हजूरी में) माया-ग्रसित जीवों को धिक्कारें पड़ती हैं। (पर जिनके हृदय में) सदा-स्थिर हरी-नाम बसता है प्रभू की भक्ति टिकी हुई है, उनको सम्मान मिलता है।

हे भाई! मालिक-प्रभू सदा कायम रहने वाला है उसका इन्साफ भी अटल है। (उसके न्याय के अनुसार ही गुरमुखों की) निंदा करने वालों के सिर पर राख पड़ती है।

हे नानक! जिन मनुष्यों ने गुरू की शरण पड़ कर सदा-स्थिर प्रभू को सिमरा है उनको आत्मिक आनंद मिला है।5।

सलोक मः ३ ॥ पूरै भागि सतिगुरु पाईऐ जे हरि प्रभु बखस करेइ ॥ ओपावा सिरि ओपाउ है नाउ परापति होइ ॥ अंदरु सीतलु सांति है हिरदै सदा सुखु होइ ॥ अम्रितु खाणा पैन्हणा नानक नाइ वडिआई होइ ॥१॥ {पन्ना 851}

पद्अर्थ: पूरे भागि = पूरी किस्मत से। बखस = बख्शिश, मेहर। ओपावा सिर = सारे उपायों के सिर पर, सभी उपायों से बढ़िया। अंदरु = मन, हृदय। हिरदै = हृदय में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। नाइ = नाम से।1।

अर्थ: हे भाई! अगर परमात्मा मेहर करे तो (मनुष्य को) बड़ी किस्मत से गुरू मिल जाता है। (गुरू का मिलना ही) सारे उपायों से बढ़िया उपाय है (जिसके द्वारा परमात्मा का) नाम हासिल होता है। (नाम की बरकति से मनुष्य का) मन ठंडा शीतल हो जाता है (मनुष्य के) हृदय में सदा आनंद बना रहता है। हे नानक! (सतिगुरू के मिलने से जिस मनुष्य की) खुराक और पोशाक (भाव, जिंदगी का आसरा) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस बन जाता है उसको नाम के द्वारा (हर जगह) आदर मिलता है।1।

मः ३ ॥ ए मन गुर की सिख सुणि पाइहि गुणी निधानु ॥ सुखदाता तेरै मनि वसै हउमै जाइ अभिमानु ॥ नानक नदरी पाईऐ अम्रितु गुणी निधानु ॥२॥ {पन्ना 851}

पद्अर्थ: ऐ मन = हे मन! सिख = सिख, शिक्षा। पाइहि = तू पा लेगा। गुणी निधानु = गुणों का खजाना परमात्मा। तेरै मनि = तेरे मन में। वसै = बस जाएगा, बसता दिख जाएगा। जाइ = दूर हो जाएगा। नदरी = मेहर की निगाह से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला।1।

अर्थ: हे मन! गुरू की शिक्षा अपने अंदर बसा (इस तरह) तू गुणों के खजाने परमात्मा को ढूँढ लेगा। (सारे) सुख देने वाला परमात्मा तुझे तेरे अंदर बसता दिख पड़ेगा (तेरे अंदर से) अहंकार दूर हो जाएगा। हे नानक! आत्मिक जीवन देने वाला और सारे गुणों का खजाना परमात्मा (गुरू के द्वारा अपनी) मेहर की निगाह से (ही) मिलता है।2।

पउड़ी ॥ जितने पातिसाह साह राजे खान उमराव सिकदार हहि तितने सभि हरि के कीए ॥ जो किछु हरि करावै सु ओइ करहि सभि हरि के अरथीए ॥ सो ऐसा हरि सभना का प्रभु सतिगुर कै वलि है तिनि सभि वरन चारे खाणी सभ स्रिसटि गोले करि सतिगुर अगै कार कमावण कउ दीए ॥ हरि सेवे की ऐसी वडिआई देखहु हरि संतहु जिनि विचहु काइआ नगरी दुसमन दूत सभि मारि कढीए ॥ हरि हरि किरपालु होआ भगत जना उपरि हरि आपणी किरपा करि हरि आपि रखि लीए ॥६॥ {पन्ना 851}

पद्अर्थ: सिकदार = चौधरी। हहि = हैं। तितने सभि = वह सारे ही। कीऐ = पैदा किए हुए। ओइ = (शब्द 'ओह' का बहुवचन)। करहि = करते हैं। अरथीऐ = मंगते। प्रभु = मालिक। कै वलि = के पक्ष में। तिनि = उस (प्रभू) ने। चारे खाणी = चारों खाणियों के जीव। सभ = सारे। गोले = दास। करि = बना के। दीऐ = रख दिए हैं। संतहु = हे संत जनो! जिनि = जिस (हरी) ने। वडिआई = गुण। काया = शरीर। मारि = मार के। करि = कर के।6।

अर्थ: (हे भाई! जगत में) जितने भी शाह, बादशाह, राजे, ख़ान, अमीर और सरदार हैं, वह सारे परमात्मा के (ही) पैदा किए हुए हैं। जो कुछ परमात्मा (उनसे) करवाता है वही वह करते हैं, वह सारे परमात्मा के (दर पर ही) मांगते हैं।

हे भाई! ऐसी समर्था वाला सब जीवों का मालिक वह परमात्मा (सदा) सतिगुरू के पक्ष में रहता है। उस परमात्मा ने चारों वर्णों चारों खाणियों के सारे जीव सारी ही सृष्टि (के जीव) (गुरू के) सेवक बना के गुरू के दर पर सेवा करने के लिए खड़े किए हुए हैं।

हे संतजनो! देखो, परमात्मा की भक्ति करने का ये गुण है कि उस (परमात्मा) ने (भगती करने वाले अपने सेवक के) शरीर-नगर में से (कामादिक) सारे वैरी दुश्मन मार के (बाहर) निकाल दिए हैं। हे भाई! परमात्मा अपने भक्तों पर (सदा) दयावान होता है। परमात्मा मेहर करके (अपने भक्तों को कामादिक वैरियों से) स्वयं बचाता है।6।

सलोक मः ३ ॥ अंदरि कपटु सदा दुखु है मनमुख धिआनु न लागै ॥ दुख विचि कार कमावणी दुखु वरतै दुखु आगै ॥ करमी सतिगुरु भेटीऐ ता सचि नामि लिव लागै ॥ नानक सहजे सुखु होइ अंदरहु भ्रमु भउ भागै ॥१॥ {पन्ना 851}

पद्अर्थ: कपटु = खोट। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। धिआनु न लागै = सुरति नहीं जुड़ती। वरतै = व्याप्त है। आगै = आगे, परलोक में। करमी = (परमात्मा की) मेहर से। भेटीअै = मिलता है। ता = तब। सचि = सदा स्थिर में। सचि नामि = सदा-स्थिर हरी नाम में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। अंदरहु = मन में से। भ्रमु = भटकना। भउ = सहम।1।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के मन में खोट टिका रहता है (इस वास्ते उसको) सदा (आत्मिक) कलेश रहता है, उसकी सुरति (परमात्मा में) नहीं जुड़ती। उस मनुष्य की सारी किरत-कार दुख-कलेश में ही होती है (उसको हर वक्त) कलेश ही बना रहता है, परलोक में भी उसके वास्ते कलेश ही है।

हे नानक! (जब परमात्मा की) मेहर से (मनुष्य को) गुरू मिलता है तब सदा-स्थिर हरी-नाम में उसकी लगन लग जाती है, आत्मिक अडोलता में (टिकने के कारण उसको आत्मिक) आनंद मिला रहता है और उसके मन में से भटकना दूर हो जाती है सहम दूर हो जाता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh