श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि संसा मूलि न होवई चिंता विचहु जाइ ॥ जो किछु होइ सु सहजे होइ कहणा किछू न जाइ ॥ नानक तिन का आखिआ आपि सुणे जि लइअनु पंनै पाइ ॥१॥ {पन्ना 853}

पद्अर्थ: संसा = तौख़ला। मूलि न = बिल्कुल नहीं। सहजे = सहज ही, परमात्मा की रजा में। लइअनु = लिए हैं उसने। पंनै = पल्ले में। पंनै पाइ लइअनु = उसने अपने पल्ले डाल लिया है।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहते हैं, उनको (किसी किस्म का) तौखला बिल्कुल ही नहीं होता, उनके अंदर से चिंता दूर हो जाती है। (उनको ये निष्चय हो जाता है कि संसार में) जो कुछ हो रहा है वह परमात्मा की रजा में हो रहा है, उस पर कोई एतराज नहीं किया जा सकता। हे नानक! जिन मनुष्यों को परमात्मा अपने लड़ लगा लेता है उनकी आरजू (परमात्मा सदा) स्वयं सुनता है।1।

मः ३ ॥ कालु मारि मनसा मनहि समाणी अंतरि निरमलु नाउ ॥ अनदिनु जागै कदे न सोवै सहजे अम्रितु पिआउ ॥ मीठा बोले अम्रित बाणी अनदिनु हरि गुण गाउ ॥ निज घरि वासा सदा सोहदे नानक तिन मिलिआ सुखु पाउ ॥२॥ {पन्ना 853}

पद्अर्थ: कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। मारि = मार के। मनसा = मन का मायावी फुरना। मनहि = मन में ही। समाणी = लीन कर लेता है। अनदिनु = हर रोज। सहजे = आत्मिक अडोलता में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। पिआउ = खुराक। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली (गुरू की) बाणी के द्वारा। निज घरि = अपने घर में, प्रभू की याद में। सोहदे = शोभा देते हैं, सुंदर जीवन वाले होते हैं। पाउ = पाऊँ, मैं हासिल करता हूँ।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का पवित्र नाम बसता है वह आत्मिक मौत को समाप्त करके मन के मायावी फुरने को मन में ही दबा देता है। वह मनुष्य (माया के हमलों की ओर से) हर वक्त सचेत रहता है, कभी वह (गफ़लत की नींद में) नहीं सोता। आत्मिक अडोलता में टिक के परमातमा नाम-अमृत (उसकी) खुराक होता है। वह मनुष्य (सदा) मीठा बोलता है, (सतिगुरू की) आत्मिक जीवन देने वाली बाणी के द्वारा वह हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रहता है।

ऐसे मनुष्य सदा परमात्मा के चरणों में टिके रहते हैं, उनका जीवन सुंदर बन जाता है। हे नानक! (कह- हे भाई!) ऐसे मनुष्यों को मिल के मैं भी आत्मिक आनंद पाता हूँ।2।

पउड़ी ॥ हरि धनु रतन जवेहरी सो गुरि हरि धनु हरि पासहु देवाइआ ॥ जे किसै किहु दिसि आवै ता कोई किहु मंगि लए अकै कोई किहु देवाए एहु हरि धनु जोरि कीतै किसै नालि न जाइ वंडाइआ ॥ जिस नो सतिगुर नालि हरि सरधा लाए तिसु हरि धन की वंड हथि आवै जिस नो करतै धुरि लिखि पाइआ ॥ इसु हरि धन का कोई सरीकु नाही किसै का खतु नाही किसै कै सीव बंनै रोलु नाही जे को हरि धन की बखीली करे तिस का मुहु हरि चहु कुंडा विचि काला कराइआ ॥ हरि के दिते नालि किसै जोरु बखीली न चलई दिहु दिहु नित नित चड़ै सवाइआ ॥९॥ {पन्ना 853}

पद्अर्थ: जवेहरी = जवाहरात, हीरे। गुरि = गुरू ने। पासहु = पास से। किहु = कुछ। अकै = या, अथवा। जोरि कीतै = अगर जोर जबरदस्ती की जाए। सरधा = प्रतीत। हथि = हाथ में। हथि आवै = मिलती है। वंड = हिस्सा। धुरि = धुर से, आदि से, किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार। खतु = पट्टा, लिखत, मल्कियत का पट्टा। सीव बंनै = किनारे की बंध, हदबंदी, मेढ़। रोलु = झगड़ा, रौला। बखीली = चुगली, ईष्या। दिहु दिहु = हर रोज। चढ़ै सवाइआ = बढ़ता है।9।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम-धन हीरे-जवाहरात हैं। यह हरी-नाम-धन (जिसको) परमात्मा के पास से दिलवाया है गुरू ने (ही) दिलवाया है। अगर किसी मनुष्य को (गुरू के बिना किसी और के पास) कुछ और दिख जाए तो (उससे कोई) कुछ भी मांग ले, अथवा, कोई कुछ दिला दे। पर यह नाम-धन पक्का करके (भी) किसी के साथ बांटा नहीं जा सकता (ये तो परमात्मा की मेहर से गुरू के द्वारा ही मिलता है)। हे भाई! परमात्मा ने धुर से ही जिस मनुष्य के माथे पर लेख लिख दिए हैं, परमात्मा उस मनुष्य की गुरू में श्रद्धा बनाता है, और (गुरू के द्वारा) उस मनुष्य को नाम-धन का हिस्सा मिलता है।

हे भाई! ये नाम-धन (ऐसी जयदाद है कि) इसका कोई शरीक नहीं बन सकता (इसके ऊपर) कोई अपना हक नहीं बना सकता, किसी के पास इसकी मलकियत का पट्टा भी नहीं हो सकता। (जैसे जिमींदारों का ज़मीन की) हदबंदी का झगड़ा (हो सकता है,) इस हरी-नाम-धन का ऐसा कोई झगड़ा भी नहीं उठ सकता। (किसी गुरमुखि को देख के) अगर कोई मनुष्य इस नाम-धन की (खातिर) ईष्या करता है, उसको बल्कि हर तरफ से धिक्कारें ही पड़ती हैं।

(हे भाई! यह नाम-धन परमात्मा खुद ही गुरू के द्वारा देता हैं, और) अगर परमात्मा किसी को यह नाम-धन दे दे तो किसी और का ज़ोर नहीं चल सकता, किसी की ईष्या कुछ बिगाड़ नहीं सकती (यह एक ऐसी दाति है कि) यह हर रोज सदा बढ़ती ही जाती है।9।

सलोक मः ३ ॥ जगतु जलंदा रखि लै आपणी किरपा धारि ॥ जितु दुआरै उबरै तितै लैहु उबारि ॥ सतिगुरि सुखु वेखालिआ सचा सबदु बीचारि ॥ नानक अवरु न सुझई हरि बिनु बखसणहारु ॥१॥ {पन्ना 853}

पद्अर्थ: जलंदा = (विकारों में) जलता। रखि लै = बचा ले। धारि = धारण करके। जितु दुआरै = जिस दर से, जिस भी तरीके से। उबरै = बच सके। तितै = उसी ही तरह। सतिगुरि = गुरू ने। सुखु = आत्मिक आनंद। सचा सबदु = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी। बीचारि = विचार के, मन में टिका के। अवरु = कोई और।1।

अर्थ: हे प्रभू! (विकारों में) जल रहे संसार को अपनी मेहर से बचा लें, जिस भी तरीके से ये बच सकता है उसी तरह बचा ले।

हे नानक! सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी मन में बसा के (जिस मनुष्य को) सतिगुरू ने (सिमरन का) आत्मिक आनंद दिखा दिया, उसको यह समझ आ जाती है कि परमात्मा के बिना कोई और ये बख्शिश करने वाला नहीं है।1।

मः ३ ॥ हउमै माइआ मोहणी दूजै लगै जाइ ॥ ना इह मारी न मरै ना इह हटि विकाइ ॥ गुर कै सबदि परजालीऐ ता इह विचहु जाइ ॥ तनु मनु होवै उजला नामु वसै मनि आइ ॥ नानक माइआ का मारणु सबदु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥२॥ {पन्ना 853}

पद्अर्थ: हउमै = अहंकार में। हउमै माइआ = माया का अहंकार, माया की चाहत। दूजै = (प्रभू के बिना) और (के मोह) में। हटि = दुकान में। कै सबदि = के शबद से। परजालीअै = अच्छी तरह से जला दी जाए। उजला = पवित्र। मनि = मन में। मारणु = प्रभाव खत्म करने का तरीका।2।

अर्थ: हे भाई! माया का अहंकार (सारे संसार को) अपने वश में करने की समर्थता रखने (की मानसिकता) वाला है, (इसके असर तले जीव परमात्मा को बिसार के) और (के मोह) में फसता है। ये अहंकार ना (किसी और से) मारा जा सकता है, ना ही ये खुद मरता है, ना ही यह किसी दुकान पर बेचा जा सकता है। जब इसको गुरू के शबद द्वारा अच्छी तरह जलाया जाता है, तब ही यह (जीव के) अंदर से समाप्त होता है। (हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर से माया का अहंकार खत्म हो जाता है उसका) तन (उसका) मन पवित्र हो जाता है, उसके मन में परमात्मा का नाम आ बसता है।

हे नानक! गुरू का शबद ही माया के प्रभाव को (असर को) खत्म करने का एक मात्र) वसीला है, और, ये शबद गुरू की शरण पड़ने पर ही मिलता है।2।

पउड़ी ॥ सतिगुर की वडिआई सतिगुरि दिती धुरहु हुकमु बुझि नीसाणु ॥ पुती भातीई जावाई सकी अगहु पिछहु टोलि डिठा लाहिओनु सभना का अभिमानु ॥ जिथै को वेखै तिथै मेरा सतिगुरू हरि बखसिओसु सभु जहानु ॥ जि सतिगुर नो मिलि मंने सु हलति पलति सिझै जि वेमुखु होवै सु फिरै भरिसट थानु ॥ जन नानक कै वलि होआ मेरा सुआमी हरि सजण पुरखु सुजानु ॥ पउदी भिति देखि कै सभि आइ पए सतिगुर की पैरी लाहिओनु सभना किअहु मनहु गुमानु ॥१०॥ {पन्ना 853}

पद्अर्थ: वडिआई = इज्जत। सतिगुरि = सतिगुरू ने। धरहु = धुर से ही, हजूरी से। हुकमु = हुकम में, रजा। बुझि = समझ के। नीसाणु = निशान, परवाना, राहदारी। पुती = पुत्रों ने। भातीई = भतीजों ने। सकी = साक संबन्धियों नें। अगहु पिछहु = आगे पीछे से, अच्छी तरह। टोलि = टोल के, परख के। लाहिओनु = उतार दिया उसने। को = कोई मनुष्य। बखसिओसु = उसने बख्शा। जि = जो मनुष्य। मिलि = मिल के। मंने = पतीजता है। सु = वह मनुष्य। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। सिझै = कामयाब होता है। फिरै = भटकता फिरता है। थानु = हृदय स्थल। भरिआ = (विकारों से) गंदा। जन कै वलि = (अपने) सेवक के पक्ष में। सुजानु = समझदार, सबके दिल की जानने वाला। भिति = चोग, खुराक, आत्मिक भोजन। सभि आइ = सारे आए। लाहिओनु = उसने उतार दिया। किअहु मनहु = के मन से।10।

अर्थ: (जो) इज्जत गुरू (अमरदास जी) की (हुई, वह) गुरू (अंगद देव जी) ने परमात्मा की हजूरी से (मिला) हुकम समझ के परवाना समझ के (उनको) दी। पुत्रों ने, भतीजों ने, और साक-संबन्धियों ने अच्छी तरह परख के देख लिया था (गुरू ने) सबका गुमान दूर कर दिया।

हे भाई! परमात्मा ने (गुरू के माध्यम से) सारे संसार को (नाम की) बख्शिश की है; जहाँ भी कोई देखता है वहाँ ही प्यारा गुरू (नाम की दाति देने के लिए मौजूद) है। जो मनुष्य गुरू को मिल के पतीजता है वह इस लोक में और परलोक में कामयाब हो जाता है, पर जो मनुष्य गुरू की तरफ से मुँह मोड़ता है, वह भटकता फिरता है, उसका हृदय-स्थल (विकारों से) गंदा बना रहता है। हे नानक! (कह-) सब के दिल की जानने वाला सब का मित्र सबमें व्यापक प्रभू अपने सेवक के पक्ष में रहता है।

हे भाई! (गुरू के दर से) आत्मिक खुराक मिलती देख के सारे लोग गुरू के चरणों में आ लगे। गुरू ने सबके मन से अहंकार दूर कर दिया।10।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh