श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 854 सलोक मः १ ॥ कोई वाहे को लुणै को पाए खलिहानि ॥ नानक एव न जापई कोई खाइ निदानि ॥१॥ मः १ ॥ जिसु मनि वसिआ तरिआ सोइ ॥ नानक जो भावै सो होइ ॥२॥ {पन्ना 854} पद्अर्थ: वाहे = जोतता है। को = कोई (और)। लुणै = (फसल) काटता है। खलिहानि = खलिहान में (वह मैदान जहाँ पकने के बाद काट के फसल लाई जाती है और साफ करके दाना संभाला जाता है)। नानक = हे नानक! ऐव = इस तरह। न जापई = (परमात्मा की रजा की) समझ नहीं पड़ती। कोई = कोई (और)। निदानि = अंत को, आखिर में।1। मनि = मन में। तरिआ = (संसार समुंद्र के विकारों से) पार लांघ गया। सोइ = वह मनुष्य। जो भावै = जो कुछ (परमात्मा को) अच्छा लगता है।2। अर्थ: हे नानक! कोई मनुष्य हल चलाता है, कोई (और) मनुष्य (उस पकी हुई फसल को) काटता है, कोई (और) मनुष्य (उस कटी हुई फसल को) खलिहान में लाता है; पर आखिर में (उस अन्न को) खाता कोई और है। सो, इसी तरह (परमात्मा की रजा को) समझा नहीं जा सकता (कि कब क्या कुछ घटित होगा)।1। महला १- हे नानक! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा आ बसता है वह (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाता है (उसको समझ आ जाती है कि जगत में) वही कुछ होता है जो (परमात्मा को) अच्छा लगता है।2। पउड़ी ॥ पारब्रहमि दइआलि सागरु तारिआ ॥ गुरि पूरै मिहरवानि भरमु भउ मारिआ ॥ काम क्रोधु बिकरालु दूत सभि हारिआ ॥ अम्रित नामु निधानु कंठि उरि धारिआ ॥ नानक साधू संगि जनमु मरणु सवारिआ ॥११॥ {पन्ना 854} पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। दइआलि = दयालु ने। सागरु = संसार समुंद्र। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। भरमु = (मन की) भटकना । भउ = (मन का) सहम। बिकरालु = विकराल, भयानक, डरावना। दूत = वैरी। सभि = सारे। हारिआ = थक गए। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। निधानु = (सारे सुखों का) खजाना। कंठि = गले में। उरि = हृदय में। साधू संगि = गुरू की संगति में। जनमु मरणु = सारा जीवन (जन्म से मौत तक)।11। अर्थ: हे भाई! पूरे मेहरवान गुरू ने (जिस मनुष्य के मन की) भटकना और सहम समाप्त कर दिए, भयानक क्रोध और काम (आदि) सारे (उसके) वैरी (उस पर प्रभाव डालने से) हार गए। हे नानक! (उस मनुष्य ने) सारे सुखों का खजाना (परमात्मा का) आत्मिक जीवन देने वाला नाम (अपने) गले में (अपने) हृदय में (सदा के लिए) टिका लिया (और इस तरह) गुरू की संगति में (रह के उसने अपना) सारा जीवन संवार लिया। दयालु पारब्रहम ने उसको संसार-समुंद्र से पार लंघा लिया।11। सलोक मः ३ ॥ जिन्ही नामु विसारिआ कूड़े कहण कहंन्हि ॥ पंच चोर तिना घरु मुहन्हि हउमै अंदरि संन्हि ॥ साकत मुठे दुरमती हरि रसु न जाणंन्हि ॥ जिन्ही अम्रितु भरमि लुटाइआ बिखु सिउ रचहि रचंन्हि ॥ दुसटा सेती पिरहड़ी जन सिउ वादु करंन्हि ॥ नानक साकत नरक महि जमि बधे दुख सहंन्हि ॥ पइऐ किरति कमावदे जिव राखहि तिवै रहंन्हि ॥१॥ {पन्ना 854} पद्अर्थ: कूड़े कहण = नाशवंत पदार्थों की बातें। कहंनि् = कहनि्ह, कहते हैं। मुहनि् = (मुहनि्ह) ठग रहे हैं, लूट रहे हैं। संनि् = (सनि्ह) दीवार फाड़ के चोरी का उद्यम, सेंध। साकत = परमात्मा से टूटे हुए। मुठे = ठगे जा रहे। दुरमती = खोटी मति वाले। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। भरमि = (मन की) भटकना में। बिखु = जहर। रचहि रचंनि् = सदा मस्त रहते हैं। सेती = साथ। पिरहड़ी = प्यार। जन = भगत, सेवक। वादु = झगड़ा। जमि = जम से। पइअै किरति = पिछले इकट्ठे किए हुए कर्मों के अनुसार। राखहि = हे प्रभू तू रखता है।1। अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों ने (परमात्मा का) नाम भुला दिया, वह सदा नाशवंत पदार्थों की ही बातें करते रहते हैं। (कामादिक) पाँचों चोर उनका (हृदय-) घर लूटते रहते हैं, उनके अंदर अहंकार (की) सेंध लगी रहती है। वह परमात्मा से टूटे हुए खोटी मति वाले मनुष्य (इन विकारों के हाथों ही) लूटे जाते हैं, प्रभू के नाम का स्वाद वे नहीं जानते-पहचानते। हे भाई! जिन मनुष्यों ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस (मन की) भटकना में (ही) हुटा दिया, वे (आत्मिक जीवन का नाश करने वाली माया) जहर से ही प्यार डाले रखते हैं, बुरे मनुष्यों से उनका प्यार होता है, परमात्मा के सेवकों के साथ वे झगड़ते रहते हैं। हे नानक! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य आत्मिक मौत (के बंधनों) में बंधे हुए मनुष्य (मानो) नरकों में पड़े रहते हैं (सदा) दुख ही सहते रहते हैं। (पर, हे प्रभू! जीवों के भी क्या वश?) जैसे तू (इनको) रखता है वैसे ही रहते हैं, और, पूर्बले किए कर्मों के अनुसार (अब भी वैसे ही) कर्म किए जा रहे हैं।1। मः ३ ॥ जिन्ही सतिगुरु सेविआ ताणु निताणे तिसु ॥ सासि गिरासि सदा मनि वसै जमु जोहि न सकै तिसु ॥ हिरदै हरि हरि नाम रसु कवला सेवकि तिसु ॥ हरि दासा का दासु होइ परम पदारथु तिसु ॥ नानक मनि तनि जिसु प्रभु वसै हउ सद कुरबाणै तिसु ॥ जिन्ह कउ पूरबि लिखिआ रसु संत जना सिउ तिसु ॥२॥ {पन्ना 854} पद्अर्थ: सतिगुरु सेविआ = गुरू की बताई हुई कार की। ताणु = (आत्मिक) बल। सासि = (हरेक) सांस से। गिरासि = (हरेक) ग्रास से। मनि = मन में। जोहि न सकै = देख भी नहीं सकता, नजदीक नहीं फटकता। हिरदै = हृदय में। रसु = स्वाद। कवला = लक्ष्मी, माया। सेवकि = दासी। परम पदारथु = सबसे ऊँचा (नाम) पदार्थ। तनि = तन में, हृदय में। हउ = मैं। सद = सदा। पूरबि लिखिआ = पूर्बले किए कर्मों के अनुसार लिखे हुए लेख। रस = प्रेम, आनंद। सिउ = साथ।2। अर्थ: हे भाई! जो जो दुर्बल (शक्तिहीन) मनुष्य (भी) गुरू की बताई हुई (सिमरन की) कार करता है, उसको (आत्मिक) बल मिल जाता है। हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ हर वक्त (परमात्मा उसके) मन में आ बसता है, आत्मिक मौत उसके जनदीक नहीं फटकती। उसको अपने हृदय में परमात्मा के नाम का स्वाद आता रहता है, माया उसकी दासी बन जाती है (उसके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती)। वह मनुष्य प्रभू के सेवकों का सेवक बना रहता है, उसको सबसे श्रेष्ठ पदार्थ (हरी-नाम) प्राप्त हो जाता है। हे नानक! (कह-) मैं उस मनुष्य से सदके जाता हूँ जिसके मन में जिसके हृदय में परमात्मा (का नाम) टिका रहता है। पर, हे भाई! उस-उस मनुष्य का प्यार संत जनों के साथ बनता है जिस-जिस के भाग्यों में पिछले किए कर्मों के अनुसार (सिमरन के) लेख लिखे होते हैं।2। पउड़ी ॥ जो बोले पूरा सतिगुरू सो परमेसरि सुणिआ ॥ सोई वरतिआ जगत महि घटि घटि मुखि भणिआ ॥ बहुतु वडिआईआ साहिबै नह जाही गणीआ ॥ सचु सहजु अनदु सतिगुरू पासि सची गुर मणीआ ॥ नानक संत सवारे पारब्रहमि सचे जिउ बणिआ ॥१२॥ {पन्ना 854} पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। सुणिआ = ध्यान दिया। सोई = वही वचन। घटि घटि = हरेक हृदय में। मुखि = मुंह से। भणिआ = उचारा। साहिबै = मालिक की। सचु = सदा कायम रहने वाला हरी नाम। सहजु = आत्मिक अडोलता। सची = सदा कायम रहने वाली। मणीआ = मणी, रत्न, उपदेश। सचे सिउ = सदा स्थिर प्रभू जैसे।12। अर्थ: हे भाई! पूरा गुरू जो (सिफत सालाह का) बचन बोलता है, परमात्मा उसकी ओर ध्यान देता है। गुरू के वह वचन सारे संसार पर प्रभाव डालते हैं, हरेक हृदय में (प्रभाव डालते हैं, हरेक मनुष्य अपने) मुँह से उचारता है। (हे भाई! गुरू बताता है कि) मालिक प्रभू में बेअंत गुण हैं जो गिने नहीं जा सकते। हे भाई! प्रभू का सदा-स्थिर नाम, आत्मिक अडोलता, आत्मिक आनंद (ये) गुरू के पास (ही हैं, गुरू से ही ये दातें मिलती हैं)। गुरू का उपदेश सदा कायम रहने वाला रत्न है। हे नानक! परमात्मा अपने सेवकों के जीवन स्वयं सुंदर बनाता है, संत जन सदा कामय रहने वाले परमात्मा जैसे बन जाते हैं।12। सलोक मः ३ ॥ अपणा आपु न पछाणई हरि प्रभु जाता दूरि ॥ गुर की सेवा विसरी किउ मनु रहै हजूरि ॥ मनमुखि जनमु गवाइआ झूठै लालचि कूरि ॥ नानक बखसि मिलाइअनु सचै सबदि हदूरि ॥१॥ {पन्ना 854} पद्अर्थ: आपणा आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। जाता = समझा। विसरी = भूल गई। किउ रहै = रह सकता है? नहीं रह सकता। हजूरि = (परमात्मा की) हजूरी में। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने। लालचि = लालच में। कूरि = झूठ में, माया के मोह में। बखसि = बख्शिश करके। मिलाइअनु = मिला लिए हैं उस परमात्मा ने। सचे सबदि = सिफत सालाह के शबद से। हदूरि = (अपनी) हजूरी में।1। अर्थ: (हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य) अपने आत्मिक जीवन को (कभी) परखता नहीं, वह परमात्मा को (कहीं) दूर बसता समझता है, उसको गुरू द्वारा बताए हुए काम (सदा) भूले रहते हैं, (इस वास्ते उसका) मन (परमात्मा की) हजूरी में (कभी) नहीं टिकता। हे नानक! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने झूठे लालच में (लग के) माया के मोह में (फस के ही अपना) जीवन गवा लिया होता है। जो मनुष्य सिफत-सालाह वाले गुरू शबद के द्वारा (परमात्मा की) हजूरी में टिके रहते हैं, उनको परमात्मा ने मेहर करके (अपने चरणों में) मिला लिया होता है।1। मः ३ ॥ हरि प्रभु सचा सोहिला गुरमुखि नामु गोविंदु ॥ अनदिनु नामु सलाहणा हरि जपिआ मनि आनंदु ॥ वडभागी हरि पाइआ पूरनु परमानंदु ॥ जन नानक नामु सलाहिआ बहुड़ि न मनि तनि भंगु ॥२॥ {पन्ना 854} पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। सोहिला = सिफत सालाह के गीत। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। अनदिनु = हर वक्त, हर रोज। मनि = मन में। वडभागी = बड़े भाग्यों वाले ने। परमानंदु = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभू। बहुड़ि = दोबारा फिर। तनि = तन में। भंगु = तोट, प्रभू से बिछोड़ा, भंग होना।2। अर्थ: हे भाई! हरी प्रभू गोविंद सदा कायम रहने वाला है, (उसकी) सिफत-सालाह का गीत (उसका) नाम गुरू की शरण पड़ने से (मिलता है)। (जिस मनुष्य को हरी-नाम मिलता है, वह) हर वक्त ही नाम सिमरता रहता है, और परमात्मा का नाम सिमरते हुए (उसके) मन में आत्मिक आनंद बना रहता है। पर, हे भाई! परम-आनंद का मालिक पूर्ण प्रभू परमात्मा बहुत भाग्यों से ही मिलता है। हे नानक! (कह- जिन) दासों ने (परमात्मा का) नाम सिमरा, उनके मन में उनके तन में फिर कभी (परमातमा से) दूरी पैदा नहीं होती।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |