श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ कोई निंदकु होवै सतिगुरू का फिरि सरणि गुर आवै ॥ पिछले गुनह सतिगुरु बखसि लए सतसंगति नालि रलावै ॥ जिउ मीहि वुठै गलीआ नालिआ टोभिआ का जलु जाइ पवै विचि सुरसरी सुरसरी मिलत पवित्रु पावनु होइ जावै ॥ एह वडिआई सतिगुर निरवैर विचि जितु मिलिऐ तिसना भुख उतरै हरि सांति तड़ आवै ॥ नानक इहु अचरजु देखहु मेरे हरि सचे साह का जि सतिगुरू नो मंनै सु सभनां भावै ॥१३॥१॥ सुधु ॥ {पन्ना 855}

पद्अर्थ: गुनह = गुनाह, अवगुण। मीहि वुठै = (पूर्व पूरन कारदंतक locative absolute) बरसात हुई। सुरसरी = गंगा। पावनु = पवित्र। जितु मिलिअै = जिसके मिलने से, अगर वह मिल जाए। हरि सांति = परमात्मा (के मिलाप) की ठंड। सचे साह का = सदा कायम रहने वाले शाह का। मंनै = श्रद्धा लाए। भावै = अच्छा लगता है।13।

अर्थ: (अगर) कोई मनुष्य (पहले) गुरू की निंदा करने वाला हो (पर) फिर गुरू की शरण में आ जाए, तो सतिगुरू (उसके) पिछले अवगुण बख्श लेता है और (उसको) साध-संगति में मिला लेता है।

हे भाई! जैसे बरसात होने से गली-नाली-टोभों का पानी (जब) गंगा में जा पड़ता है (और) गंगा में मिलते ही (वह पानी) पूरी तौर से पवित्र हो जाता है, (वैसे ही) निरवैर सतिगुरू में (भी) ये गुण हैं कि उस (गुरू) को मिलने से (मनुष्य को माया की) प्यास (माया की) भूख दूर हो जाती है (और, उसके अंदर) परमात्मा (के मिलाप) की ठंड तुरंत पड़ जाती है।

हे नानक! (कह- हे भाई!) सदा कायम रहने वाले शाह परमात्मा का ये आश्चर्यजनक तमाशा देखो कि जो मनुष्य गुरू पर श्रद्धा रखता है वह मनुष्य सभी को प्यारा लगने लग जाता है।13।1। सुधु।

बिलावलु बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ की    ੴ सति नामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥ ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे ॥ सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवईहै रे ॥१॥ रहाउ ॥ बारे बूढे तरुने भईआ सभहू जमु लै जईहै रे ॥ मानसु बपुरा मूसा कीनो मीचु बिलईआ खईहै रे ॥१॥ धनवंता अरु निरधन मनई ता की कछू न कानी रे ॥ राजा परजा सम करि मारै ऐसो कालु बडानी रे ॥२॥ हरि के सेवक जो हरि भाए तिन्ह की कथा निरारी रे ॥ आवहि न जाहि न कबहू मरते पारब्रहम संगारी रे ॥३॥ पुत्र कलत्र लछिमी माइआ इहै तजहु जीअ जानी रे ॥ कहत कबीरु सुनहु रे संतहु मिलिहै सारिगपानी रे ॥४॥१॥ {पन्ना 855}

पद्अर्थ: पेखना = देखने में आ रहा है। रहनु पई है = रहना पड़ेगा, रह सकेगा। रे = हे भाई! सूधे = सीधे। रेगि = राह पर। नतर = नहीं तो। कुधका = कु धक्का, बहुत ज्यादती। दिवई है = मिलेगा।1। रहाउ।

बारे = बालक। तरुने = जवान। भईआ = हे भाई! सभ हू = सभी को ही। लै जई है = ले जाएगा। बपुरा = बेचारा। मूसा = चूहा। मीचु = मौत। बिलईआ = बिल्ला।1।

मनई = मनुष्य (पूर्व देश की बोली)। कानी = मुथाजी, लिहाज। सम = बराबर। बडानी = बड़ा, बली।2।

भाऐ = प्यारे लगते हैं। कथा = बात। निरारी = अलग, निराली। संगारी = संगी, साथी।3।

कलत्र = वधू। इहै = यह ही, इनका मोह ही। तजहु = छोड़ दो। जीअ रे = हे जिंदे! जीअ जानी रे = हे जानी जीअ ! हे प्यारी जिंदे! सारिगपान = (सारिग = विष्णु का धनुष। पानी = पाणि, हाथ) जिसके हाथ में सारिग धनुष है जो सब का नाश करने वाला है, परमात्मा।4।

अर्थ: हे जिंदे! ये जगत ऐसा देखने में आ रहा है, कि यहां पर कोई भी जीव हमेशा नहीं रहेगा। सो, तू सीधे राह चलना, नहीं तो (तेरे साथ) बहुत ज्यादती होने का डर है (भाव, इस भुलेखे में कि यहां सदा बैठे रहना है, कुराह पर पड़ने का बहुत बड़ा खतरा होता है)।1।

हे जिंदे! बालक हो, बुढा हो, चाहे जवान हो, मौत सबको ही यहां से ले जाती है। मनुष्य बेचारा तो, मानो, चूहा बनाया गया है जिसको मौत रूप बिल्ला खा जाता है।2।

हे जिंदे! मनुष्य धनवान हो चाहे कंगाल, मौत को किसी का लिहाज नहीं है। मौत राजे और प्रजा में भेद नहीं करती (एक समान मार लेती है), ये मौत है ही इतनी बलवान।3।

पर जो लोग प्रभू की भक्ति करते हैं और प्रभू को प्यारे लगते हैं, उनकी बात (सारे जहान से) निराली है। वे ना पैदा होते है ना मरते हैं, क्योंकि, हे जिंदे! वे परमात्मा का सदा अपना संगी-साथी जानते हैं।

सो, हे प्यारी जिंद! पुत्र, पत्नी, धन पदार्थ- इनका मोह छोड़ दे। कबीर कहता है-हे संतजनो! मोह त्यागने से परमात्मा मिल जाता है (और मौत का डर समाप्त हो जाता है)।4।1।

शबद का भाव: मौत हरेक जीव को यहाँ से ले जाती है। सदा किसी ने भी यहां बैठे नहीं रहना। जीवन के ठीक राह पर चलो, प्रभू का सिमरन करो, मौत का डर समाप्त हो जाएगा।

बिलावलु ॥ बिदिआ न परउ बादु नही जानउ ॥ हरि गुन कथत सुनत बउरानो ॥१॥ मेरे बाबा मै बउरा सभ खलक सैआनी मै बउरा ॥ मै बिगरिओ बिगरै मति अउरा ॥१॥ रहाउ ॥ आपि न बउरा राम कीओ बउरा ॥ सतिगुरु जारि गइओ भ्रमु मोरा ॥२॥ मै बिगरे अपनी मति खोई ॥ मेरे भरमि भूलउ मति कोई ॥३॥ सो बउरा जो आपु न पछानै ॥ आपु पछानै त एकै जानै ॥४॥ अबहि न माता सु कबहु न माता ॥ कहि कबीर रामै रंगि राता ॥५॥२॥ {पन्ना 855}

पद्अर्थ: न परउ = न पढ़ूँ, मैं नहीं पढ़ता। बादु = बहस, झगड़ा। जानउ = जानूं, मैं जानता। बउरानो = पागल सा।1।

सैआनी = समझदार। बिगरिओ = बिगड़ गया हूँ। मति = शायद कहीं (ऐसा ना हो)। अउरा = कोई और।1। रहाउ।

जारि गइओ = जला गया है। भ्रमु = भ्रम, भुलेखा।2।

मति = बुद्धि। खोई = गवा ली है। मति भूलउ = कोई भूले ना ।3।

(नोट: शब्द 'भूलउ' व्याकरण के अनुसार 'हुकमी भविष्यत, अॅन पुरख, एक वचन' है)।3।

आपु = अपने आप को, अपने असल को। ऐकै = एक प्रभू को ही ।4।

अबहि = अब ही, इस जनम में ही माता = मस्त। रामै रंगि = राम के ही रंग में। राता = रंगा हुआ।5।

अर्थ: (बहसों की खातिर) मैं (तुम्हारी तर्क भरी) विद्या नहीं पढ़ता, ना ही मैं (धार्मिक) बहसें करनी जानता हूँ (भाव, आत्मिक जीवन के लिए मैं किसी विद्वता भरी धार्मिक-चर्चा की आवश्यक्ता नहीं समझता)। मैं तो प्रभू की सिफत-सालह करने-सुनने में मस्त रहता हूँ।1।

हे प्यारे सज्जन! (लोगों के लिए तो) मैं पागल हूँ। लोग समझदार हैं मैं बवरा हूँ। (लोगों के विचार से) मैं गलत रास्ते पड़ गया हूँ (क्योंकि मैं अपने गुरू के राह पर चल कर प्रभू का भजन करता हूँ), (पर लोग अपना ध्यान रखें, इस) गलत राह पर कोई और ना चले।1। रहाउ।

मैं अपने आप (इस प्रकार) बावरा नहीं बना, यह तो मुझे मेरे प्रभू ने (अपनी भक्ति में जोड़ के) पागल कर दिया है, और मेरे गुरू ने मेरा भ्रम-वहम सब जला डाले हैं।2।

(यदि) कुमार्ग पर पड़े हुए ने अपनी बुद्धि गवा ली है (तो भला लोगों को क्यों मेरा इतना फिक्र है?) तो कोई और मेरे वाले इस भुलेखे में बेशक ना पड़े।3।

(पर लोगों को ये भुलेखा है कि प्रभू की भक्ति करने वाला आदमी पागल होता है। जबकि दरअसल) पागल वह सख्श है जो अपनी अस्लियत को नहीं पहचानता। जो अपने आप को पहचानता है वह हर जगह एक परमात्मा को बसता जानता है।4।

कबीर कहता है- परमात्मा के प्यार में रंग के जो मनुष्य इस जीवन में दीवाना नहीं बनता, उसने (फिर) कभी भी नहीं बनना (और वह जीवन व्यर्थ गवा के जाएगा)।5।2।

शबद का भाव: आत्मिक जीवन के लिए किसी चोंच-चर्चा की आवश्यक्ता नहीं होतीं असल जरूरत ये है कि मनुष्य अपने असल को पहचान के सिर्फ परमात्मा की भक्ति में मस्त रहे।

बिलावलु ॥ ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा ॥ अजहु बिकार न छोडई पापी मनु मंदा ॥१॥ किउ छूटउ कैसे तरउ भवजल निधि भारी ॥ राखु राखु मेरे बीठुला जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥ रहाउ ॥ बिखै बिखै की बासना तजीअ नह जाई ॥ अनिक जतन करि राखीऐ फिरि फिरि लपटाई ॥२॥ जरा जीवन जोबनु गइआ किछु कीआ न नीका ॥ इहु जीअरा निरमोलको कउडी लगि मीका ॥३॥ कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥ तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी ॥४॥३॥ {पन्ना 855-856}

पद्अर्थ: ग्रिह = घर, गृहस्त। तजि = त्याग के। बनखंड = जंगलों में। कंदा = गाजर आदि धरती में उगने वाली चीजें। अजहु = अभी भी, फिर भी।1।

किउ छूटउ = मैं कैसे (इन विकारों से) बच सकता हूं? भव = संसार। जल निधि = समंद्र। बीठुला = हे बीठल! हे प्रभू! (संस्कृत: विष्ठल = one that is far away वह जो माया के प्रभाव से परे है। वि = परे है। सथल = टिका हुआ। वि = सथल, विशठल, बीठल = जो माया से दूर परे है)।1। रहाउ।

नोट: ये शब्द सिर्फ नामदेव जी ने ही नहीं बरता, कबीर जी भी प्रयोग करते हैं और सतिगुरू जी ने भी कई जगह इस्तेमाल किया है। इस आधार पर नामदेव जी को बीठुल की किसी मूर्ति का पुजारी समझना भूल है।

बिखै बिखै की = कई किस्म के विषौ विकारों की। बासना = वासना, कसक, चस्का। लपटाई = चिपकता है।2।

जरा = बुढ़ापा। जीवन जोबनु = जिंदगी का जोबन, जवानी की उम्र। नीका = भला काम। जीअरा = ये सुंदर सी जिंद। मीका = बराबर।3।

माधवा = हे प्रभू! समसरि = बराबर। मोहि समसरि = मेरे जैसा।4।

अर्थ: अगर गृहस्त त्याग के जंगलों में चले जाएं, और गाजर-मूली खा के गुजारा करें, तो भी ये पापी मन विकार नहीं त्यागता।1।

हे मेरे प्रभू! मैं तेरा दास तेरी शरण आया हूँ, मुझे (इन विकारों से) बचा। मैं कैसे इनसे खलासी कराऊँ? यह संसार बहुत बड़ा समुंद्र है, मैं कैसे इससे पार लांघू?।1। रहाउ।

हे मेरे बीठल! मुझसे इन अनेक किस्मों के विषौ विकारों के चस्के छोड़े नहीं जा सकते। कई यतन करके इस मन को रोकने की कोशिश करते हैं, पर ये बार-बार विषियों की वासनाओं को ही जा चिपकता है।2।

बुढ़ापा आ गया है, जवानी की उम्र गुजर गई है, पर मैंने अब तक कोई अच्छा काम नहीं किया। मेरे ये प्राण अमूल्य थे, पर मैंने इनको कौड़ियों के बराबर का कर डाला है।3।

हे कबीर! (अपने प्रभू के आगे इस प्रकार) बिनती कर- हे प्यारे प्रभू! तू सब जीवों में व्यापक है (और सबके दिल की जानता है, मेरे अंदर का हाल भी तू ही जानता है) तेरे जितना और कोई दयालु नहीं, और मेरे जितना कोई पापी नहीं (सो, मुझे तू खुद ही इन विकारों से बचा)।4।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh