श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 856 बिलावलु ॥ नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ ॥ ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रसि लपटिओ ॥१॥ हमारे कुल कउने रामु कहिओ ॥ जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ ॥१॥ रहाउ ॥ सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरजु एकु भइओ ॥ सात सूत इनि मुडींए खोए इहु मुडीआ किउ न मुइओ ॥२॥ सरब सुखा का एकु हरि सुआमी सो गुरि नामु दइओ ॥ संत प्रहलाद की पैज जिनि राखी हरनाखसु नख बिदरिओ ॥३॥ घर के देव पितर की छोडी गुर को सबदु लइओ ॥ कहत कबीरु सगल पाप खंडनु संतह लै उधरिओ ॥४॥४॥ {पन्ना 856} पद्अर्थ: कोरी = जुलाह । (नोट: कोरा बर्तन सिर्फ उस बर्तन को कहते हैं, जिसमें अभी पानी ना डाला गया हो। हर रोज कोरा घड़ा लाने की कबीर जी को क्या आवश्यक्ता पड़ सकती थी? और ना ही उनकी आर्थिक अवस्था ऐसी थी कि वे हर रोज कोरा घड़ा खरीद सकते। कर्म-काण्ड का इतना तीव्र विरोध करने वाले कबीर जी कभी खुद ऐसा नहीं कर सकते कि बंदगी करने के लिए नित्य नई गागर खरीदतें फिरें। इस तरह, 'कोरी' शब्द 'गागरि' का विशेषण नहीं हैं)। आनै = लाता है। लीपत = लीपते हुए। जीउ गइआ = प्राण भी खप जाते हैं। रसि = रस में, आनंद में।1। कउने = किस ने? (भाव, किसी ने नहीं)। निपूते = इस कपूत ने। माला- (नोट: कबीर जी की माला कबीर जी के अपने जबान से ये है: "कबीर मेरी सिमरनी रसना उपरि रामु।" कबीर जी की माँ को कबीर जी की भजन-बंदगी वाला जीवन पसंद नहीं था, और जो बात अच्छी ना लगे उसका गिला करते वक्त आम तौर पर बहुत बढ़ा-चढ़ा के बात कही जाती है। सो, शब्द 'माला' तो कबीर जी की माँ कबीर की बँदगी के प्रति नफ़रत जाहिर करने के लिए कहती है; पर साथ ही ये बात बहुत बढ़ा के भी कही जा रही है कि कबीर जी नित्य सवेरे पोचा फेरते थे। हरेक मनुष्य, अगर चाहे तो, अपने जीवन में से कई ऐसी घटनाएं देख सकता है कि हम उस बात को कैसे बढ़ा के बयान करते हैं, जो हमें पसंद नहीं होता। मैंने कई ऐसे लोग देखे हैं जो वृद्ध होने के कारण खुद रक्ती भर भी कमाई नहीं कर सकते थे, उनका निर्वाह उनके पुत्रों के आसरे ही था। पर जब कभी वह पुत्र किसी सत्संग व किसी दीवान में जाने लगता था तो वह वृद्ध पिता सौ-सौ गालियां निकालता और कहता कि इस नकारे ने सारा घर उजाड़ दिया है। सो, जगत की यही चाल है। सत्संग किसी विरले को ही भाता है। जिनकी सुरति लगी हुई है उनकी विरोधता होती ही है, और होती ही रहेगी। उनके विरुद्ध बढ़ा-चढ़ा के बातें हमेशा की जाती हैं। कबीर जी ना सदा पोचा फेरना अपना धर्म माने बैठे थे, और ना ही माला गले में डाले फिरते थे। हाँ, यहाँ एक बात और याद रखी जानी चाहिए। उन दिनों शहरों में ना ही म्यिूसिपलिटी के नलके लगे थे ना ही घरों में अपने-अपने नलके हुआ करते थे। हरेक घर वालों को गलियों-बाजारों के सांझे कूओं से पानी खुद ही लाना पड़ता था। अमीर लोग तो नौकरों से पानी मंगवा लिया करते थे, पर गरीबों को तो ये काम खुद ही करना पड़ता था। आलस के कारण तो दुनियादार तो दिन चढ़े तक चारपाई पर पड़े रहते हैं, पर बँदगी वाला आदमी नित्य सवेरे उठने का आदी होता है, उसके लिए स्नान करना भी स्वभाविक ही बात है। अब भी गाँवों में जा के देखें। लोग कूँओं पर नहाने जाते हैं, वापसी पर घर के लिए घड़ा या गागर भर के ले आते हैं। पर, कबीर जी, उद्यमी कबीर जी, ये सारा काम घर वालों के जागने से पहले ही कर लिया करते थे। माँ को उनका भजन पसंद ना होने के कारण ये भी बुरा लगता था कि वे सवेरे-सवेरे पानी ले आते हैं। और, इसको वह बढ़ा के कहती है कि कबीर नित्य पोचा फेरता रहता है)।1। रहाउ। सात सूत = सूत्र आदि, सूत्र आदि से काम करना।2। गुरि = सतिगुरू ने। पैज = लाज, इज्जत। जिनि = जिस (प्रभू) ने। नख = नाखूनों से। बिदरिओ = चीर दिया, चीर के मार दिया।3। पितर की छोडी = पिता पुरखी छोड़ दी है। को = का। संतह = संतों की संगत में ले के।4। नोट: इस शबद में कबीर जी खुद ही अपने वचनों द्वारा अपनी माँ का रवईया और गिले बयान करके फिर खुद ही अपना नित्य का काम बताते हैं। ये शब्द कबीर जी की माँ के उचारे हुए नहीं हैं। बल्कि कबीर जी ने उसका वर्णन किया है। वैसे भी सिर्फ भगत जी की वाणी को ही गुरू नानक साहिब जी की वाणी के साथ जगह मिल सकती थी, किसी और को नहीं। अर्थ: हमारी कुल में कभी किसी ने परमात्मा का भजन नहीं किया था। जब से मेरा (ये) कुपूत (पुत्र) भक्ति में लगा है, तब से हमें कोई सुख नहीं रहा।1। रहाउ। ये जुलाहा (पुत्र) रोज सवेरे उठ के (पानी की) गागरि ले आता है और पोचा फेरता थक जाता है, इसको अपने बुनाई-कताई के काम की सुरति ही नहीं रही, सदा हरी के रस में लीन-मगन रहता है।1। हे मेरी देवरानियों! जेठानियो! सुनो, (हमारे घर) ये कैसी आश्चर्यजनक होनी हो गई है? कि इस मूर्ख बेटे ने सूत्र आदि का काम ही त्याग दिया है। इससे बेहतर होता ये मर ही जाता।2। (पर) जिस परमात्मा ने हिर्णाकश्यप को नाखूनों से मार के अपने भक्त प्रहलाद की लाज रखी थी, जो प्रभू सारे सुख देने वाला है उसका नाम (मुझ कबीर को मेरे) गुरू ने बख्शा है।3। कबीर कहता है- मैंने पिता-पुरखी त्याग दी है, मैंने अपने घर में पूजे जाने वाले देवते (भाव, ब्राहमण आदि) छोड़ बैठा हूँ। अब मैंनें सतिगुरू का शबद ही धारण किया है। जो प्रभू सारे पापों का नाश करने वाला है, सत्संग में उसका नाम सिमर के मैं (संसार-सागर से) पार लांघ आया हूँ।4।4। बिलावलु ॥ कोऊ हरि समानि नही राजा ॥ ए भूपति सभ दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा ॥१॥ रहाउ ॥ तेरो जनु होइ सोइ कत डोलै तीनि भवन पर छाजा ॥ हाथु पसारि सकै को जन कउ बोलि सकै न अंदाजा ॥१॥ चेति अचेत मूड़ मन मेरे बाजे अनहद बाजा ॥ कहि कबीर संसा भ्रमु चूको ध्रू प्रहिलाद निवाजा ॥२॥५॥ {पन्ना 856} पद्अर्थ: कोऊ = कोई भी जीव। समानि = बराबर, जैसा। ऐ भूपति = इस दुनिया के राजे। दिवस = दिन। झूठे = जो सदा कायम नहीं रह सकते। दिवाजा = दिखलाए।1। रहाउ। जनु = दास, भगत। कत = क्यों? कत डोलै = (इस दुनिया के राजाओं के आगे) नहीं डोलता। पर = में। तीनि भवन पर = तीन भवनों में, सारे जगत में। छाजा = प्रभाव छाया रहता है, महिमा बनी रहती है। को = कौन? जन कउ = भगत को। पसारि सकै = बिखेर सकता है, उठा सकता है। अंदाजा = (प्रताप का) अनुमान।1। अचेत मन = हे गाफल मन! बाजे = बज जाएं। अनहद बाजा = एक रस (आनंद के) बाजे। कहि = कहे, कहता है। भ्रमु = भटकना। संसा = सहम। चूको = खत्म हो जाता है। निवाजा = निवाजता है, सम्मान देता है, पालता है।2। अर्थ: (हे भाई!) जगत में कोई जीव परमात्मा के बराबर का राजा नहीं है। ये दुनिया के सब राजे चार दिन के राजे होते हैं, (ये लोग अपने राज-भाग के) झूठे दिखावे करते हैं।1। रहाउ। (हे प्रभू!) जो मनुष्य तेरा दास हो के रहता है वह (इन दुनिया के राजाओं के सामने) घबराता नहीं, (क्योंकि, हे प्रभू! तेरे सेवक का प्रताप) सारे जगत में छाया रहता है। हाथ उठाना तो कहाँ रहा, तेरे सेवक के सामने वे ऊँची आवाज में बोल भी नहीं सकते।1। हे मेरे गाफ़ल मन! तू भी प्रभू को सिमर, (ताकि तेरे अंदर सिफत-सालाह के) एक-रस बाजे बजने लगें (और तुझे, दुनियावी राजाओं के सामने कोई घबराहट ना हो)। कबीर कहता है- (जो मनुष्य प्रभू को सिमरता है, उसका) सहम, उसकी भटकना सब दूर हो जाते हैं, प्रभू (अपने सेवक को) ध्रुव और प्रहलाद की तरह पालता है।2।5। बिलावलु ॥ राखि लेहु हम ते बिगरी ॥ सीलु धरमु जपु भगति न कीनी हउ अभिमान टेढ पगरी ॥१॥ रहाउ ॥ अमर जानि संची इह काइआ इह मिथिआ काची गगरी ॥ जिनहि निवाजि साजि हम कीए तिसहि बिसारि अवर लगरी ॥१॥ संधिक तोहि साध नही कहीअउ सरनि परे तुमरी पगरी ॥ कहि कबीर इह बिनती सुनीअहु मत घालहु जम की खबरी ॥२॥६॥ {पन्ना 856} पद्अर्थ: हम ते = हम जीवों से, मुझ से। बिगरी = बिगड़ी है, बुरा काम हुआ है। सीलु = अच्छा स्वभाव। धरमु = जिंदगी का फर्ज। जपु = बंदगी। हउ = मैं। टेड = टेढ़ी। पगरी = पकड़ी।1। रहाउ। अमर = (अ+मर) ना मरने वाली, ना नाश होने वाली। जानि = समझ के। संची = संचय करनी, संभाल के रखी, पालता रहा। काइआ = शरीर। मिथिआ = झूठी, नाशवंत। गगरी = घड़ा। जिनहि = जिस (प्रभू) ने। निवाजि = आदर दे के, मेहर करके। साजि = पैदा करके। हम = हमें, मुझे। अवर = और ही तरफ से।1। संधिक = चोर। तोहि = तेरा। कहीअउ = मैं कहलवा सकता हूँ। तुमरी पगरी = तेरे चरणों की। मत घालहु = मत भेजना। खबरी = खबर, सोय।2। अर्थ: हे प्रभू! मेरी लाज रख ले। मुझसे बहुत बुरा काम हुआ है कि ना मैंने अच्छा स्वभाव बनाया, ना ही मैंने जीवन का फर्ज कमाया, और ना ही तेरी बँदगी, तेरी भक्ति की। मैं सदा अहंकार करता रहा, और गलत रास्ते पर पड़ा रहा हूँ (टेढ़ा-पन पकड़ा हुआ है)।1। रहाउ। इस शरीर को कभी ना मरने वाला समझ के मैं सदा इसको ही पालता रहता, (ये सोच ही नहीं आई कि) यह शरीर तो कच्चे घड़े की तरह नाशवंत है। जिस प्रभू ने मेहर करके मेरा ये सुंदर शरीर बना के मुझे पैदा किया, उसको बिसार मैं और ही तरफ लगा रहा।1। (सो) कबीर कहता है- (हे प्रभू!) मैं तेरा चोर हूँ, मैं भला (आदमी) नहीं कहलवा सकता। फिर भी (हे प्रभू!) मैं तेरे चरणों की शरण आ पड़ा हूँ; मेरी ये आरजू सुन, मुझें जमों की ख़बर ना भेजना (भाव, मुझे जनम-मरन के चक्कर में ना डालना)।2।6। बिलावलु ॥ दरमादे ठाढे दरबारि ॥ तुझ बिनु सुरति करै को मेरी दरसनु दीजै खोल्हि किवार ॥१॥ रहाउ ॥ तुम धन धनी उदार तिआगी स्रवनन्ह सुनीअतु सुजसु तुम्हार ॥ मागउ काहि रंक सभ देखउ तुम्ह ही ते मेरो निसतारु ॥१॥ जैदेउ नामा बिप सुदामा तिन कउ क्रिपा भई है अपार ॥ कहि कबीर तुम सम्रथ दाते चारि पदारथ देत न बार ॥२॥७॥ {पन्ना 856} नोट: उक्त शबद में जिस अक्षर के नीचे '्' लगा है उसे आधा 'ह' पढ़ना है जैसे- खोलि् को 'खोलि्ह; तुमार को 'तुम्हार'; और स्रवनन् को 'स्रवनन्ह'। पद्अर्थ: दरमादे = (फारसी: दरमांदा) आजिज, मंगता। ठाढे = खड़ा हूँ। दरबारि = (तेरे) दर पर। सुरति = संभाल, ख़बर गीरी। को = कौन? खोलि् = खोल के। किवार = किवाड़, दरवाजा।1। रहाउ। धन धनी = धन के मालिक। उदार = खुले दिल वाला। तिआगी = दानी। स्रवनन् = श्रवणों से, कानों से। सुनीअत = सुना जाता है। सुजसु = सु+यश, सुंदर शोभा। मागउ = माँगूं। काहि = किससे? रंक = कंगाल। निसतारु = पार उतारा।1। जैदेउ = भगत जैदेव जी बारहवीं सदी में संस्कृत के एक प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं, इनकी भक्ति-रस में लिखी हुई पुस्तक 'गीत गोविंद' बहुत ही सम्मान पा रही है। दक्षिणी बंगाल के गाँव कंनदूली में आप पैदा हुआ थे। उचच जीवन वाले प्रभू-भक्त हुए हैं। गुरू ग्रंथ साहिब में आपके दो शबद दर्ज हैं, जो गुरू नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी के दौरान बंगाल की ओर जाते संकलित किए थे। नामा = भगत नामदेव जी बंबई (मुम्बई) के जिला सतारा के एक गाँव में पैदा हुए और सारा जीवन आपने पांधरपुर में गुजारा। कबीर जी यहाँ उनकी अनन्य भक्ति व प्रभू की उन पर अपार कृपा का वर्णन कर रहे हैं। सो, ऐसा विचार करना भारी भूल है कि नामदेव जी मूर्ति-पूजक थे अथवा मूर्तिपूजा से उन्हें ईश्वर मिला था। बिप = विप्र, ब्राहमण। बार = समय।2। अर्थ: हे प्रभू! मैं तेरे दर पर मंगता बन के खड़ा हूँ। भला तेरे बिना और कौन मेरी संभाल (प्रतिपालना) कर सकता है? दरवाजा खोल के मुझे (अपने) दर्शन दो।1। रहाउ। तू ही (जगत के सारे) धन-पदार्थ का मालिक है, और बड़ा खुले दिल वाला दानी है। (जगत में) तेरी ही (दानी होने की) मीठी (सुंदर) शोभा कानों में पड़ रही है। मैं और किससे माँगूं? मुझे तो (तेरे समक्ष) सब कंगाल दिख रहे हैं। मेरा बेड़ा तेरे से ही पार हो सकता है।1। कबीर कहता है- तू सब दातें देने के योग्य दातार है। जीवों को चारों पदार्थ देते हुए तुझे रक्ती भर भी ढील नहीं लगती। जैदेव, नामदेव, सुदामा ब्राहमण-इन पर तेरी बेअंत कृपा हुई थी।2।7। बिलावलु ॥ डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी ॥ भ्रम कै भाइ भवै भेखधारी ॥१॥ आसनु पवन दूरि करि बवरे ॥ छोडि कपटु नित हरि भजु बवरे ॥१॥ रहाउ ॥ जिह तू जाचहि सो त्रिभवन भोगी ॥ कहि कबीर केसौ जगि जोगी ॥२॥८॥ {पन्ना 856-857} पद्अर्थ: खिंथा = गोदड़ी, खफ़नी। आधारी = वह झोली जिसमें जोगी भिक्षा मांग के डाल लेते हैं। भाइ = भावना में, अनुसार। भ्रम कै भाइ = भ्रम के आसरे, भ्रम के अधीन हो के, भटकना में पड़ के। भवै = तू भटक रहा है। भेख धारी = भेष धारण करने वाला, धार्मियों वाला पहरावा पहन के।1। आसनु = जोगाभ्यास के आसन। पवन = प्राणायाम। बवरे = हे कमले योगी! कपटु = ठॅगी, पाखण्ड।1। रहाउ। जिह = जो कुछ, जिस (माया) को। जाचहि = की तू याचना करता है, तू जो चाहता है। त्रिभवण = तीनों भवनों के जीवों ने, सारे जगत के जीवों ने। केसौ = केशव, परमात्मा (का नाम ही मांगने योग्य है)। जोगी = हे जोगी!।2। नोट: इस शबद की 'रहाउ' की तुक में कबीर जी स्पष्ट शब्दों में योगाभ्यास व प्राणायाम को कपट कह रहे हैं, और किसी योगी को समझाते हैं के इस गलत रास्ते को छोड़ दे। ये माया के लिए ही किया जाने वाला एक डंभ है। योगाभ्यास-प्राणायाम बाबत कबीर जी के इन स्पष्ट व बेबाक विचारों को छोड़ के अन्य स्वार्थी लोगों की मन-घड़ंत कहानियों को मान के कबीर जी को जोग-अभ्यासी मिथ लेना एक भारी भूल है। अर्थ: हे बावरे जोगी! योगाभ्यास व प्राणायाम को छोड़ दे। इस पाखण्ड को छोड़, और सदा प्रभू की बँदगी कर।1। रहाउ। नोट: योगाभ्यास, प्राणायाम को छोड़ के प्रभू के सिमरन करने के उपदेश से बात स्पष्ट होती है कि कबीर जी भक्ति के मार्ग में इन क्रियाओं की कोई आवश्यक्ता नहीं समझते। हे जोगी! तू भटकना में पड़ कर, डंडा, मुंद्रा, गोदड़ी और झोली आदि का धार्मिक पहरावा पहन के, गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है।1। (योग-अभ्यास व प्राणायाम के नाटक-चेटक दिखा के) जो माया तू माँगता फिरता है, उसको सारे जगत के जीव भोग रहे हैं। कबीर कहता है- हे जोगी! जगत में माँगने के लायक एक प्रभू का नाम ही है।2।8। शबद का भाव: प्रभू का नाम ही मानस जन्म का उद्देश्य है। नाम सिमरन के लिए जोगियों के आसनों व प्राणायाम की कोई आवश्यक्ता नहीं है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |