श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 857 बिलावलु ॥ इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे ॥ किंचत प्रीति न उपजै जन कउ जन कहा करहि बेचारे ॥१॥ रहाउ ॥ ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु ध्रिगु इह माइआ ध्रिगु ध्रिगु मति बुधि फंनी ॥ इस माइआ कउ द्रिड़ु करि राखहु बांधे आप बचंनी ॥१॥ किआ खेती किआ लेवा देई परपंच झूठु गुमाना ॥ कहि कबीर ते अंति बिगूते आइआ कालु निदाना ॥२॥९॥ {पन्ना 857} पद्अर्थ: इनि् = इनि्ह, इसी ने। इनि् माइआ = इसी माया ने। जगदीस = हे जगत के ईश! किंचत = (संस्कृत: किंचिंत) रक्ती भर भी, थोड़ी भी। जन कउ = लोगों को। बेचारे जन = बेचारे जीव।1। रहाउ। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। तनु = शरीर। फंनी = लोगों को धोखा देने वाली। द्रिढ़ ु करि राखहु = अच्छी तरह संभाल के रख। बांधे = (ये माया जीवों को) बाँधती है। आप बचंनी = (हे प्रभू!) तेरे हुकम के अनुसार।1। लेवा देई = लेन देन, कार व्यवहार, व्यापार। परपंच गुमाना = इस पसारे का गुमान। झूठ = व्यर्थ। कहि = कहे, कहता है। अंति = अंत को आखिर। बिगूते = दुखी हुए, पछताए। निदाना = आखिर में (अवश्य ही)।2। अर्थ: हे जगत के मालिक! हे जगत के पति! (तेरी पैदा की हुई) इस माया ने (हम जीवों के दिलों में से) तेरे चरणों की याद भुला दी है। जीव भी बेचारे क्या करें? (इस माया के कारण) जीवों के अंदर (तेरे चरणों का) रक्ती भर भी प्यार पैदा नहीं होता है।1। रहाउ। लाहनत है इस शरीर और धन-पदार्थों को; धिक्कारयोग्य है (मनुष्य की यह) बुद्धि, जो (जो धन-पदार्थों की खातिर) औरों को धोखा देती है। हे जगदीश! तेरे हकम के मुताबिक ही ये माया जीवों को अपने मोह में बाँध रही है। सो, तू खुद ही इसको अच्छी तरह अपने काबू में रख।1। कबीर कहता है- क्या खेती क्या व्यापार? जगत के इस पसारे का गुमान झूठा है, क्योंकि आखिर में जब मौत आती है तब (इस पसारे के मोह-मान में फसे हुए) जीव आखिर में सिसकियां भरते हैं।2।9। बिलावलु ॥ सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप ॥ परम जोति पुरखोतमो जा कै रेख न रूप ॥१॥ रे मन हरि भजु भ्रमु तजहु जगजीवन राम ॥१॥ रहाउ ॥ आवत कछू न दीसई नह दीसै जात ॥ जह उपजै बिनसै तही जैसे पुरिवन पात ॥२॥ मिथिआ करि माइआ तजी सुख सहज बीचारि ॥ कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि ॥३॥१०॥ {पन्ना 857} पद्अर्थ: भीतरे = भीतर ही, अंदर ही। सरोवर = सुंदर सर। आछै = है। अनूप = जिस जैसे और नहीं, बड़ा सुंदर। पुरखोतमो = उक्तम पुरुष प्रभू। जा कै = जिसके अंदर। रेख = लकीर।1। भ्रमु = भटकना, माया के पीछे दौड़ भाग। जग जीवन = जगत की जिंदगी, जगत का आसरा।1। रहाउ। कछू न दीसई = कुछ नहीं दिखता। जात = जाता, मरता। जह = जहाँ। उपजै = (माया की खेल) पैदा होती है। तही = वहां ही। पुरिवन पात = (पुरिवन, चुपक्ती, जल कुमद्नी, ॅater Lilly) के पत्ते ।1। मिथिआ = नाशवंत। करि = कर के, जान के, समझ के। बीचारि = विचार के। मन मंझि = मन के अंदर ही।3। अर्थ: हे मेरे मन! (माया के पीछे) भटकना छोड़ दे, और उस परमात्मा का भजन कर, जो सारे जगत का आसरा है।1। रहाउ। हे मन! जिस उक्तम पुरुष प्रभू की परम जोति की रूप-रेखा बताई नहीं जा सकती, वह प्रभू इस शरीर रूपी सुंदर सर (शरीर-सरोवर) के अंदर ही है, उसी की बरकति से हृदय-रूपी कमल फूल सुंदर खिला रहता है।1। वह ईश्वरीय ज्योति ना कभी पैदा होती है, और ना कभी मरती दिखाई देती है। पर ये माया की खेल जल-कुमद्नी के पक्तों जैसी, उसी (प्रभू में से) पैदा होती है और उसी में लीन हो जाती है।2। सहज अवस्था के सुख की विचार करके (भाव, ये समझ के कि माया का मोह छोड़ने से, माया में डोलने से हट के, सुख बन जाएगा) कबीर ने इस माया को नाशवंत जान के (इसका मोह) छोड़ दिया है और अब कहता है- हे मन! अपने अंदर ही (टिक के) परमात्मा का सिमरन कर।3।10। शबद का भाव: माया की भटकना छोड़ के अपने अंदर बसते प्रभू का सिमरन करो। यही है सुख का साधन। बिलावलु ॥ जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी ॥ जीवत सुंनि समानिआ गुर साखी जागी ॥१॥ रहाउ ॥ कासी ते धुनि ऊपजै धुनि कासी जाई ॥ कासी फूटी पंडिता धुनि कहां समाई ॥१॥ त्रिकुटी संधि मै पेखिआ घट हू घट जागी ॥ ऐसी बुधि समाचरी घट माहि तिआगी ॥२॥ आपु आप ते जानिआ तेज तेजु समाना ॥ कहु कबीर अब जानिआ गोबिद मनु माना ॥३॥११॥ {पन्ना 857} पद्अर्थ: भ्रमु = भ्रम, भटकना, चक्कर। गइआ = चला गया, समाप्त हो गया। लिव = लगन। सुंनि = उस अवस्था में जहाँ माया के विचारों से शून्य है, शून्य अवस्था में। साखी = शिखा से। गुर साखी = सतिगुरू की शिक्षा से। जागी = (बुद्धि) जाग उठी है।1। रहाउ। कासी = कांसे (का बर्तन)। धुनि = आवाज। जाई = लीन हो जाती है। कासी फूटी = कांसे का बर्तन टूटा। पंडिता = हे पण्डित! कहां = कहाँ? नोट: कांसे के बर्तन को ठनकाएं तो इसमें से एक आवाज़ निकलती है, अगर ठनकाना छोड़ दें तो आवाज भी बंद हो जाती है। पर जब बर्तन टूट जाता है, तो ठनकाने से भी वह आवाज़ नहीं निकलती। शरीर का मोह (देह-अध्यास) मानो, कांसे का बर्तन है, जब तक देह-अध्यास मनुष्य के अंदर कायम रहता है, दुनिया के पदार्थ ज्ञानेन्द्रियों को ठनकाते रहते हैं, और, मन में तृष्णा की सुर छिड़ी ही रहती है। पर, जब शरीर का मोह समाप्त हो जाए, तो ना कोई पदार्थ इन्द्रियों को प्रेरित कर सकता है, ना ही कोई ठोकर बजती है (ठनकाहट होती है), और ना ही अंदर की तृष्णा का राग छिड़ता है। फिर, पता नहीं वह राग कहाँ जा समाता है। त्रिकुटी- (संस्कृत: त्रृ+कुटी। त्रृ-तीन। कुटी-टेढ़ी लकीरें) तीन टेढ़ी लकीरें जो मनुष्य के माथे पर पड़ जाती हैं। जैसे संस्कृत शब्द 'निकटी' से पंजाबी शब्द 'नेड़े' (नजदीक) बन गया; जैसे शब्द 'कटक' से 'कड़ा' बना, वैसे ही संस्कृत शब्द 'त्रिकुटी' का पंजाबी शब्द है 'तिउड़ी'। मनुष्य के माथे पर त्रिकुटी तब ही पड़ती है, जब इसके मन में झल्लाहट हो। सो, 'त्रिकुटी विंनण' का भाव है 'त्रिकुटी को भेदना' या 'मन में से झल्लाहट मिटानी'। इसमें कोई शक नहीं कि शब्द 'त्रिकुटी' जोगियों के मण्डल में प्रयोग किया जाता है, पर ये जरूरी नहीं कि कबीर जी की बाणी में भी ये शब्द उसी भाव में हो। सिर्फ इस शब्द के प्रयोग से ये अंदाजा लगाना ग़लत है कि कबीर जी प्राणायाम करते थे। अगर हमने ऐसी ही कसवटी बरती, तो गुरू नानक देव जी, गुरू अमरदास जी और गुरू अरजन देव जी को हम अपने अंजानपने के कारण प्राणायाम के हामी कह बैठेंगे। संधि = सेंध के, फोड़ के, नाश करके। घट हू घट = हरेक घट में। समाचरी = पैदा हुई, उपजी है। तिआगी = माया से उपराम, मोह से रहित।2। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। आप ते = अंदर से ही। तेजु = प्रभू की ज्योति। माना = पतीज गया है।3। अर्थ: (मेरे अंदर) सतिगुरू जी की शिक्षा से ऐसी बुद्धि जाग उठी है कि मेरे जनम-मरण की भटकना समाप्त हो गई है, प्रभू चरणों में मेरी सुरति जुड़ गई है, और मैं जगत में विचरता हुआ ही उस हालत में टिका रहता हूँ जहाँ माया के विचार नहीं उठते।1। रहाउ। हे पंडित! जैसे कांसे के बर्तन को ठनकाने से उसमें से आवाज़ निकलती है, यदि (ठनकाना) छोड़ दें तो वह आवाज़ कांसे में ही समाप्त हो जाती है, वैसे ही शारीरिक मोह का हाल है। (जब से बुद्धि का प्रकाश हुआ है) मेरे शरीर से मोह समाप्त हो गया है (मेरा यह मायावी पदार्थों से ठनकाने वाला बर्तन टूट गया है), अब पता ही नहीं कि वह तृष्णा की आवाज कहाँ जा के गुम हो गई है।1। (सतिगुरू की शिक्षा से बुद्धि जागने पर) मैंने अंदरूनी खिझ (बौखलाहट) दूर कर ली है, अब मुझे हरेक घट में प्रभू की ज्योति जगती दिखाई दे रही है; मेरे अंदर ऐसी मति पैदा हो गई है कि मैं अंदर से विरक्त हो गया हूँ।2। अब अंदर से मुझे अपने आप की समझ पैदा हो गई है, मेरी ज्योति, रॅबी-ज्योति में जा मिली हे। हे कबीर! कह-अब मैंने गोबिंद के साथ जान-पहिचान बना ली है, मेरा मन गोबिंद के साथ रम गया है।3।11। शबद का भाव: जब तक शरीर के साथ मोह है, देह-अध्यास है, तब तक मन में बौखलाहट पैदा होने के कारण बनते ही रहते हैं, माथे पर त्रिकुटी पड़ती ही रहती हैं। पर गुरू की शरण पड़ के नाम जपने से ये त्रिकुटी खत्म हो जाती है। बिलावलु ॥ चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव ॥ मानौ सभ सुख नउ निधि ता कै सहजि सहजि जसु बोलै देव ॥ रहाउ ॥ तब इह मति जउ सभ महि पेखै कुटिल गांठि जब खोलै देव ॥ बारं बार माइआ ते अटकै लै नरजा मनु तोलै देव ॥१॥ जह उहु जाइ तही सुखु पावै माइआ तासु न झोलै देव ॥ कहि कबीर मेरा मनु मानिआ राम प्रीति कीओ लै देव ॥२॥१२॥ {पन्ना 857} पद्अर्थ: किउ डोलै = नहीं डोलता, माया के हाथों में नहीं नाचता। देव = हे प्रभू! मानौ = ऐसा समझ लो। निधि = खजाना। ता कै = उसके पास हैं। सहजि = सहज अवस्था में। जसु = महिमा, गुण। रहाउ। पेखै = देखता है। कुटिल = टेढ़ी। अटकै = (मन को) रोकता है। नरजा = तराजू।1। जह = जहाँ। तासु = उसको। झोलै = डोलाती, भरमाती। लै = लीन। कीओ = कर दिया है।2। अर्थ: हे देव! जिस मनुष्य के हृदय में तेरे सुंदर चरण बसते हैं, वह माया के हाथों में नहीं नाचता, वह अडोल अवस्था में टिका रह के तेरी सिफत सालाह करता है। उसके अंदर, मानो, सारे सुख और जगत के नौ खजाने आ जाते हैं। रहाउ। (सिमरन की बरकति से) जब मनुष्य अपने अंदर से कुटिलता (टेढ़-मेढ़) निकाल देता है, तो उसके अंदर ये मति उपजती है कि उसको हर जगह प्रभू ही दिखाई देता है। वह मनुष्य बार बार अपने मन को माया की ओर से रोकता है, और तराजू ले के तोलता रहता है (भाव, हमेशा आत्म चिंतन करके मन के अवगुणों को पड़तालता रहता है)।1। जहाँ भी वह मनुष्य जाता है, वहीं सुख पाता है, उसे माया नहीं भरमाती। कबीर कहता है- मैंने भी अपने मन को प्रभू की प्रीति में लीन कर दिया है, अब ये मेरा मन प्रभू के साथ पतीज गया है।2।12। शबद का भाव: प्रभू के चरणों में चिक्त जोड़ने से मनुष्य का मन माया के हाथों पर नहीं नाचता। उसे माया की परवाह ही नहीं रहती। बिलावलु बाणी भगत नामदेव जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सफल जनमु मो कउ गुर कीना ॥ दुख बिसारि सुख अंतरि लीना ॥१॥ गिआन अंजनु मो कउ गुरि दीना ॥ राम नाम बिनु जीवनु मन हीना ॥१॥ रहाउ ॥ नामदेइ सिमरनु करि जानां ॥ जगजीवन सिउ जीउ समानां ॥२॥१॥ {पन्ना 857-858} पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। सफल जनमु = वह मनुष्य जिसका जनम सफल हो गया है, वह मनुष्य जिसने मानस जीवन का उद्देश्य हासिल कर लिया है। सुख अंतरि = सुख में। बिसारि = भुला के।1। अंजनु = सुरमा। गुरि = गुरू ने। मन = हे मन! हीना = तुच्छ, नकारा।1। रहाउ। नामदेइ = नामदेव को। करि = कर के। जानां = जान लिया है, पहचान लिया है। सिउ = साथ। जीउ = जिंद। समानां = लीन हो गई है।2। अर्थ: मुझे मेरे सतिगुरू ने सफल जीवन वाला बना दिया है, मैं अब (जगत के सारे) दुख भुला के (आत्मिक) सुख में लीन हो गया हूँ।1। मुझे सतिगुरू ने अपने ज्ञान का (ऐसा) सुरमा दिया है कि हे मन! अब प्रभू की बंदगी के बिना जीना व्यर्थ लगता है।1। रहाउ। मैं नामदेव ने प्रभू का भजन करके प्रभू से सांझ डाल ली है और जगत-के-आसरे प्रभू में मेरे प्राण लीन हो गए हैं।2।1। शबद का भाव: सिमरन से ही जनम सफल होता है। यह दाति गुरू से मिलती है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |