श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु बाणी रविदास भगत की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दारिदु देखि सभ को हसै ऐसी दसा हमारी ॥ असट दसा सिधि कर तलै सभ क्रिपा तुमारी ॥१॥ तू जानत मै किछु नही भव खंडन राम ॥ सगल जीअ सरनागती प्रभ पूरन काम ॥१॥ रहाउ ॥ जो तेरी सरनागता तिन नाही भारु ॥ ऊच नीच तुम ते तरे आलजु संसारु ॥२॥ कहि रविदास अकथ कथा बहु काइ करीजै ॥ जैसा तू तैसा तुही किआ उपमा दीजै ॥३॥१॥ {पन्ना 858}

पद्अर्थ: दारिदु = गरीबी। सभ को = हरेक बंदा। हसै = मजाक करता है। दसा = दशा, हालत। असट दसा = अठारह। कर तलै = हाथ की तली पर, काबू में।1।

मै किछु नही = मै कुछ भी नहीं, मेरी कोई बिसात नहीं। भवखंडन = हे जनम मरण नाश करने वाले! जीअ = जीव। पूरन काम = हे सबकी कामना पूरी करने वाले!।1। रहाउ।

सरनागता = शरण आए हैं। भारु = बोझ (विकारों का)। तुम ते = तेरी मेहर से। ते = से। आलजु = (इस शब्द के दो हिस्से 'आल' और 'जु' करना ठीक नहीं, अलग-अलग करके पाठ करना ही असंभव हो जाता है। 'आलजु' का अर्थ 'अलजु' करना भी गलत होगा; 'आ' और 'अ' में बहुत फर्क है। बाणी में 'अलजु' शब्द नहीं है, 'निरलजु' शब्द ही आया है। आम बोलचाल में भी हम 'निरलज' ही कहते हैं) आल+जु। आल = आलय, आला, घर, गृहस्त का जंजाल। आलजु = गृहस्त के जंजालों से पैदा हुआ, जंजालों से भरा हुआ।2।

अकथ = अ+कथ, बयान से परे। बहु = बहत बात। काइ = किस लिए? उपमा = तशबीह, बराबरी, तुलना।3।

अर्थ: हे जीवों के जनम-मरण के चक्कर खत्म करने वाले राम! हे सबकी कामना पूरी करने वाले प्रभू! सारे जीव-जंतु तेरी ही शरण आते हैं (मैं गरीब भी तेरी ही शरण में हूँ) तू जानता है कि मेरी अपनी कोई बिसात नहीं है।1। रहाउ।

हरेक आदमी (किसी की) गरीबी देख के मजाक उड़ाता है, (और) ऐसी ही हालत मेरी भी थी (कि लोग मेरी गरीबी पर ठॅठे किया करते थे), पर अब अठारह सिद्धियां मेरी हथेली पर (नाचती) हैं; हे प्रभू ये सारी तेरी मेहर है।1।

चाहे उच्च जाति वाले हों, चाहे नीच जाति वाले, जो जो भी तेरी शरण आते हैं, उनकी (आत्मा) पर (विकारों का) वज़न भार नहीं रह जाता, इस वास्ते वे तेरी मेहर से इस बखेड़ों भरे संसार (समुंद्र) में से (आसानी से) पार हो जाते हैं।2।

रविदास कहता है- हे प्रभू! तेरे गुण बयान नहीं किए जा सकते (तू कंगालों को भी शहनशाह बनाने वाला है), चाहे कितने भी यतन करें, तेरे गुण नहीं कहे जा सकते। अपने जैसा तम स्वयं ही है; (जगत) में कोई ऐसा नहीं जिसको तेरे जैसा कहा जा सके।3।1।

भाव: परमात्मा का सिमरन नीचों को भी ऊँचा कर देता है।

बिलावलु ॥ जिह कुल साधु बैसनौ होइ ॥ बरन अबरन रंकु नही ईसुरु बिमल बासु जानीऐ जगि सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ ब्रहमन बैस सूद अरु ख्यत्री डोम चंडार मलेछ मन सोइ ॥ होइ पुनीत भगवंत भजन ते आपु तारि तारे कुल दोइ ॥१॥ धंनि सु गाउ धंनि सो ठाउ धंनि पुनीत कुट्मब सभ लोइ ॥ जिनि पीआ सार रसु तजे आन रस होइ रस मगन डारे बिखु खोइ ॥२॥ पंडित सूर छत्रपति राजा भगत बराबरि अउरु न कोइ ॥ जैसे पुरैन पात रहै जल समीप भनि रविदास जनमे जगि ओइ ॥३॥२॥ {पन्ना 858}

पद्अर्थ: जिह कुल = जिस कुल में। बैसनौ = वैश्णव, परमात्मा का भगत। होइ = पैदा हो जाए। बरन = वर्ण, ऊँची जाति। अबरन = नीच जाति। रंकु = गरीब। ईसुरु = धनाड, अमीर। बिमल बासु = निरमल शोभा वाला। बासु = सुगंधि, अच्छी शोभा। जगि = जगत में। सोइ = वह मनुष्य।1। रहाउ।

डोम = डूम, मरासी। मलेछ मन = मलीन मन वाला। आपु = अपने आप को। तारि = तार के। दोइ = दोनों।1।

धंनि = भाग्यशाली। गाउ = गाँव। ठाउ = जगह। लोइ = जगत में। जिनि = जिस ने। सार = श्रेष्ठ। तजे = त्यागे। आन = अन्य। मगन = मस्त। बिखु = जहर। खोइ डारे = नाश कर दिया।2।

सूर = सूरमा। छत्रपति = छत्र धारी। पुरैन पात = जल कुदमिनी के पत्र, जलकुम्भी के पत्ते। समीप = नजदीक। रहै = रह सकती है, जी सकती है। भनि = कहता है। जनमे = पैदा हुए हैं। जनमे ओइ = वही पैदा हुए हैं, उनका ही पैदा होना सफल है। ओइ = ('ओह' कार बहुवचन) वह लोग।3।

अर्थ: जिस किसी भी कुल में परमात्मा का भक्त पैदा हो जाए, चाहे वह अच्छी जाति का है चाहे नीच जाति का है, चाहे कंगाल है चाहे धनाढ, (उसकी जाति व धन आदि का वर्णन ही) नहीं (छिड़ता), वह जगत में निर्मल शोभा वाला प्रसिद्ध होता है।1। रहाउ।

कोई ब्राहमण हो, क्षत्रिय हो, डूम-चण्डाल अथवा मलीन मन वाला हो, परमात्मा के भजन से मनुष्य पवित्र हो जाता है; वह अपने आप को (संसार-समुंद्र से) पार करके अपनी दोनों कुलें भी तैरा लेता है।1।

संसार में वह गाँव मुबारक है, वह स्थान धन्य है, वह पवित्र कुल भाग्यशाली है, (जिसमें पैदा हो के) किसी ने परमात्मा के नाम का श्रेष्ठ रस पीया है, अन्य (बुरे) रस छोड़े हैं, और, प्रभू के नाम-रस में मस्त हो के (विकार-वासना का) जहर (अपने अंदर से) नाश कर दिया है।2।

बहुत विद्वान हो चाहे शूरवीर, चाहे छत्रपति राजा हो, कोई भी मनुष्य परमात्मा के भक्त के बराबर का नहीं हो सकता। रविदास कहता है- भक्तों का ही पैदा होना जगत में मुबारक है (वे प्रभू के चरणों में रह के ही जी सकते हैं), जैसे जल कुदमिनी पानी के समीप रह के ही (हरी) रह सकती है।3।2।

भाव: सिमरन नीचों को ऊँच कर देता है।

बाणी सधने की रागु बिलावलु    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ न्रिप कंनिआ के कारनै इकु भइआ भेखधारी ॥ कामारथी सुआरथी वा की पैज सवारी ॥१॥ तव गुन कहा जगत गुरा जउ करमु न नासै ॥ सिंघ सरन कत जाईऐ जउ ज्मबुकु ग्रासै ॥१॥ रहाउ ॥ एक बूंद जल कारने चात्रिकु दुखु पावै ॥ प्रान गए सागरु मिलै फुनि कामि न आवै ॥२॥ प्रान जु थाके थिरु नही कैसे बिरमावउ ॥ बूडि मूए नउका मिलै कहु काहि चढावउ ॥३॥ मै नाही कछु हउ नही किछु आहि न मोरा ॥ अउसर लजा राखि लेहु सधना जनु तोरा ॥४॥१॥ {पन्ना 858}

पद्अर्थ: न्रिप = राजा। के कारने = की खातिर। भेखधारी = भेष धारण करने वाला, सिर्फ धार्मिक लिबास वाला, जिसने लोक दिखावे की खातिर बाहरी धार्मिक चिन्ह रखे हुए हों पर अंदर से धर्म की ओर से कोरा हो। कामारथी = कामी, काम वासना पूरी करने का चाहवान। सुआरथी = स्वार्थी। वा की = उस (भेषधारी) की। पैज सवारी = लाज रखी, (उसे) विकारों में गिरने से बचा लिया।1।

तव = तेरे। कहा = कहाँ? जगत गुरा = हे जगत के गुरू! जउ = अगर। करमु = किए कर्मों का फल। कत = किस लिए? जंबुकु = गीदड़। ग्रासे = खा जाए।1। रहाउ।

बूँद जल = जल की बूँद। चात्रिक = पपीहा। प्रान गऐ = प्राण चले गए। सागरु = समुंद्र। फुनि = फिर, प्राण चले जाने के बाद।2।

बिरमावउ = मैं धीरज दूँ। बूडि मूऐ = यदि डूब के मरे। नउका = नौका, बेड़ी। काहि = किसको? चढावउ = मैं चढ़ाऊँगा।3।

मोरा = मेरा। अउसर = अवसर, समय। अउसर लजा = लाज रखने का समय है। तोरा = तेरा।4।

अर्थ: हे जगत के गुरू प्रभू! अगर मेरे पिछले किए कर्मों का फल नाश ना हुआ (भाव, यदि मैं अब भी पूर्बले किए हुए बुरे कर्मों के संस्कारों के मुताबक ही बुरे काम ही करता रहा) तो तेरी शरण आने का भी क्या लाभ? शेर की शरण आने का भी क्या फायदा, अगर फिर भी गीदड़ खा जाए?।1। रहाउ।

हे प्रभू! तूने तो उस कामी और स्वार्थी व्यक्ति की भी लाज रखी (भाव, तूने उसको काम-वासना के विकार में गिरने से बचाया था) जिसने एक राजे की लड़की की खातिर (धार्मिक होने का) भेष धारण किया था।1।

पपीहा जल की एक बूँद के लिए दुखी होता है (और चिल्लाता है; पर इन्जार में ही) अगर उसके प्राण चले जाएं तो फिर (बाद में) उसको (पानी का) समुंद्र भी मिल जाए तो उसके किसी काम नहीं आ सकता; (वैसे ही), हे प्रभू! अगर तेरे नाम-अमृत के बग़ैर मेरी जीवात्मा विकारों में मर गई, तो फिर तेरी मेहर का समुंद्र मेरा क्या सवारेगा?।2।

(तेरी मेहरबानियों का इन्तजार कर-करके) मेरी जीवात्मा थकी हुई है, (विकारों में) डोल रही है, इसे किस तरह विकारों से रोकूँ? हे प्रभू! यदि मैं (विकारों के समुंद्र में) डूब ही गया, तो बाद में तेरी नौका मिल भी गई, तो, बता, उस बेड़ी में मैं किस को चढ़ाऊँगा?।3।

हे प्रभू! मेरी कोई बिसात नहीं, मेरा कोई आसरा नहीं; (ये मानस जनम ही) मेरी लाज रखने का समय है, मैं सधना तेरा दास हूँ, मेरी लाज रख (और विकारों के समुंद्र में डूबने से मुझे बचा ले)।4।1।

नोट: इस शबद के माध्यम से मन की बुरी वासनाओं से बुरे विचारों से बचने के लिए प्रभू के आगे प्रार्थना की गई है।

नोट: शबद का भाव तो बड़ा ही साफ और सीधा है कि भगत धन्ना जी परमात्मा के आगे अरदास करके कहते हैं- हे प्रभू! संसार-समुंद्र में विकारों की अनेकों लहरें उठ रही हैं; मैं अपनी हिम्मत से इनमें अपनी कमजोर जीवात्मा की छोटी सी बेड़ी को डूबने से नहीं बचा सकता। मानस जीवन का समय समाप्त होता जा रहा है, और विकार बार-बार हमले कर रहे हैं; जल्दी आओ, मुझे इनके हमलों से बचा लो।

पर पंडित तारा सिंह जी इस बारे में यूँ लिखते हैं:

"सधना कसाई अपने कुल का कार त्याग के काहूँ हिन्दू साधू से परमेश्वर भगती का उपदेश लेकर परम प्रेम से भक्ति करने लगा। मुसलमान उसको काफर कहने लगे। काजी लोगों ने उस समय के राजा को कहा इसको बुर्ज में चिनना चाहिए। नहीं तो यह काफ़र बहुत मुसलमानों को हिन्दू मत की रीत सिखाय कर काफ़र करेगा। पातशाह ने काजियों के कहने से बुरज में चिनने का हुकम दिया। राज (मिस्त्री) चिनने लगे। तिस समें सधने भगत ने यह बचन कहिआ।"

आजकल के टीकाकार इस शबद की उथानका इस प्रकार देते हैं:

"काजियों की शरारत के कारण बादशाह ने सधने को बुर्ज में चिनवाना आरम्भ किया तो भगत जी वाहिगुरू के आगे विनती करते हैं।"

और

"ये भक्त सिंध के गाँव सिहवां में पैदा हुआ। नामदेव का समकाली था। काम कसाई का करता था। जब भगत जी को एक राजे ने कष्ट देने की तैयारी की, तो इन्होंने इस प्रकार शबद की प्रार्थना की।"

भगत-वाणी के विरोधी सज्जन इस शबद को गुरमति के उलट समझते हुए भगत सधना जी के बारे में यूँ लिखते हैं;

"भगत सधना जी मुसलमान कसाईयों में से थे। आप हैदराबाद सिंध के पास सेहवाल नगर के रहने वाले थे। कई आप जी को हिन्दू भी मानते हैं। बताया जाता है कि भगत जी सलिगराम के पुजारी थे, जो उल्टी बात है कि हिन्दू होते हुए सलिगराम से मास तोल के नहीं बेच सकते थे। ऐसी कथाओं से तो यही सिद्ध होता है कि आप मुसलमान ही थे क्योंकि मांस बेचने वाले कसाई हिन्दू नहीं थे (आजकल भी हिंदू लोग मांस कम ही बेचते हैं)। अगर मुसलमान थे तो सलिगराम की पूजा क्यों करते? दूसरी तरफ़, आप जी की रचना आपको हिन्दू वैश्नव साबित करती है।"

"सधना जी की रचना साफ बता रही है कि भगत जी ने किसी बिपता के समय छुटकारा पाने के लिए श्री विष्णू जी की आराधना की है। कईयों का ख्याल है कि यह शबद आप जी ने उस भय से बचने के वक्त डरते हुए रचा था जब राजे की तरफ़ से जिंदा दीवार में चिनवा देने का हुकम था।"

"चाहे शबद रचना का कारण कुछ भी हो पर आराधना विष्णू जी की है, जो गुरमति के आशय से करोड़ों दूर है।"

"सो, यह शबद गुरमति के आशय से बहुत दूर है। असल में जान-बख्शी के लिए मिन्नतें हैं।"

हमेशा कहानियों वाला जमाना टिका नहीं रह सकता था। आखिर इन पर ऐतराज़ होने ही थे। ऐतराज़ करने वाले सज्जनों को चाहिए ये था कि सिर्फ बनावटी कहानियों को शबदों से अलग कर देते, पर यहाँ तो जल्दबाज़ी में शबदों के विरोध में ही कटु-वचन बोले जाने लगे हैं।

आओ, अब ध्यान से उथानका को और विरोधी नुक्ता-चीनी को विचारें। पंडित तारा सिंह जी लिखते हैं कि सधना जी मुसलमान थे, और, किसी हिन्दू साधू के प्रभाव में आकर परमेश्वर की भक्ति करने लग पड़े। जो मुसलमानों को बहुत कड़वा लगा। मुसलमानों को कड़वा लगना ही था, खास तौर पर तब जब यहाँ राज ही मुसलमानों का था। पर एक बात साफ स्पष्ट है। ऐसी घटना ताजा ताजा ही जोश पैदा कर सकती है। अगर सधना जी को मुसलमान से हिन्दू बने हुए पाँच-सात साल बीत जाते, तो इतना समय बीत जाने पर बात पुरानी हो जाती, बात आई गई हो जाती, लोग भूल जाते, फिर किसी भी मुसलमान को अपने दीन वाले भाई का काफ़र बन जाना चुभ नहीं सकता था। सो, मुसलमानों ने तुरंत ही सधना जी को दीवार में चिनने का हुकम जारी कर दिया होगा। यहाँ बड़ी हैरानी वाली बात ये है कि मुसलमान घरों में जन्मे-पले सधने ने हिन्दू बनते सार ही अपनी इस्लामी बोली कैसे भुला दी, और, एका-एक संस्कृत के विद्वान बन गए। फरीद जी के शलोक पढ़ के देखें, ठेठ पंजाबी में हैं; पर फिर भी इस्लामी सभ्यता वाले शब्द जगह-जगह पर बरते हुए मिलते हैं। सधने जी के शबद पढ़ के देखिए, कहीं एक शब्द भी उर्दू-फ़ारसी का नहीं है, सिंधी बोली के भी नहीं हैं, सारे के सारे संस्कृत व हिन्दी के हैं। ये बात प्राकृतिक नियम के बिल्कुल उलट है कि दिनों में मुसलमान सधना हिन्दू भगत बन के अपनी बोली को भी भुला देता और नई बोली सीख लेता। साथ ही, मुसलमानी बोली टिकी रहने से सधना जी की भगती में कैसे कोई फर्क पड़ जाना था? सो, सधना जी हिन्दू घर के जन्मे-पले थे।

और, सालिगराम से माँस तोलने की कहानियाँ जोड़ने वालों पर से तो बलिहार जाएं, शबद में तो कहीं कोई ऐसा वर्णन नहीं है। ये हो सकता है कि सधना जी पहले बुत-पूज हों, फिर उन्होंने मूर्ति-पूजा छोड़ दी हो। इसमें कोई बुराई नही। गुरू नानक साहिब ने देवी पूजा और मढ़ी आदि के पूजा करने वालों को ही जीवन का सही रास्ता बता के ईश्वर का उपासक बनाया था, उनकी संतान सिख कौम को आज कोई मूर्ति-पूजक नहीं कह सकता।

सधना जी के शबद में कोई भी ऐसा इशारा नहीं है जिससे ये साबित हो सके भगत जी ने किसी बुर्ज में चिने जाने के डर से जान-बख्शी के तरले लिए हैं। ये मेहरबानी कहानी-घड़ने वालों की है। ऐसी गलती तो हमारे सिख विद्वान भी सतिगुरू पातशाह का इतिहास लिखने के वक्त खा गए हैं देखें, गुरू तेग बहादर जी की शहीदी का हाल बताते हुए ज्ञानी ज्ञान सिंह 'तवारीख़ ख़ालसा' में क्या लिखते हैं;

"बुड्ढे के गुरदित्ते ने विनती की 'सच्चे पातशाह, दुष्ट औरंगे ने कल को हमें भी इसी तरह मारना है, जिस तरह हमारे दो भाई मारे गए।' गुरू जी बड़े धीरज से बोले, 'हमने तो पहले ही तुम्हे कह दिया था कि हमारे साथ वह चले जिसने कष्ट सह के भी धर्म पर कुर्बान होना हो। सो अब भी अगर तुम जाना चाहते हो, चले जाओ।' उन्होंने कहा, 'बेड़ियां, संगल पड़े, पहरे खड़े, ताले लगे हुए कैसे जाएं।' बचन हुआ, 'ये शबद पढ़ो:

काटी बेरी पगह ते गुरि कीनी बंदि खलास॥

तब उनके बँधन इस तुक से पढ़ने से टूट गए, और पहरेदार सो गए, दरवाजा खुल गया। सिख चले तो गुरू जी ने ये शलोक उचारा:

संग सखा सभि तजि गऐ, कोऊ न निबहिओ साथि॥ कहु नानक इह बिपत मै, टेक ऐक रघुनाथ॥55॥

"ये वचन सुन के सिखों के नेत्र बह गए, और धीरज आ गया, दोबारा गुरू जी के पास आ बैठे। फिर गुरू साहिब ने बहुत कहा, पर वे ना गए।"

आगे चल के ज्ञानी ज्ञान सिंघ जी लिखते हैं कि सतिगुरू जी ने जेल में से अपनी माता जी को चिट्ठी लिखी, और,

'इसी पत्रिका में दसमेश्वर का निश्चय परखने के लिए ये दोहरा लिखा था:

बलु छुटकिओ बंधन परे, कछू न होत उपाइ॥ कहु नानक अब ओट हरि, गज जिउ होहु सहाइ॥ इसका उक्तर (बलु होआ बंधन छुटे, सभ किछु होत उपाइ॥ नानक सभु किछु तुमरै हाथ मै, तुम ही होत सहाइ॥ )

ये लिख के दसम पातशाह उसी वक्त सिख के हाथ नौवें पातशाह के पास दिल्ली भेज दी।"

आजकल के विद्वान टीकाकारों ने भी सलोक महला ९वें के इन शलोकों के बारे में यूँ लिखा है- "कहते हैं यह दोहरा गुरू जी ने दिल्ली से कैद की हालत में लिख के दशमेश जी को भेजा था। इसमें उनका इरादा अपने सपुत्र के दिल की दृढ़ता को परखना था। अगले दोहरे में दशमेश जी द्वारा दिया गया उक्तर है। कई बीड़ों (जैसे कि भाई बंनो वाली) में इसके साथ महला १०वाँ दिया हुआ है।"

जो सज्जन अपने सतिगुरू पातशाह को पूर्ण महापुरुख समझते हैं, जिसमें कमी का कहीं भी नामो-निशान नहीं, और जो सज्जन "बाबाणीआ कहाणीआ पुत सपुत करेनि" के गुर-वाक अनुसार गुरू पातशह जी की जीवन-साखियों में से अपने जीवन की रहनुमाई के लिए कोई झलक देखना चाहते हैं उन्हें इन इतिहास-कारों और टीकाकारों के सादा शब्दों में बड़ी ही मुश्किलें आ रही हैं। गुरू तेग बहादर जी अपनी खुशी से दुखियों का दुख बाँटने के लिए दिल्ली गए थे। ये बात सारे जहान में सूर्य की तरह रौशन है। पर उनके शलोक नंबर 55 को इस साखी में ऐसे तरीके से दर्ज किया गया है, जिससे ये जाहिर हो रहा है कि सतिगुरू जी उस कैद को 'बिपता' मान रहे थे और उसको सहने के लिए अपने साथी सिखों का आसरा तलाशते थे। कोई भी सिख कभी भी इस शलोक में से ऐसे अर्थ निकालने को तैयार नहीं हो सकता, पर साखी ने जबरदस्ती ये अर्थ बना दिए हैं।

साखी के दूसरे हिस्से में श्रद्धावान सिख के लिए और भी ज्यादा परेशानी बन जाती है। इतिहासकार और टीकाकार दोनों पक्ष लिखते हैं कि गुरू तेग बहादर जी ने अपने पुत्र को परखने के लिए ये शलोक लिखा था। इसका भाव ये निकला कि वे कोई निर्बलता के बँधनों की तकलीफ़ महसूस नहीं कर रहे थे, सिर्फ दशमेश जी का दिल जानने के लिए ही लिखा था। अगर साखी को सही मान लें, तो दूसरे शब्दों में ये कहना पड़ेगा कि सतिगुरू जी ने अपने बारे में जो कुछ इस शलोक में लिखा था वह ठीक नहीं था। पर ये शलोक तो श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, और, इस बारे में कभी भी ऐसा सोचा नहीं जा सकता कि सतिगुरू जी ने ये ऐसे ही लिखा था। और, अगर ये कहें कि सतिगुरू जी ने जो कुछ चिट्ठी में लिखा था ठीक लिखा था, तो हम एक और उपद्रव कर बैठते हैं, तो हम अंजानपने में ये मानते हैं कि सतिगुरू जी कैद के बँधनों में अपने आप को परेशान महसूस कर रहे थे, और कह रहे थे कि "गज जिउ होहु सहाइ"।

पाठक-जन देख चुके हैं कि शलोकों के साथ गलत साखी जोड़ के इतिहासकार ने हमारे दीन-दुनी के मालिक पातशाह के विरुद्ध वही कोझा दूषण खड़ा कर दिया है जो भगत सधना जी के शबद के साथ साखी लिख के भगत जी के विरुद्ध लगवाया है। दरअसल बात ये है कि दशमेश जी को परखने वाली साखी मनघड़ंत है, और भगत सधना जी के बारे में बुर्ज में चिने जाने वाली साखी भी बनावटी है।

विरोधी सज्जन लिखता है कि इस शबद में भगत जी ने विष्णू जी की आराधना की है। मुश्किल ये बनी हुई है कि जागते हुओं को कौन जगाए। नहीं तो, जिसको भगत जी संबोधन करते हैं उसके लिए शब्द 'जगत-गुरा' बरतते हैं। किसी तरह से भी खींच-घसीट के इस शब्द का अर्थ 'विष्णू' नहीं किया जा सकता। शब्द 'जगत गुरा' के अर्थ 'विष्णू' करने का सिर्फ एक ही कारण हो सकता है। वह यह है कि शबद की पहली तुक में जिस कहानी की तरफ इशारा किया गया है वह विष्णू के बारे में है। पर निरी इतनी बात से सधना जी को विष्णु उपासक नहीं कहा जा सकता। गुरू तेग बहादर साहिब जी मारू राग में एक शबद के द्वारा परमात्मा के नाम सिमरन की महिमा को इस प्रकार बयान करते हैं:

मारू महला ९॥ हरि को नामु सदा सुखदाई॥ जा कउ सिमरि अजामलु उधरिओ, गनका हू गति पाई॥१॥ रहाउ॥ पंचाली कउ राज सभा महि, राम नाम सुधि आई॥ ता को दूखु हरिओ करुणामै, अपनी पैज बढाई॥१॥ जिह नर जसु किरपानिधि गाइओ, ता कउ भइओ सहाई॥ कहु नानक मै इही भरोसै, गही आनि सरनाई॥२॥१॥ (पंना:1008)

'पंचाली' द्रोपदी का नाम है, और हरेक हिन्दू सज्जन जानता है कि द्रोपदी ने दुष्शासन की सभा में नगन होने से बचने के लिए कृष्ण जी की आराधना की थी। इससे ये नतीजा नहीं निकल सकता कि इस शबद में सतिगुरू जी कृष्ण-भक्ति का उपदेश कर रहे हैं। इसी प्रकार, सधना जी का 'जगत-गुरू' भी विष्णू नहीं है।

सधना जी के शबद की पहली तुक में जिस कहानी की ओर इशारा किया गया है उस संबंधी विरोधी सज्जन जी ने लिखा है- कामारथी से भाव उस साखी की ओर इशारा है जिसमें एक बढ़ई (तरखाण) ने राजे की लड़की खातिर विष्णू का भेष बना लिया था, पर ये साखी गंदी है।

हमारे कई टीकाकारों ने इस बढ़ई की कहानी को थोड़े-थोड़े फर्क के साथ यूँ लिखा है:

एक राजे की लड़की ने प्रण कर लिया था कि मैंने विष्णु भगवान से ही विवाह करवाना है। तब एक बढ़ई के बेटे ने विष्णु (उकर) का भेष धार के विवाह करवा लिया। एक दिन उस राजे पर किसी और राजे ने हमला बोल दिया। ये बात सुन के पाखण्डी बढ़ई दौड़ गया और देवनेत वाहिगुरू ने इस राजे की जीत की। इस प्रसंग में हिन्दू मत की साखी ले के सधना जी कहते हैं। देखें शिवनाथ कृत पंचतंत्र का पहला तंत्र 5 कथा 63 से ले के 70 तक। कई नृप कन्या मीरा बाई की साखी से जोड़ते हैं और कहते हैं कि उसके पास गिरधर भेष धार करके आया था।

यहाँ कहानी के गंदे होने के बारे में विरोधी सज्जन से सहमत नहीं हुआ जा सकता। कहानी में ठॅगी तो जरूर है इसको गंदी नहीं कहा जा सकता। इसके मुकाबले में देखिए इन्द्र देवते की वह कहानी जिसका वर्णन श्री गुरू नानक देव जी ने अपने एक शलोक में यूँ किया है, "सहंसर दान दे इंद्रु रोआइआ।' पर ऐसी दलील पेश करके हम असल विषय-वस्तु से बाहर जा रहे हैं। इन कहानियों के गंदे होने अथवा ना होने की जिंमेवारी सधना जी या गुरू नानक साहिब जी पर नहीं आ सकती। हिन्दू देवताओं की ये कहानियाँ हिन्दू जनता में आम प्रचलित हैं।

अब तक की विचार में हम निम्नलिखित नतीजों पर पहुँच चुके हैं:

1. भगत जी इस शबद के द्वारा विकारों से बचने के लिए परमात्मा के आगे अरजोई कर रहे हैं। विष्णू-पूजा का यहाँ कोई वर्णन नहीं है। ना ही जान-बख्शी के लिए यहां कोई तरला है। साखी मनघड़ंत है।

2. सधना जी मुसलमान नहीं थे, हिन्दू घर में जन्मे-पले थे।

3. शबद का भाव निरोल गुरमति के अनुसार है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh