श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

रागु गोंड चउपदे महला ४ घरु १ ॥

जे मनि चिति आस रखहि हरि ऊपरि ता मन चिंदे अनेक अनेक फल पाई ॥ हरि जाणै सभु किछु जो जीइ वरतै प्रभु घालिआ किसै का इकु तिलु न गवाई ॥ हरि तिस की आस कीजै मन मेरे जो सभ महि सुआमी रहिआ समाई ॥१॥ मेरे मन आसा करि जगदीस गुसाई ॥ जो बिनु हरि आस अवर काहू की कीजै सा निहफल आस सभ बिरथी जाई ॥१॥ रहाउ ॥ जो दीसै माइआ मोह कुट्मबु सभु मत तिस की आस लगि जनमु गवाई ॥ इन्ह कै किछु हाथि नही कहा करहि इहि बपुड़े इन्ह का वाहिआ कछु न वसाई ॥ मेरे मन आस करि हरि प्रीतम अपुने की जो तुझु तारै तेरा कुट्मबु सभु छडाई ॥२॥ जे किछु आस अवर करहि परमित्री मत तूं जाणहि तेरै कितै कमि आई ॥ इह आस परमित्री भाउ दूजा है खिन महि झूठु बिनसि सभ जाई ॥ मेरे मन आसा करि हरि प्रीतम साचे की जो तेरा घालिआ सभु थाइ पाई ॥३॥ आसा मनसा सभ तेरी मेरे सुआमी जैसी तू आस करावहि तैसी को आस कराई ॥ किछु किसी कै हथि नाही मेरे सुआमी ऐसी मेरै सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ जन नानक की आस तू जाणहि हरि दरसनु देखि हरि दरसनि त्रिपताई ॥४॥१॥ {पन्ना 859}

चउपदे- चार पदों वाले शबद।

पद्अर्थ: मनि = मन में। चिति = चिक्त में। मन चिंदे = मन मांगे। पाई = पाया, तू हासिल कर लेगा। जीइ = जीअ में (शब्द 'जीउ' से 'जीइ' अधिकरण कारक एक वचन)। घालिआ = की हुई मेहनत। हरि तिस की = 'तिसु हरी की', उस परमात्मा की (शब्द 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है)।1।

मन = हे मन! जगदीस = (जगत+ईस) जगत का मालिक। अवर काहू की = किसी और की। सभ = सारी। बिरथी = व्यर्थ। जाई = जाती है।1। रहाउ।

सभु = सारा। मत गवाई = कहीं गवा ना लेना। इन् कै हाथि = इनके हाथ में। इहि = (शब्द 'इह' से बहुवचन)। बपुड़े = बेचारे। वाहिआ = लागाई हुई वाह, लगाया हुआ जोर। न वसाई = बस नहीं चलता, सफल नहीं होता। तारै = पार लंघाता है।2।

परमित्री = (प्रमित = माया) माया की। करहि = तू करेगा। कितै कंमि = किसी भी काम में। परमित्री आस = माया की आस। भाउ दूजा = प्रभू के बिना और प्यार। थाइ पाई = सफल करेगा।3।

मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। सुआमी = हे स्वामी! को = कोई जीव। किसी कै हथि = किसी भी जीव के हाथ में। मेरै सतिगुरि = मेरे गुरू ने। बूझ = समझ। देखि = देख के। दरसनि = दर्शन की बरकति से। त्रिपताई = मन भर जाता है।4।

अर्थ: हे मेरे मन! जगत के मालिक धरती के साई की (सहायता की) आस रखा कर। परमात्मा के बिना जो भी किसी की भी आस की जाती है, वह आस सफल नहीं होती, वह आस व्यर्थ जाती है।1। रहाउ।

हे भाई! अगर तू अपने मन में अपने चिक्त में सिर्फ परमात्मा पर भरोसा रखे,? तो तू अनेकों ही मन मांगे फल हासिल कर लेगा, (क्योंकि) परमात्मा वह सब कुछ जानता है जो (हम जीवों के) मन में घटित होता है, परमात्मा किसीकी की हुई मेहनत को रक्ती भर भी व्यर्थ नहीं जाने देता। सो, हे मेरे मन! उस मालिक परमात्मा की सदा आस रख, जो सब जीवों में मौजूद है।1।

हे मेरे मन! जो यह सारा परिवार दिखाई दे रहा है, यह माया के मोह (का मूल) है। इस परिवार की आस रख के कहीं अपना जीवन व्यर्थ ना गवा बैठना। इन संबन्धियों के हाथ में कुछ नहीं। ये बेचारे क्या कर सकते हैं? इनका लगाया हुआ जोर सफल नहीं हो सकता। सो, हे मेरे मन! अपने प्रीतम प्रभू की ही आस रख, वही तुझे पार लंघा सकता है, तेरे परिवार को भी (हरेक बिपता से) छुड़वा सकता है।2।

हे भाई! अगर तू (प्रभू को छोड़ के) और माया आदि की आस बनाएगा, कहीं ये ना समझ लेना कि माया तेरे किसी काम आएगी। माया वाली आस (प्रभू के बिना) दूसरा प्यार है, ये सारा झूठा प्यार है, ये तो एक छिन में नाश हो जाएगा। हे मेरे मन! सदा कायम रहने वाले प्रीतम प्रभू की ही आस रख, वह प्रभू तेरी की हुई सारी मेहनत सफल करेगा।3।

पर, हे मेरे मालिक-प्रभू! तेरी ही प्रेरणा से जीव आशाएं बाँधता है, मन के फुरने बनाता है। हरेक जीव वैसी ही आशा करता है जैसी तू प्रेरणा करता है। हे मेरे मालिक! किसी भी जीव के वश कुछ नहीं- मुझे तो मेरे गुरू ने ये सूझ बख्शी है। हे प्रभू! (अपने) दास नानक की (धारी हुई) आशा को तू खुद ही जानता है (वह तमन्ना यह है कि) प्रभू के दर्शन करके (नानक का मन) दर्शन की बरकति से (माया की आशाओं की ओर से) अघाया रहे।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh