श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 861

गोंड महला ४ ॥ जितने साह पातिसाह उमराव सिकदार चउधरी सभि मिथिआ झूठु भाउ दूजा जाणु ॥ हरि अबिनासी सदा थिरु निहचलु तिसु मेरे मन भजु परवाणु ॥१॥ मेरे मन नामु हरी भजु सदा दीबाणु ॥ जो हरि महलु पावै गुर बचनी तिसु जेवडु अवरु नाही किसै दा ताणु ॥१॥ रहाउ ॥ जितने धनवंत कुलवंत मिलखवंत दीसहि मन मेरे सभि बिनसि जाहि जिउ रंगु कसु्मभ कचाणु ॥ हरि सति निरंजनु सदा सेवि मन मेरे जितु हरि दरगह पावहि तू माणु ॥२॥ ब्राहमणु खत्री सूद वैस चारि वरन चारि आस्रम हहि जो हरि धिआवै सो परधानु ॥ जिउ चंदन निकटि वसै हिरडु बपुड़ा तिउ सतसंगति मिलि पतित परवाणु ॥३॥ ओहु सभ ते ऊचा सभ ते सूचा जा कै हिरदै वसिआ भगवानु ॥ जन नानकु तिस के चरन पखालै जो हरि जनु नीचु जाति सेवकाणु ॥४॥४॥ {पन्ना 861}

पद्अर्थ: उपराव = अमीर लोग। सिकदार = सरदार। सभि = सारे। मिथिआ = नाशवंत। भाउ दूजा = प्रभू के बिना और प्यार। जाणु = समझ ले। थिरु = कायम रहने वाला। निहचलु = अटल। परवाणु = कबूल।1।

दीबाणु = आसरा। भजु = सिमर, उचार। जो = जो मनुष्य। ताणु = ताकत।1। रहाउ।

कुलवंत = ऊँचे कुल वाले। मिलखवंत = जमीनों के मालिक। दीसहि = दिखते हें। कचाणु = कच्चा। सति = सदा कायम रहने वाला। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया के प्रभाव से परे। जितु = जिससे।2।

सूद = शूद्र। चारि आस्रम = ब्रहमचर्य, गृहस्त, वानप्रस्थ, सन्यास। परधानु = श्रेष्ठ। निकटि = नजदीक। हिरडु बपुड़ा = बेचारा अरिण्ड। मिलि = मिल के। पतित = विकारी।3।

ते = से। सूचा = पवित्र। जा कै हिरदै = जिसके हृदय में। नानकु पखालै = नानक धोता है। सेवकाण = सेवक। नीच जाति = नीच जाति का।4।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा प्रभू का नाम सिमरा कर, यही अटल आसरा है। जो मनुष्य गुरू के बचनों पर चल कर प्रभू के चरणों में निवास हासिल कर लेता है, उस मनुष्य के आत्मिक बल जितना और किसी का बल नहीं।1। रहाउ।

हे मन! (जगत में) जितने भी शाह-पातशाह अमीर सरदार चौधरी (दिखाई देते हैं) ये सारे नाशवंत हैं, (ऐसे) माया के प्यार को झूठा समझ। सिर्फ परमात्मा ही नाश-रहित है, सदा कायम रहने वाला है, अटल है। हे मेरे मन! उस परमात्मा का नाम जपा कर, तभी कबूल होगा।1।

हे मेरे मन! (दुनिया में) जितने भी धनवान, ऊँची कुल वाले, जमीनों के मालिक दिखाई दे रहे हैं, ये सारे नाश हो जाएंगे, (इनका बड़प्पन वैसे ही कच्चा है) जैसे कुसंभ का रंग कच्चा है। हे मेरे मन! उस परमात्मा को सदा सिमर, जो सदा कायम रहने वाला है, जो माया के प्रभाव से परे है, और जिसके माध्यम से तू प्रभू की हजूरी में आदर हासिल करेगा।2।

(हे मन! हमारे देश में) ब्राहमण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र - ये चार (प्रसिद्ध) वर्ण हैं, (ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास- ये) चार आश्रम (प्रसिद्ध) हैं। इनमें से जो भी मनुष्य नाम सिमरता है, वही (सबसे) श्रेष्ठ है (जाति आदि के कारण नहीं)। जैसे चंदन के नजदीक बेचारा अरिण्ड बसता है (और सुगंधित हो जाता है) वैसे ही साध-संगति में मिल के विकारी भी (पवित्र हो के) कबूल हो जाता है।3।

हे मन! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा आ बसता है, वह मनुष्य और सब मनुष्यों से ऊँचा हो जाता है, स्वच्छ हो जाता है। (हे भाई!) दास नानक उस मनुष्य के चरण धोता है, जो प्रभू का सेवक है प्रभू का भक्त है, चाहे वह जाति के आधार पर नीच ही (गिना जाता) है।4।4।

गोंड महला ४ ॥ हरि अंतरजामी सभतै वरतै जेहा हरि कराए तेहा को करईऐ ॥ सो ऐसा हरि सेवि सदा मन मेरे जो तुधनो सभ दू रखि लईऐ ॥१॥ मेरे मन हरि जपि हरि नित पड़ईऐ ॥ हरि बिनु को मारि जीवालि न साकै ता मेरे मन काइतु कड़ईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ हरि परपंचु कीआ सभु करतै विचि आपे आपणी जोति धरईऐ ॥ हरि एको बोलै हरि एकु बुलाए गुरि पूरै हरि एकु दिखईऐ ॥२॥ हरि अंतरि नाले बाहरि नाले कहु तिसु पासहु मन किआ चोरईऐ ॥ निहकपट सेवा कीजै हरि केरी तां मेरे मन सरब सुख पईऐ ॥३॥ जिस दै वसि सभु किछु सो सभ दू वडा सो मेरे मन सदा धिअईऐ ॥ जन नानक सो हरि नालि है तेरै हरि सदा धिआइ तू तुधु लए छडईऐ ॥४॥५॥ {पन्ना 861}

पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। सभतै = हर जगह। वरतै = मौजूद है। को = कोई मनुष्य। करईअै = करता है। सेवि = सिमर। मन = हे मन! सभदू = सभ (दुखों) से। रखि लईअै = बचा लेता है।1।

पढ़ईअै = पढ़ना चाहिए, जपना चाहिए। काइतु = क्यों? किसलिए? कढ़ईअै = झुरना चाहिए, चिंता फिक्र करनी चाहिए।1। रहाउ।

परपंचु = यह दिखाई देता संसार। सभु = सारा। करतै = करतार ने। धरईअै = धरी हुई है। गुरि = गुरू ने। दिखईअै = दिखाया है।2।

अंतरि = (हमारे) अंदर। नाले = अंग संग। कहु = बताओ। पासहु = के पास से। किआ चोरईअै = क्या छुपाया जा सकता है? निह कपट = निरछल (हो के)। सेवा = भगती। कीजै = करनी चाहिए। केरी = की। सरब = सारे।3।

दै वसि = के वश में। सब दू = सबसे। तुधु = तुझे।4।

जिस दै: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'दै' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा प्रभू का नाम जपना चाहिए, उचारना चाहिए। (जब) परमात्मा के बिना (और) कोई नहीं मार सकता है ना जीवित कर सकता है, तो फिर, हे मेरे मन! (किसी तरह का) चिंता-फिक्र नहीं करना चाहिए।1। रहाउ।

हे मेरे मन! परमात्मा हरेक के दिल की जानने वाला है, हरेक जगह में मौजूद है, (हरेक जीव के अंदर व्यापक हो के) जैसा काम (किसी जीव से) करवाता है, वैसा ही काम जीव करता है। हे मन! ऐसी ताकत वाले प्रभू को सदा सिमरता रह, वह तुझे हरेक दुख-कलेश से बचा सकता है।1।

हे मन! ये सारा दिखाई देता जगत करतार ने खुद बनाया है, इस जगत में उसने खुद ही अपनी ज्योति रखी हुई है। (सब जीवों में वह) करतार स्वयं ही बोल रहा है। (हरेक जीव को) वह प्रभू खुद ही बोलने की ताकत दे रहा है। पूरे गुरू ने (मुझे हर जगह) वह एक प्रभू ही दिखा दिया है।2।

हे मन! (हरेक जीव के) अंदर प्रभू स्वयं ही अंग-संग बसता है, बाहर सारे जगत में भी प्रभू ही हर जगह बसता है। बताओ! हे मन! उस (सर्व-व्यापक) से कौन सी बात छुपाई जा सकती है? मेरे मन! उस प्रभू की सेवा भक्ति निर्छल हो के करनी चाहिए, तब ही (उससे) सारे सुख हासिल किए जा सकते हैं।3।

हे मेरे मन! जिस परमात्मा के वश में हरेक चीज है, वह सबसे बड़ा है, सदा ही उसका ध्यान धरना चाहिए। हे दास नानक! (कह-हे मन!) वह परमात्मा सदा तेरे साथ बसता है, उसका ध्यान धरा कर, तुझे वह (हरेक दुख-कलेश से) बचाने वाला है।4।5।

गोंड महला ४ ॥ हरि दरसन कउ मेरा मनु बहु तपतै जिउ त्रिखावंतु बिनु नीर ॥१॥ मेरै मनि प्रेमु लगो हरि तीर ॥ हमरी बेदन हरि प्रभु जानै मेरे मन अंतर की पीर ॥१॥ रहाउ ॥ मेरे हरि प्रीतम की कोई बात सुनावै सो भाई सो मेरा बीर ॥२॥ मिलु मिलु सखी गुण कहु मेरे प्रभ के ले सतिगुर की मति धीर ॥३॥ जन नानक की हरि आस पुजावहु हरि दरसनि सांति सरीर ॥४॥६॥ छका १॥ {पन्ना 861-862}

पद्अर्थ: कउ = को, के लिए। तपतै = तप रहा है, तड़प रहा है। त्रिखावंतु = प्यासा मनुष्य। नीर = पानी।1।

मेरै मनि = मेरे मन में। बेदन = (वेदना) पीड़ा। अंतर की = अंदरूनी। पीर = पीड़ा।1। रहाउ।

बात = बातचीत। बीर = वीर, बड़ा भाई।2।

मिलु = (हुकमी भविष्यत)। सखी = हे सहेलीए! कहु = बता, सुन। ले = ले के। धीर = (adjective) कोमलता पैदा करने वाली, शांति देने वाली।3।

हरि = हे हरी! पुजावहु = पूरी करो। दरसनि = दर्शन से। सांति सरीर = शरीर को शांति, हृदय को ठंड।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का प्यार मेरे मन को तीर की तरह लगा हुआ है। (उस प्रेम-तीर के कारण पैदा हुई) मेरे मन की अंदरूनी पीड़ा-वेदना मेरा हरी मेरा प्रभू ही जानता है।1। रहाउ।

(हे सहेलिए! उस प्रेम के तीर के कारण अब) मेरा मन परमात्मा के दर्शनों के लिए (इस प्रकार) व्याकुल है (तड़प रहा है) जैसे पानी के बिना प्यासा मनुष्य।1।

हे सहेलिए! अब अगर कोई व्यक्ति मुझे मेरे प्रीतम प्रभू की कोई बात सुनाए (तो मुझे ऐसा लगता है कि) वह मनुष्य मेरा भाई है मेरा वीर है।2।

हे सहेलिए! गुरू की शांति देने वाली बुद्धि ले के मुझे भी मिला कर, और, मुझे प्यारे प्रभू की सिफत-सालाह सुनाया कर।3।

हे प्रभू! (अपने) दास नानक की (दर्शनों की) आस पूरी कर। हे हरी! तेरे दर्शनों से मेरे हृदय में ठंड पड़ती है।4।6। छक्का 1।

छका-छक्का, छे शबदों का संग्रह।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh