श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु गोंड महला ५ चउपदे घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सभु करता सभु भुगता ॥१॥ रहाउ ॥ सुनतो करता पेखत करता ॥ अद्रिसटो करता द्रिसटो करता ॥ ओपति करता परलउ करता ॥ बिआपत करता अलिपतो करता ॥१॥ बकतो करता बूझत करता ॥ आवतु करता जातु भी करता ॥ निरगुन करता सरगुन करता ॥ गुर प्रसादि नानक समद्रिसटा ॥२॥१॥ {पन्ना 862}

नोट: शीर्षक 'चउपदे' है। पर ये पहला शबद 'दोपदा' है।

पद्अर्थ: सभु = हरेक चीज। करता = पैदा करने वाला। भुगता = भोगने वाला।1। रहाउ।

पेखत = देखने वाला। अद्रिसटो = ना दिखता जगत। द्रिसटो = दिखई देता संसार। ओपति = उत्पक्ति, पैदायश। परलउ = (प्रलय) नाश। बिआपत = व्यापक। अलिपतो = निर्लिप।1।

बकतो = बोलने वाला। आवतु = आने वाला, पैदा होता है। जातु = जाता (ये शरीर छोड़ के)। निरगुन = माया के तीनों गुणों से रहित। सरगुन = तीन गुण समेत। प्रसादि = कृपा से। समद्रिसटा = सबमें एक प्रभू को देखने की सूझ।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही हरेक चीज पैदा करने वाला है, (और सबमें व्यापक हो के वही) हरेक चीज भोगने वाला है।1। रहाउ।

(हे भाई! हरेक में व्यापक हो के) परमात्मा ही सुनने वाला है परमात्मा ही देखने वाला है। जो कुछ दिखाई दे रहा है ये भी परमात्मा (का रूप) है, जो ना-दिखने वाला जगत है वह भी परमात्मा (का ही रूप) है। (सारे जगत की) पैदायश (करने वाला भी) प्रभू ही है, (सबका) नाश (करने वाला भी) प्रभू ही है। सबमें व्याप्त भी प्रभू ही है, (और व्याप्त होते हुए भी) निर्लिप भी प्रभू ही है।1।

(हरेक में) प्रभू ही बोलने वाला है, प्रभू ही समझने वाला है। जगत में आता भी वही है, यहाँ से जाता भी वह प्रभू ही है। प्रभू, माया के तीन गुणों से परे भी है, तीन गुणों के समेत भी है। हे नानक! परमात्मा को सबमें ही देखने की ये सूझ गुरू की कृपा से प्राप्त होती है।2।1।

गोंड महला ५ ॥ फाकिओ मीन कपिक की निआई तू उरझि रहिओ कुस्मभाइले ॥ पग धारहि सासु लेखै लै तउ उधरहि हरि गुण गाइले ॥१॥ मन समझु छोडि आवाइले ॥ अपने रहन कउ ठउरु न पावहि काए पर कै जाइले ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ मैगलु इंद्री रसि प्रेरिओ तू लागि परिओ कुट्मबाइले ॥ जिउ पंखी इकत्र होइ फिरि बिछुरै थिरु संगति हरि हरि धिआइले ॥२॥ जैसे मीनु रसन सादि बिनसिओ ओहु मूठौ मूड़ लोभाइले ॥ तू होआ पंच वासि वैरी कै छूटहि परु सरनाइले ॥३॥ होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन सभि तुम्हरे जीअ जंताइले ॥ पावउ दानु सदा दरसु पेखा मिलु नानक दास दसाइले ॥४॥२॥ {पन्ना 862}

पद्अर्थ: फाकिओ = फसा हुआ। मीन की निआई = मछली की तरह। कपिक की निआई = बंदर की तरह। की निआई = की तरह। उरझि रहिओ = उलझा हुआ है। कुसंभाइले = कसुंभ (की तरह जल्दी साथ छोड़ देने वाली माया) में। पग धारहि = जो भी तू पैर रखता है। सासु लै = हरेक सांस जो तू ले रहा है। लेखै = (धर्म राज के) लेखे में। तउ = तब। उधरहि = तेरा उद्धार होगा, तू बचेगा।1।

मन = हे मन! समझु = होश कर। आवाइले = अवैड़ापन। ठउरु = (पकका) ठिकाना। काऐ = क्यों? पर कै = पराए घर में, किसी और के धन की ओर।1। रहाउ।

मैगल = हाथी। रसि = रस में, स्वाद में। रसन = जीभ। ओहु मूढ़ = वह मूर्ख (मछली)। पंच वासि = (कामादिक) पाँचों के वश में। पंच वैरी कै वसि = पाँच वैरियों के वश में। परु = पड़।3।

दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख का नाश करने वाले! सभि = सारे। पावउ = पाऊँ, मैं प्राप्त करूँ। दानु = ख़ैर। पेखा = मैं देखूँ। मिलु नानक = नानक को मिल।4।

अर्थ: हे मन! होश कर, अवैड़ा-पन छोड़ दे। अपने रहने के लिए तुझे (यहाँ) पक्का ठिकाना नहीं मिल सकता। फिर, औरों के धन-पदार्थ की ओर क्यों जाता है?।1। रहाउ।

हे मन! तू कुसंभ (की तरह नाशवान माया के मोह) में उलझा रहता है, जैसे (जीभ के स्वाद के कारण) मछली और (एक मुठ चनों की खातिर) बंदर। (मोह में फस के जितने भी) कदम तू रखता है, जो भी तू सांस लेता है, (वह सब कुछ धर्मराज के) लेखे में (लिखा जा रहा है)। हे मन! परमात्मा के गुण गाया कर, तब ही (इस मोह में से) बच सकेगा।1।

हे मन! जैसे हाथी को काम-वासना ने प्रेर के रखा होता है (और वह पराई कैद में फस जाता है, वैसे ही) तू परिवार के मोह में फसा हुआ है, (पर तू ये याद नहीं रखता कि) कैसे अनेकों पक्षी (किसी वृक्ष पर) इकट्ठे होकर (रात काटते हैं, दिन चढ़ने पर) फिर हरेक पंछी विछुड़ जाता है (वैसे ही परिवार के हरेक जीव ने विछुड़ जाना है)। साध-संगति में टिक के परमात्मा का ध्यान धरा कर, बस! यही है अॅटल आत्मिक ठिकाना।2।

हे मन! जैसे मछली जीव के स्वाद के कारण नाश हो जाता है, वह मूर्ख लोभ के कारण लूटा जाता है, तू भी (कामादिक) पाँच वैरियों के वश में पड़ा हुआ है। हे मन! प्रभू की शरण पड़, तब ही (इन वैरियों के पँजे में से) निकल पाएगा।3।

हे दीनों के दुख नाश करने वाले! (हम जीवों पर) दयावान हो। ये सारे जीव-जंतु तेरे ही (पैदा किए हुए) है। (मुझ) नानक को, जो तेरे दासों का दास है, मिल। मैं सदा तेरे दर्शन करता रहूँ (मेहर कर, बस) मैं यही ख़ैर हासिल करना चाहता हूँ।4।2।

रागु गोंड महला ५ चउपदे घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जीअ प्रान कीए जिनि साजि ॥ माटी महि जोति रखी निवाजि ॥ बरतन कउ सभु किछु भोजन भोगाइ ॥ सो प्रभु तजि मूड़े कत जाइ ॥१॥ पारब्रहम की लागउ सेव ॥ गुर ते सुझै निरंजन देव ॥१॥ रहाउ ॥ जिनि कीए रंग अनिक परकार ॥ ओपति परलउ निमख मझार ॥ जा की गति मिति कही न जाइ ॥ सो प्रभु मन मेरे सदा धिआइ ॥२॥ आइ न जावै निहचलु धनी ॥ बेअंत गुना ता के केतक गनी ॥ लाल नाम जा कै भरे भंडार ॥ सगल घटा देवै आधार ॥३॥ सति पुरखु जा को है नाउ ॥ मिटहि कोटि अघ निमख जसु गाउ ॥ बाल सखाई भगतन को मीत ॥ प्रान अधार नानक हित चीत ॥४॥१॥३॥ {पन्ना 862}

पद्अर्थ: जीअ प्रान = जीवों के प्राण। जिनि = जिस (प्रभू) ने। साजि = साज के, पैदा करके। माटी महि = शरीर में। निवाजि = निवाज के, मेहर करके। कउ = को। सभु किछु = हरेक चीज। भोगाइ = खिलाता है। तजि = त्याग के। मूढ़े = हे मूर्ख! कत = कहाँ? जाइ = जाता है (तेरा मन)।1।

लागउ = मैं लगता हूँ, मैं लगना चाहता हूँ। सेव = सेवा भक्ति। गुर ते = गुरू से। निरंजन देव = वह प्रकाश रूप जो माया के प्रभाव से परे है।1। रहाउ।

कीऐ = बनाए। प्रकार = किस्म। ओपति = उत्पक्ति। परलउ = नाश। निमख = आँख झमकने जितना समय। मझार = में। गति = आतिमक अवस्था। मिति = नाप। गति मिति = कैसा है और कितना बड़ा है (ये बात)। जा की = जिस (प्रभू) की। मन = हे मन!।2।

आइ न = पैदा नहीं होता। न जावै = नहीं मरता। निहचलु = सदा अटल। धनी = मालिक प्रभू। केतक = कितना? गनी = मैं गिनूँ। जा कै = जिसके घर में। भंडार = खजाने। सगल = सारे। घटा = घटों में, शरीरों को। आधार = आसरा।3।

सति पुरखु = सदा स्थिर सर्व व्यापक। जा को = जिसका। कोटि = करोड़ों। अघ = पाप। जसु = सिफतसालाह का गीत। गाउ = गाया कर। निमख = आँख झपकने जितना समय। निमख निमख = हर वक्त। बाल सखाई = बचपन का साथी। को = का। प्रान अधार = प्राण का सहारा। हित चीत = अपने चिक्त में उसका प्यार पैदा कर।4।

अर्थ: हे भाई! मैं तो परमात्मा की भक्ति में लगना चाहता हॅूँ। गुरू से ही उस प्रकाश-रूप माया-रहित प्रभू की भगती की समझ पड़ सकती है।1। रहाउ।

हे मूर्ख! जिस प्रभू ने (तुझे) पैदा करके तुझे जिंद दी, तुझे प्राण दिए, जिस प्रभू ने मेहर करके शरीर में (अपनी) ज्योति रख दी है, बरतने के लिए हरेक चीज दी है, और अनेकों किस्मों के भोजन तुझे खिलाता है, उस प्रभू को बिसार के (तेरा मन) और कहाँ भटकता है?।1।

हे मेरे मन! सदा उस प्रभू का ध्यान धरा कर, जिसने (जगत में) अनेकों किस्मों के रंग (-रूप) पैदा किए हुए हैं, जो अपनी पैदा की हुई रचना को आँख झपकने जितने समय में नाश कर सकता है, और जिसकी बाबत ये नहीं कहा जा सकता कि वह कैसा है और कितना बड़ा है।2।

हे मन! वह मालिक प्रभू सदा कायम रहने वाला है, वह ना पैदा होता है ना मरता है। मैं उसके कितने गुण गिनूँ? वह बेअंत गुणों का मालिक है। उसके घर में उसके गुण-रूपी रत्न-जवाहरात के खजाने भरे पड़े हैं। वह प्रभू सब जीवों को आसरा देता है।3।

हे मन! जिस प्रभू का नाम (ही बताता है कि वह) सदा कायम रहने वाला है और सर्व-व्यापक है, उसका यश हर वक्त गाया कर, (उसकी सिफत-सालाह की बरकति से) करोड़ों पाप मिट जाते हैं। हे नानक! अपने चिक्त में उस प्रभू का प्यार पैदा कर, वह (हरेक जीव का) आरम्भ से ही साथी है, भक्तों का मित्र है और (हरेक की) जीवात्मा का आसरा है।4।1।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh