श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गोंड महला ५ ॥ नाम संगि कीनो बिउहारु ॥ नामुो ही इसु मन का अधारु ॥ नामो ही चिति कीनी ओट ॥ नामु जपत मिटहि पाप कोटि ॥१॥ रासि दीई हरि एको नामु ॥ मन का इसटु गुर संगि धिआनु ॥१॥ रहाउ ॥ नामु हमारे जीअ की रासि ॥ नामो संगी जत कत जात ॥ नामो ही मनि लागा मीठा ॥ जलि थलि सभ महि नामो डीठा ॥२॥ नामे दरगह मुख उजले ॥ नामे सगले कुल उधरे ॥ नामि हमारे कारज सीध ॥ नाम संगि इहु मनूआ गीध ॥३॥ नामे ही हम निरभउ भए ॥ नामे आवन जावन रहे ॥ गुरि पूरै मेले गुणतास ॥ कहु नानक सुखि सहजि निवासु ॥४॥२॥४॥ {पन्ना 863}

पद्अर्थ: नाम संगि = प्रभू के नाम से। कीनो = किया है। अधारु = आसरा। चिति = चित में। ओट = आसरा। मिटहि = मिट जाते हैं। कोटि = करोड़ों।1।

नामुो: अक्षर 'म' के साथ दो मात्राएं 'ो' और 'ु' हैं। असल शब्द 'नामु' है, यहाँ 'नामो' पढ़ना है।

रासि = पूँजी, सरमाया। दीई = दी है (गुरू ने)। इसटु = सबसे प्यारा, (ईष्ट), पूजनीय।1। रहाउ।

जीअ की = जीवात्मा की। संगी = साथी। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। जात = जाता है। मनि = मन में। जलि = जल में। थलि = धरती में, धरती पर। नामो = नाम ही, परमात्मा ही।

नामे = नाम ही, नाम से ही। मुख उजले = सुर्ख रू। सगले = सारे। उधरे = (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं। नामि = नाम से। सीध = सिद्ध, सफल। गीध = गिझ गया है।3।

आवन जावन = जनम मरण के चक्कर। रहे = खत्म हो जाते हैं। गुरि = गुरू ने। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभू। सुखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू ने मुझे परमात्मा का नाम ही सरमाया दिया है (ता कि मैं ऊँचे आत्मिक जीवन का व्यापार कर सकूँ)। (अब प्रभू का नाम ही) मेरे मन का सबसे बड़ा प्यारा (पूज्य देवता बन गया) है। (पर, हे भाई!) गुरू की संगति में रह के ही हरी-नाम का ध्यान किया जा सकता है (हरी-नाम में सुरति जुड़ सकती है)।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरू की कृपा से अब) मैं प्रभू के नाम से (आत्मिक जीवन का) व्यापार कर रहा हूँ। प्रभू का नाम ही (मेरे) इस मन का आसरा बन गया है। नाम को ही मेरे अपने चिक्त में (जीवन का) सहारा बना लिया है। (हे भाई! प्रभू का) नाम जपने से करोड़ों पाप मिट जाते हैं।1।

(हे भाई! गुरू की कृपा से प्रभू का) नाम मेरी जिंद का सरमाया बन चुका है, नाम ही मेरा साथी मेरे साथ चलता फिरता है। प्रभू का नाम ही मेरे मन को मीठा लग रहा है। पानी में धरती पर सब जीवों में मुझे हरी-नाम ही (हरी ही) दिख रहा है।2।

हे भाई! नाम की बरकति से परमात्मा की हजूरी में आदर-मान प्राप्त होता है, नाम से सारी कुलें ही (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाती हैं। प्रभू के नाम में जुड़ने से मेरे सारे काम-काज सफल हो रहे हैं। अब मेरा ये मन परमात्मा के नाम से गिझ गया है।3।

हे भाई! प्रभू-नाम के सदका ही दुनिया का कोई डर नहीं सता सकता। हरी-नाम में जुड़ने से ही जनम-मरन के चक्कर समाप्त हो जाते हैं। (पर) पूरे गुरू ने (ही सदा) गुणों के खजाने प्रभू के साथ (जीवों को) मिलाया है (गुरू ही मिलाता है)। हे नानक! कह- (प्रभू के नाम की बरकति से) आनंद में आत्मिक अडोलता में ठिकाना मिल जाता है।4।2।4।

गोंड महला ५ ॥ निमाने कउ जो देतो मानु ॥ सगल भूखे कउ करता दानु ॥ गरभ घोर महि राखनहारु ॥ तिसु ठाकुर कउ सदा नमसकारु ॥१॥ ऐसो प्रभु मन माहि धिआइ ॥ घटि अवघटि जत कतहि सहाइ ॥१॥ रहाउ ॥ रंकु राउ जा कै एक समानि ॥ कीट हसति सगल पूरान ॥ बीओ पूछि न मसलति धरै ॥ जो किछु करै सु आपहि करै ॥२॥ जा का अंतु न जानसि कोइ ॥ आपे आपि निरंजनु सोइ ॥ आपि अकारु आपि निरंकारु ॥ घट घट घटि सभ घट आधारु ॥३॥ नाम रंगि भगत भए लाल ॥ जसु करते संत सदा निहाल ॥ नाम रंगि जन रहे अघाइ ॥ नानक तिन जन लागै पाइ ॥४॥३॥५॥ {पन्ना 863}

पद्अर्थ: मानु = आदर, सत्कार। कउ = को। करता दानु = दान करता है। घोर = भयानक।1।

घटि = (हरेक) शरीर में। अवघट = शरीर से बाहर। अवघटि = शरीर से बाहरी जगह में। घटि अवघटि = शरीर के अंदर और बाहर। जत कतहि = जहाँ कहाँ, हर जगह। सहाइ = सहायता करने वाला।1। रहाउ।

रंकु = कंगाल मनुष्य। राउ = राजा। जा कै = जिसकी नजर में। ऐक समानि = एक जैसे। कीट = कीड़े। हसति = हाथी। सगल = सब में। पूरान = पूर्ण, व्यापक। बीओ = दूसरा, कोई और। पूछि = पूछ के। मसलति = मश्वरा। आपहि = आप ही, खुद ही।2।

जानसि = जान सकेगा। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के प्रभाव से परे। अकारु = दिखाई देता जगत। निरंकारु = (निर+आकार) आकार रहित, अदृष्ट। घटि = शरीर में, हृदय में। आधारु = आसरा।3।

रंगि = रंग में, प्यार में। जसु = सिफत सालाह। करते = करते। निहाल = प्रसन्न। जन = (प्रभू के) सेवक। अघाइ रहे = तृप्त रहते हैं, तृष्णा से बचे रहते हैं। लागै = लगता है। तिन पाइ = उनके पैरों पर।4।

अर्थ: हे भाई! जो प्रभू शरीर के अंदर और शरीर के बाहर हर जगह सहायता करने वाला है अपने मन में उस प्रभू का ध्यान धरा कर।1। रहाउ।

हे भाई! उस मालिक प्रभू को सदा सिर निवाया कर, जो निमाणे को मान देता है, जो सारे भूखों को रोजी देता है और जो भयानक गर्भ में रक्षा करने योग्य है।1।

(हे भाई! उस प्रभू का ध्यान धरा कर) जिसकी निगाह में एक कंगाल मनुष्य और एक राजा एक जैसे ही हैं, जो कीड़े (से लेकर) हाथी तक सबमें ही व्यापक है, जो किसी और को पूछ के (कोई काम करने की) सालाह नहीं करता, (बल्कि) जो कुछ करता है वह स्वयं ही करता है।2।

(हे भाई! उस प्रभू का ध्यान धरा कर) जिस (ही हस्ती) का अंत कोई भी जीव नहीं जान सकेगा। वह माया से निर्लिप प्रभू (हर जगह) स्वयं ही स्वयं है। ये सारा दिखाई देता जगत उसका अपना ही स्वरूप है, आकार-रहित भी वह स्वयं ही है। वह प्रभू सारे शरीरों में मौजूद है और सारे ही शरीरों का आसरा है।3।

हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य उसके नाम के रंग में लाल हुए रहते हैं। उसकी सिफत-सालाह के गीत गाते हुए संत जन सदा खिले रहते हैं। हे भाई! प्रभू के सेवक प्रभू के नाम के प्रेम में टिक के माया की तृष्णा से बचे रहते हैं। नानक उन सेवकों के चरण पड़ता है।4।3।5।

गोंड महला ५ ॥ जा कै संगि इहु मनु निरमलु ॥ जा कै संगि हरि हरि सिमरनु ॥ जा कै संगि किलबिख होहि नास ॥ जा कै संगि रिदै परगास ॥१॥ से संतन हरि के मेरे मीत ॥ केवल नामु गाईऐ जा कै नीत ॥१॥ रहाउ ॥ जा कै मंत्रि हरि हरि मनि वसै ॥ जा कै उपदेसि भरमु भउ नसै ॥ जा कै कीरति निरमल सार ॥ जा की रेनु बांछै संसार ॥२॥ कोटि पतित जा कै संगि उधार ॥ एकु निरंकारु जा कै नाम अधार ॥ सरब जीआं का जानै भेउ ॥ क्रिपा निधान निरंजन देउ ॥३॥ पारब्रहम जब भए क्रिपाल ॥ तब भेटे गुर साध दइआल ॥ दिनु रैणि नानकु नामु धिआए ॥ सूख सहज आनंद हरि नाए ॥४॥४॥६॥ {पन्ना 863}

पद्अर्थ: जा कै संगि = जिन (संत जनों) की संगति में। निरमलु = पवित्र। किलबिख = (सारे) पाप। होहि = हो जाते हैं। रिदै = हृदय में। परगास = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश।1।

से = (बहुवचन) वे। केवल = सिर्फ। गाईअै = गाया जाता है। जा कै = जिनके घर में। नीत = नित्य, सदा।1। रहाउ।

जा कै मंत्रि = जिनके मंत्र से, जिन (संतजनों) के उपदेश से। मनि = मन में। भउ = डर। भरमु = वहम। जा कै = जिनके हृदय में। कीरति = सिफत सालाह। सार = श्रेष्ठ। जा की रेनु = जिन की चरण धूल। बांछै = इच्छा रखता है।2।

कोटि पतित = करोड़ों विकारी। उधार = (विकारों से) निस्तारा। निरंकारु = आकार रहित प्रभू। जा कै = जिनके हृदय में। नाम अधार = नाम का आसरा। भेउ = भेद। निधान = खजाना। देउ = प्रकाश रूप।3।

तब = उस वक्त। भेटे = मिलते हैं। दइआल = दया के घर। रैणि = रात। नानकु धिआऐ = नानक सिमरता है। सहज = आत्मिक अडोलता। हरि नाऐ = हरी के नाम में जुड़ने से।4।

अर्थ: हे भाई! मेरे मित्र तो प्रभू के वह संतजन हैं, जिनकी संगति में सदा सिर्फ हरी का नाम ही गाया जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई! मेरे मित्र तो वह संतजन हैं) जिनकी संगति में रहने से ये मन पवित्र हो जाता है, जिनकी संगति में सदा हरी-नाम का सिमरन (करने का मौका मिलता) है, जिनकी संगति में रहने से सारे पाप नाश हो जाते हैं, और जिनकी संगति में टिकने से हृदय में (स्वच्छ आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है।1।

(हे भाई! मेरे मित्र तो वह संत जन हैं) जिनके उपदेश की बरकति से परमात्मा का नाम मन में आ बसता है, जिन के उपदेश से (मन में से) हरेक डर, हरेक भरम-वहम दूर हो जाता है, जिनके हृदय में श्रेष्ठ और पवित्र करने वाली हरी-कीर्ति बसती रहती है, और जिनके चरण-धूड़ की अभिलाषा सारा जगत करता रहता है।2।

(हे भाई! मेरे मित्र तो वह संत जन हैं) जिनकी संगति में रह के करोड़ों विकारियों का (विकारों से) निस्तारा हो जाता है, जिनके हृदय में (हर वक्त) केवल परमात्मा ही बसता है, जिनके अंदर उस परमेश्वर के नाम का आसरा बना रहता है जो सारे जीवों (के दिल) का भेद जानता है, जो कृपा का खजाना है, जो माया के प्रभाव से परे हैं और जो प्रकाश-रूप है।3।

(हे भाई!) जब प्रभू जी दयावान होते हैं, तब ऐसे दयालु संतजन मिलते हैं तब सतिगुरू जी मिलते हैं। (हे भाई! ऐसे संत जनों की संगति में) नानक दिन-रात परमात्मा का नाम सिमरता है, और हरी-नाम की बरकति से (नानक के हृदय में) आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं।4।4।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh