श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 864 गोंड महला ५ ॥ गुर की मूरति मन महि धिआनु ॥ गुर कै सबदि मंत्रु मनु मान ॥ गुर के चरन रिदै लै धारउ ॥ गुरु पारब्रहमु सदा नमसकारउ ॥१॥ मत को भरमि भुलै संसारि ॥ गुर बिनु कोइ न उतरसि पारि ॥१॥ रहाउ ॥ भूले कउ गुरि मारगि पाइआ ॥ अवर तिआगि हरि भगती लाइआ ॥ जनम मरन की त्रास मिटाई ॥ गुर पूरे की बेअंत वडाई ॥२॥ गुर प्रसादि ऊरध कमल बिगास ॥ अंधकार महि भइआ प्रगास ॥ जिनि कीआ सो गुर ते जानिआ ॥ गुर किरपा ते मुगध मनु मानिआ ॥३॥ गुरु करता गुरु करणै जोगु ॥ गुरु परमेसरु है भी होगु ॥ कहु नानक प्रभि इहै जनाई ॥ बिनु गुर मुकति न पाईऐ भाई ॥४॥५॥७॥ {पन्ना 864} पद्अर्थ: गुर की मूरति = गुरू का शबद रूपी मूर्ति। गुर की मूरति धिआनु = गुरू के शबद रूपी मूर्ति का ध्यान। गुर कै सबदि = गुरू के शबद से। मंत्रु = नाम मंत्र। मान = मानता है। रिदै = हृदय में। लै = ले के। धारउ = मैं धारता हूँ।1। मत = कहीं (ऐसा ना हो), मत कहीं। मत को भुलै = कहीं कोई भूल ना जाए। संसारि = संसार में।1। रहाउ। कउ = को। गुरि = गुरू ने। मारगि = रास्ते पर। अवर = और (देवी देवताओं आदि की भक्ति)। त्रास = डर।2। प्रसादि = कृपा से। ऊरध = उलटा हुआ। बिगास = खिलाव। अंधकार = अंधेरा। प्रगास = प्रकाश। जिनि = जिस (प्रभू) ने। ते = से, से। जानिआ = जान लिआ, सांझ डाल ली। मुगध = मूर्ख। मानिआ = पतीज गया।3। करणै जोग = सब कुछ करने की समर्था वाला। होगु = सदा रहेगा। प्रभि = प्रभू ने। इहै = यही बात। जनाई = समझाई है। मुकति = (माया के मोह के अहंकार से) खलासी, मुक्ति। भाई = हे भाई!।4। अर्थ: हे भाई! दुनियां में कहीं कोई व्यक्ति भटकना में पड़ कर (ये बात) ना भूल जाए, कि गुरू के बिना कोई और जीव (संसार समुंद्र से) पार लंघा सकता है।1। रहाउ। (तभी तो, हे भाई!) मैं तो गुरू (को) परमात्मा (का रूप जान के उस) को सदा नमस्कार करता हूँ, गुरू के चरण अपने हृदय में धार के बसाए रखता हूँ। गुरू के शबद से मेरा मन नाम-मंत्र को (सब मंत्रों से श्रेष्ठ मंत्र) मान रहा है। (हे भाई! गुरू का शबद ही गुरू की मूर्ति है) गुरू की (इस) मूर्ति का (मेरे) मन में ध्यान टिका रहता है।1। हे भाई! पूरे गुरू की महिमा का अंत नहीं पाया जा सकता। गलत रास्ते पर जा रहे मनुष्य को गुरू ने (ही सही जीवन के) रास्ते पर (हमेशा) डाला है, औरों की (देवी-देवताओं की भक्ति) छुड़वा के परमातमा की भक्ति से जोड़ा है (और, इस तरह उसके अंदर से) जनम-मरण के चक्कर का सहम समाप्त कर दिया है।2। हे भाई! (माया की ओर) उलटा हुआ हृदय-कमल, गुरू की कृपा से (पलट के सीधा हो के) खिल उठता है। (माया के मोह के) घोर अंधेरे में (सही ऊँचे आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है। गुरू के द्वारा उस परमात्मा से जान-पहचान बन जाती है जिसने (यह सारा जगत) पैदा किया है। (ये) मूर्ख मन गुरू की कृपा से (प्रभू के चरणों में जुड़े रह के) पतीज जाता है।3। हे नानक! कह- गुरू (आत्मिक अवस्था में ईश्वर से एक-सुर होने के कारण) ईश्वर (करतार) का ही रूप है जो सब कुछ कर सकने के समर्थ है। गुरू उस परमेश्वर का रूप है, जो (पहले भी मौजूद था) अब भी मौजूद है और सदा कायम रहेगा। हे भाई! गुरू (की शरण पड़े) बिना (माया के मोह के अंधेरे से) मुक्ति नहीं मिल सकती।4।5।7। गोंड महला ५ ॥ गुरू गुरू गुरु करि मन मोर ॥ गुरू बिना मै नाही होर ॥ गुर की टेक रहहु दिनु राति ॥ जा की कोइ न मेटै दाति ॥१॥ गुरु परमेसरु एको जाणु ॥ जो तिसु भावै सो परवाणु ॥१॥ रहाउ ॥ गुर चरणी जा का मनु लागै ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागै ॥ गुर की सेवा पाए मानु ॥ गुर ऊपरि सदा कुरबानु ॥२॥ गुर का दरसनु देखि निहाल ॥ गुर के सेवक की पूरन घाल ॥ गुर के सेवक कउ दुखु न बिआपै ॥ गुर का सेवकु दह दिसि जापै ॥३॥ गुर की महिमा कथनु न जाइ ॥ पारब्रहमु गुरु रहिआ समाइ ॥ कहु नानक जा के पूरे भाग ॥ गुर चरणी ता का मनु लाग ॥४॥६॥८॥ {पन्ना 864} पद्अर्थ: करि = याद किया कर। मन मोर = हे मेरे मन! होर = और (टेक, और ही आसरा)। दाति = नाम की दाति।1। ऐको = एक रूप। तिसु भावै = उसको अच्छा लगता है। परवाणु = कबूल।1। रहाउ। जा का मनु = जिस मनुष्य का मन। पाऐ = कमाता, पाता। मानु = आदर।2। देखि = देख के। निहाल = प्रसन्न। घाल = मेहनत, कमाई। कउ = को। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। दहदिसि = दसों दिशाओं में (दह = दस। दिस = तरफ, दिशाएं)। जापै = प्रकट हो जाता है।3। महिमा = वडिआई। रहिआ समाइ = हर जगह मौजूद है।4। अर्थ: हे भाई! गुरू और परमात्मा का एक-रूप समझो। जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है, वही गुरू भी (सिर-माथे) कबूल करता है।1। रहाउ। हे मेरे मन! हर वक्त गुरू (के उपदेश) को याद रख, मुझे गुरू के बिना और कोई आसरा नहीं सूझता। हे मन! जिस गुरू की बख्शी हुई आत्मिक जीवन की दाति को कोई मिटा नहीं सकता, उस गुरू के आसरे दिन-रात टिका रह।1। हे मेरे मन! जिस मनुष्य का मन गुरू के चरणों में टिका रहता है, उसकी हरेक भटकना हरेक दुख-दर्द दूर हो जाता है। हे मन! गुरू की शरण पड़ के मनुष्य (हर जगह) आदर पाता है। हे मेरे मन! गुरू से सदके हो।2। हे मेरे मन! गुरू के दर्शन करके (मनुष्य का तन-मन) खिल उठता है। गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य की मेहनत सफल हो जाती है। कोई भी दुख गुरू के सेवक पर (अपना) जोर नहीं डाल सकता। गुरू की शरण रहने वाला मनुष्य सारे संसार में प्रकट हो जाता है।3। हे भाई! गुरू की महिमा बयान नहीं की जा सकती। गुरू उस परमात्मा का रूप है, जो हर जगह व्यापक है। हे नानक! कह- जिस मनुष्य के बड़े भाग्य जागते हैं, उसका मन गुरू के चरणों में टिका रहता है।4।6।8। गोंड महला ५ ॥ गुरु मेरी पूजा गुरु गोबिंदु ॥ गुरु मेरा पारब्रहमु गुरु भगवंतु ॥ गुरु मेरा देउ अलख अभेउ ॥ सरब पूज चरन गुर सेउ ॥१॥ गुर बिनु अवरु नाही मै थाउ ॥ अनदिनु जपउ गुरू गुर नाउ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरु मेरा गिआनु गुरु रिदै धिआनु ॥ गुरु गोपालु पुरखु भगवानु ॥ गुर की सरणि रहउ कर जोरि ॥ गुरू बिना मै नाही होरु ॥२॥ गुरु बोहिथु तारे भव पारि ॥ गुर सेवा जम ते छुटकारि ॥ अंधकार महि गुर मंत्रु उजारा ॥ गुर कै संगि सगल निसतारा ॥३॥ गुरु पूरा पाईऐ वडभागी ॥ गुर की सेवा दूखु न लागी ॥ गुर का सबदु न मेटै कोइ ॥ गुरु नानकु नानकु हरि सोइ ॥४॥७॥९॥ {पन्ना 864} पद्अर्थ: भगवंतु = समर्थता वाला। देउ = प्रकाश रूप प्रभू। अलख = अ+लख, जिसका स्वरूप बिआन से परे है। अभेउ = अ+भेव, जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। सरब पूज चरन गुर = गुरू के चरण जिन की पूजा सारी सृष्टि करती है। सेउ = सेवूँ, मैं सेवता हूँ।1। अवरु थाउ = और जगह। अनदिनु = हर रोज। जपउ = जपूँ, मैं जपता हूँ।1। रहाउ। गिआनु = धार्मिक चर्चा। रिदै = हृदय में। धिआनु = समाधि। रहउ = रहूँ, मैं रहता हूँ। कर जोरि = (दोनों) हाथ जोड़ के। होरु = और जगह।2। बोहिथु = जहाज। भव = संसार समुंद्र। ते = सें। छुटकारि = खलासी, मुक्ति। अंधकार = घुप अंधेरा। मंत्रु = उपदेश, शबद। उजारा = उजाला। कै संगि = की संगति में। सगल = सारे जीव। निसतारा = पार उतारा।3। वडभागी = बड़े भाग्यों से। पाईअै = मिलता है।4। अर्थ: हे भाई! (माया के मोह के घोर अंधकार से बचने के लिए) गुरू के बिना मुझे और कोई जगह नहीं सूझती (जिसका मैं आसरा ले सकूँ। सो) मैं हर वक्त गुरू का नाम जपता हूँ (गुरू की ओट लिए बैठा हूँ)।1। रहाउ। हे भाई! (मेरा) गुरू (गुरू की शरण ही) मेरे वास्ते (देव-) पूजा है, (मेरा) गुरू, गोबिंद (का रूप) है। मेरा गुरू परमात्मा (का रूप) है, गुरू बड़ी ही समर्था का मालिक है। मेरा गुरू उस प्रकाश-रूप प्रभू का रूप है जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता और जिसका भेद पाया नहीं जा सकता। मैं तो उन गुरू-चरणों की शरण पड़ा रहता हूँ जिनको सारी सृष्टि पूजती है।1। हे भाई! गुरू ही मेरे वास्ते धार्मिक चर्चा है, गुरू (सदा मेरे) हृदय में टिका हुआ है, यही मेरी समाधि है। गुरू उस भगवान का रूप है जो सर्व-व्यापक है और सृष्टि का पालनहार है। मैं (अपने) दोनों हाथ जोड़ के (सदा) गुरू की शरण पड़ा रहता हॅूँ। गुरू के बिना मुझे कोई और आसरा नहीं सूझता।2। हे भाई! गुरू जहाज है जो संसार-समुंद्र से पार लंघा लेता है। गुरू की शरण पड़ने से जमों (के डर) से खलासी मिल जाती है। (माया के मोह के) घोर अंधकार में गुरू का उपदेश ही (आत्मिक जीवन का) प्रकाश देता है। गुरू की संगति में रहने से सारे जीवों का पार-उतारा हो जाता है।3। हे भाई! बहुत ही भाग्यों से पूरा गुरू मिलता है। गुरू की शरण पड़ने से कोई दुख छू भी नहीं सकता। (जिस मनुष्य के हृदय में) गुरू का शबद (बस जाए, उसके अंदर से) कोई मनुष्य (आत्मिक जीवन के उजाले को) मिटा नहीं सकता। हे भाई! गुरू नानक उस परमात्मा का रूप है।4।7।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |