श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 865 गोंड महला ५ ॥ राम राम संगि करि बिउहार ॥ राम राम राम प्रान अधार ॥ राम राम राम कीरतनु गाइ ॥ रमत रामु सभ रहिओ समाइ ॥१॥ संत जना मिलि बोलहु राम ॥ सभ ते निरमल पूरन काम ॥१॥ रहाउ ॥ राम राम धनु संचि भंडार ॥ राम राम राम करि आहार ॥ राम राम वीसरि नही जाइ ॥ करि किरपा गुरि दीआ बताइ ॥२॥ राम राम राम सदा सहाइ ॥ राम राम राम लिव लाइ ॥ राम राम जपि निरमल भए ॥ जनम जनम के किलबिख गए ॥३॥ रमत राम जनम मरणु निवारै ॥ उचरत राम भै पारि उतारै ॥ सभ ते ऊच राम परगास ॥ निसि बासुर जपि नानक दास ॥४॥८॥१०॥ {पन्ना 865} पद्अर्थ: संगि = साथ। बिउहारु = व्यापार, वणज। प्रान अधार = प्राणों का आसरा। रमत = व्यापक। सभ = सारी सृष्टि में।1। मिलि = मिल के। सभ ते = सब (कामों) से। पूरन = सफल।1। रहाउ। संचि = इकट्ठा कर। भंडार = खजाने। आहार = (प्राणों की) खुराक। गुरि = गुरू ने। करि = कर के।2। सहाइ = सहायता करने वाला। लिव लाइ = सुरति जोड़। निरमल = पवित्र। किलबिख = पाप।3। रमत = उचारते हुए, सिमरते हुए। निवारै = दूर कर देता है। उचरत = उचारते हुए। भै पारि = डर से पार। परगास = प्रकाश। निसि = रात। बासुर = दिन।4। अर्थ: हे भाई! संतजनों के साथ मिल के, परमात्मा का नाम सिमरा करो। ये काम अन्य सारे कामों से पवित्र और सफल है।1। रहाउ। (हे भाई! तू जगत में व्यापार करने आया है) परमात्मा के नाम (की राशि) से (नाम सिमरन का) व्यापार किया कर। परमात्मा के नाम को अपनी जिंद (अपने प्राणों) का आसरा बना ले। जो प्रभू हर जगह व्यापक है, सारी सृष्टि में मौजूद है, हे भाई! सदा ही उसकी सिफतसालाह किया कर।1। हे भाई! परमात्मा का नाम धन संचित किया कर, खजाने भर ले, परमात्मा के नाम को अपने प्राणों की खुराक बना ले। गुरू ने कृपा करके (मुझे ये बात) बता दी है कि (देखना,) कहीं परमात्मा का नाम तुझे भूल ना जाए।2। हे भाई! जो परमात्मा सदा ही सहायता करने वाला है, उसके चरणों में सदा ही सुरति जोड़े रख। परमात्मा का नाम जप-जप के जीव पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं, उनके अनेक जन्मों के किए हुए पाप दूर हो जाते हैं।3। हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरने से (परमात्मा मनुष्य का) जनम-मरण (का चक्र) दूर कर देता है। प्रभू का नाम उचारते हुए (प्रभू जीव को) सहम (-भरे संसार समुंद्र) से पार लंघा देता है। हे दास नानक! सबसे ऊँचे प्रभू (के नाम) का प्रकाश (अपने अंदर) पैदा कर, दिन-रात उसका नाम जपा कर।4।8।10। गोंड महला ५ ॥ उन कउ खसमि कीनी ठाकहारे ॥ दास संग ते मारि बिदारे ॥ गोबिंद भगत का महलु न पाइआ ॥ राम जना मिलि मंगलु गाइआ ॥१॥ सगल स्रिसटि के पंच सिकदार ॥ राम भगत के पानीहार ॥१॥ रहाउ ॥ जगत पास ते लेते दानु ॥ गोबिंद भगत कउ करहि सलामु ॥ लूटि लेहि साकत पति खोवहि ॥ साध जना पग मलि मलि धोवहि ॥२॥ पंच पूत जणे इक माइ ॥ उतभुज खेलु करि जगत विआइ ॥ तीनि गुणा कै संगि रचि रसे ॥ इन कउ छोडि ऊपरि जन बसे ॥३॥ करि किरपा जन लीए छडाइ ॥ जिस के से तिनि रखे हटाइ ॥ कहु नानक भगति प्रभ सारु ॥ बिनु भगती सभ होइ खुआरु ॥४॥९॥११॥ {पन्ना 865} पद्अर्थ: उन कउ = उन (कामादिक पांचों) को। खसमि = पति प्रभू ने। ठाक = मनाही। हारे = (संत जनों के सामने वे) हार गए हैं। संग ते = पास से, से। मारि = मार के। बिदारे = नाश कर दिए। महलु = ठिकाना। मिलि = मिल के। मंगलु = सिफत सालाह के गीत।1। सगल = सारी। सिकदार = सरदार, चौधरी। पानीहार = पानी भरने वाले गुलाम।1। रहाउ। पास ते = से। दान = दण्ड। करहि = करते हैं। साकत = प्रभू से टूटे हुए लोग। पति = इज्जत। खोवहि = गवा लेते हैं। पग = पैर (बहुवचन)। मलि = मल के।2। पंच पूत = (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार = ये) पाँच पुत्र। जणे = पैदा किए हैं। माइ = माया ने। उतभुज खेलु = (अंडज, जेरज, सेतज) उतभुज (चार खाणियों) का तमाशा। करि = कर के, रच के। विआइ = पैदा करती है। तीनि = तीन। तीनि गुणा = (रजो, सतो, तमो) तीन गुण। कै संगि = कूे साथ। रचि = एकमेक हो के। रसे = मस्त हैं। जन = प्रभू के सेवक।3। से = थे। तिनि = उस (प्रभू) ने। हटाइ = रोक के। सारु = संभाल। सभ = सारी सृष्टि।4। जिस के: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'के' के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार- ये) पाँच सारी सृष्टि के चौधरी हैं। पर प्रभू की बंदगी करने वालों के ये नौकर बन के रहते हैं।1। रहाउ। हे भाई! जब मालिक प्रभू ने उन (पाँच चौधरियों) को मना किया, तब वे (प्रभू के सेवकों के समाने) हार मान गए। अपने सेवकों से (प्रभू ने उनको) मार के भगा दिया। वे चौधरी परमात्मा के भक्तों का ठिकाना ना ढूँढ सके, (क्योंकि) परमात्मा के सेवकों ने (सदा) परमात्मा की सिफत सालाह का गीत गाया है।1। हे भाई! ये पाँच चौधरी दुनिया (के लोगों से) दण्ड (दान, जैसे गुण्डे हफता वगैरा) लेते हैं, पर प्रभू के भक्तों को नमस्कार करते हैं। प्रभू से विछुड़े हुए लोगों की आत्मिक राशि-पूँजी लूट लेते हैं, (साकत, मनमुख यहां अपनी) इज्जत गवा लेते हैं। पर ये चौधरी गुरमुखों के पैर मल-मल के धोते हैं।2। (हे भाई! प्रभू के हुकम में) माया ने उतभुज (उत्पक्ति) आदि का खेल रचा के यह जगत पैदा किया है, (यह कामादिक) पाँचों पुत्र भी उसने ही पैदा किए हैं। (दुनिया के लोग माया के) तीन गुणों के साथ रच-मिच के रस भोग रहे हैं। (जबकि) परमात्मा के भगत इनको त्याग के ऊँचे आत्मिक मण्डल में बसते हैं।3। (हे भाई! ये कामादिक) जिस (प्रभू) के बनाए हुए हैं, उसने इनको (संत जनों से) दूर ही रोक के रखा है, प्रभू ने मेहर करके संत जनों को इनसे बचा रखा है। हे नानक! कह- (हे भाई!) प्रभू की भक्ति किया कर। भगती के बिना सारी सृष्टि (इन चौधरियों के वश में पड़ के) दुखी होती है।4।9।11। गोंड महला ५ ॥ कलि कलेस मिटे हरि नाइ ॥ दुख बिनसे सुख कीनो ठाउ ॥ जपि जपि अम्रित नामु अघाए ॥ संत प्रसादि सगल फल पाए ॥१॥ राम जपत जन पारि परे ॥ जनम जनम के पाप हरे ॥१॥ रहाउ ॥ गुर के चरन रिदै उरि धारे ॥ अगनि सागर ते उतरे पारे ॥ जनम मरण सभ मिटी उपाधि ॥ प्रभ सिउ लागी सहजि समाधि ॥२॥ थान थनंतरि एको सुआमी ॥ सगल घटा का अंतरजामी ॥ करि किरपा जा कउ मति देइ ॥ आठ पहर प्रभ का नाउ लेइ ॥३॥ जा कै अंतरि वसै प्रभु आपि ॥ ता कै हिरदै होइ प्रगासु ॥ भगति भाइ हरि कीरतनु करीऐ ॥ जपि पारब्रहमु नानक निसतरीऐ ॥४॥१०॥१२॥ {पन्ना 865} पद्अर्थ: कलि कलेस = झगड़े बखेड़े। नाइ = नाय, नाम से (शब्द 'नाउ' से करण कारक एक वचन है 'नाय')। सुख कीनो ठाउ = सुखों ने अपनी जगह बना ली। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। अघाऐ = तृप्त हो गए। संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। पाऐ = प्राप्त कर लिए।1। जपत = जपते हुए। परे = पड़े, लांघ गए। हरे = दूर कर लिए।1। रहाउ। रिदै = हृदय में। उरि = हृदय में। धारे = (जिन्होंने) धारे, टिकाए। अगनि = तृष्णा की आग। ते = से। सभ उपाधि = सारी उपाधि, सारा बखेड़ा। सिउ = साथ, में। सहजि = आत्मिक अडोलता से।2। थनंतरि = थान अंतरि। थान थनंतरि = थान थान अंतरि, हरेक जगह में। घटा का = घटों का, शरीरों का। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। जा कउ = जिस मनुष्य को। देई = देता है। लेइ = लेता है।3। कै अंतरि = के अंदर। ता कै हिरदै = उस (मनुष्य) के हृदय में। प्रगासु = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। भाइ = भाय, भाउ अनुसार, प्रेम से। करीअै = करना चाहिए। जपि = जप के। निसतरीअै = पार लांघ जाया जाता है, निस्तारा हो जाता है।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए परमात्मा के भगत (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं। उनके अनेकों जन्मों के किए हुए पाप दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। हे भाई! प्रभू के नाम की बरकति से (संतजनों के अंदर से) झगड़े-बखेड़े मिट जाते हैं। उनके सारे दुख नाश हो जाते हैं। सुख उनके अंदर अपना ठिकाना बना लेते हैं। आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम जप-जप के (संतजन माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहते हैं। गुरू की कृपा से वे सारे फल प्राप्त कर लेते हैं।1। हे भाई! संत जन अपने दिल में गुरू के चरण बसाए रखते हैं (पूरी श्रद्धा से गुरू के शबद को मन में टिकाए रखते हैं), इस तरह वे तृष्णा की आग के समुंद्र से पार लांघ जाते हैं। वे जनम-मरण के चक्कर का सारा ही बखेड़ा खत्म कर लेते हैं, आत्मिक अडोलता के द्वारा उनकी सुरति प्रभू से जुड़ी रहती है।2। हे भाई! जो मालिक प्रभू खुद ही हरेक जगह में बस रहा है और सारे जीवों के दिलों की जानने वाला है, वह प्रभू जिस मनुष्य को मेहर करके समझ बख्शता है, वह मनुष्य आठों पहर (हर वक्त्) परमात्मा का नाम सिमरन करता रहता है।3। हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में प्रभू स्वयं आ प्रकट होता है, उस व्यक्ति के हृदय में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है। हे नानक! भगती की भावना से परमात्मा की सिफत सालाह करते रहना चाहिए। परमात्मा का नाम जप के (संसार-समुंद्र से) पार लांघा जाता है।4।10।12। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |